मंगलवार, जनवरी 31, 2017

उड़ना पृथ्वीराज

अब तक मेवाड़ की कोख से जन्म राणा कुंभा राणा सांगा और राणा प्रताप को ही सब ने पढ़ा और सुना किन्तु इसी वंश में एक और महान् पराक्रमी प्रतिभा हुई जो पृथ्वीराज के नाम से इतिहास के अदृश्य पृष्ठों में विख्यात है। पृथ्वीराज राणा रायमल के सब से बड़े पुत्र थे।

 पृथ्वीराज ने बड़े कुंवर होने के नाते प्रारम्भ से ही मेवाड़ पर होने वाले तत्कालीन अनेक संकटों में अपने पिता की सहायता की और मेवाड़ का मान बढ़ाया। पृथ्वीराज शत्रु से कभी भी नम्रता पूर्वक बातचीत करने में विश्वास नहीं रखता था। पृथ्वीराज ने अभी युवावस्था में पैर रखा ही था। उस समय मेवाड़ को मांडू का सुल्तान गयास शाह आये दिन परेशान कर रहा था। एक दिन मेवाड़ के महाराणा सुलह की बात के लिये सुल्तान के एक दूत से बातचीत कर रहे थे, भाग्य से कुंवर पृथ्वीराज वहां जा पहुँचा। महाराणा को इस प्रकार सुलह व नम्रतापूर्वक बातचीत करते हुए देखकर वह कुद्ध हुआ और उसने अपने पिता से कहा कि क्या आप मुसलमानों से दबते हैं कि इस प्रकार नम्रता पूर्वक बातचीत कर रहे हैं? सुल्तान के दूत ने इसे अपमान समझा और वह वहां से उठ कर मांडू के सुल्तान के पास गया और उसे भड़का कर एक सेना सहित चित्तौड़ पर चढ़ आया। पृथ्वीराज ने अपने पिता की ओर से सुल्तान की सेना का सामना किया और ख्यातों के अनुसार वह सफल हुआ तथा सुल्तान को कैद कर लिया। यहीं से पृथ्वीराज के पराक्रम व शौर्य का प्रकाश बिखरने लग गया। इसके बाद भी पृथ्वीराज ने मेवाड़ पर आये अनेक संकटों में अपने असीम बाहुबल का परिचय दिया।

 किन्तु विधाता को भला यह कहां मंजूर था कि यह महाबली पृथ्वीराज दो घड़ी विश्राम से बैठ जाये, उसका जीवन तो संघर्ष की माटी से बना था।

 एक दिन पृथ्वीराज व संग्रामसिंह दोनों ही अपनी अपनी जन्म पत्रियाँ ज्योतिषी को दिखला रहे थे। दुर्भाग्य से ज्योतिषी ने महाराणा बनने के ग्रह संग्राम के दिखलाये, इस पर पृथ्वीराज ने वहीं सांगा पर एक प्रहार किया, जिससे सांगा एक आंख को सदैव के लिये खो बैठे। दोनों राजकुमारों का यह संघर्ष एवम् द्वेष बढ़ता ही गया। एक दिन पुन: जब दोनों तलवारों से भिड़ रहे थे। उनके काका सारंगदेवोत ने उन्हें रोकना चाहा किन्तु पृथ्वीराज की तलवार को सांगा की जगह सारंगदेवोत ने अपने ऊपर झेली जिससे वह घायल हुआ। इसके बारे में एक दोहा अभी भी राजस्थान में प्रसिद्ध है

पीथल खग हाथां पकड़, वह सांगा किय वार।
सारंग झेले सीम पर, उणवर साम उबार।

उपरोवत संघर्ष में सांगा और पृथ्वीराज दोनों ही घायल हुए, मगर इसके उपरान्त राणा रायमल ने पृथ्वीराज को कहला भेजा कि-'दुष्ट, मुझे मुंह मत दिखलाना क्योंकि मेरी विद्यमानता में तूने राज्य लोभ से ऐसा क्लेश बढ़ाया और मेरा कुछ भी लिहाज न किया।

 
पृथ्वीराज लजित होकर कुम्भलगढ़ में जाकर रहने लगा, किन्तु उसके पराक्रम की कहानी को पूर्ण विराम नहीं लगा।

 एक बार जब उसने राणा की शरण में आये टोडा के सोलंकी हरराजोत की पुत्री ताराबाई के सौन्दर्य के बारे में सुना तो वह विवाह करने को तैयार हो गया। किन्तु विवाह से पूर्व हरराजोत की एक शर्त थी कि तारा से विवाह करने वाले को ललाखों से लड़कर पुन: पूर्वजों की जागीर टोडा को मुझे दिलाना होगा। पृथ्वीराज इसके लिये सहर्ष तैयार हो गया और उसने तुरन्त एक सेना लेकर लल्ला खां पर चढ़ाई कर दी। बहुत वीरता पूर्वक ललाखां और उसके मित्र अजमेर के सूबेदार मत्लू खां की संयुक्त सेना को पराजित कर टोडे का राज्य राव हरराजोत को दिला दिया तथा तारा के साथ विवाह किया। लला खां के साथ हुऐ युद्ध के सम्बन्ध में प्राचीन पद्य प्रसिद्ध है :-

भाग लल्ला पृथ्वीराज आयो
सिंहरे साथ रे, स्याल ब्यायो।

उपरोक्त पद्य से ही प्रतीत होता है कि पृथ्वीराज का आतंक उस समय कितना अधिक छाया हुआ था। वास्तव में पृथ्वीराज एक महान् साहसी पुरुष था। सारंगदेव से पृथ्वीराज का बैर प्रारम्भ से ही था। फलस्वरूप पृथ्वीराज ने राणा से सारंग देव को भैंसरोड़गढ़ की दी हुई जागीरी का विरोध किया तो राणा ने कहा कि 'हमने तो दे दी, अगर तुम ले सको तो ले लो।इस पर पृथ्वीराज ने 2000 की सेना लेकर भैंसरोड़गढ़ पर आक्रमण कर दिया। सारंगदेव पृथ्वीराज के शौर्य से परिचित था ही, वह किले से भाग निकला और बून्दी के राव सूरजमल से जा मिला। सूरजमल इस समय महाराणा से नाराज था और उसने मेवाड़ के कई सारे भाग पर अधिकार कर रखा था।

 महाराणा रायमल सूरजमल के आतंक से परेशान थे। उनकी इस परेशानी को दूर करने के लिये किसी ने कमर नहीं बांधी किन्तु पृथ्वीराज ने सूरजमल को मारने का बीड़ा उठाया। जैसा कि 'हरिभूषण महाकाव्य' में पाया जाता है कि महाराणा रायमल ने एक दिन दरबार में कहा कि महाबली सूर्यमल के कारण मुझ को इतना दु:ख है कि उसके जीते जी मुझे यह राज्य भी प्रिय नहीं है। उसके इस कथन पर जब कोई सरदार सूर्यमल को मारने को तैयार न हुआ तो पृथ्वीराज ने उसको मारने का बीड़ा उठाया। महाकाव्य में दी हुई पंक्तियां इस प्रकार है :-

तदात्मजो महावीर: पृथ्वीराजो रणागुणी : ।
तेनोत्थाय नमस्कृत्य बीटिका याचिता ततः ॥ 27
अवश्य माखीयां में सूर्यमल्लो महाबली।
निराधारो पि नालिकः सापथ्तो ........ ।28। (सर्ग 2)

महाराणा ने पृथ्वीराज के इस साहसी कदम पर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की। पृथ्वीराज ने सूर्यमल से टकराने के लिये तैयारियां करना शुरू कर दी। कुछ ही समय में सूर्यमल व सारंगदेव मान्डू के सुल्तान की सहायला लेकर मेवाड़ पर चढ़ आये। पृथ्वीराज ने डटकर मुकाबला किया और सन्ध्या होने पर जब कि सेनायें अपने अपने पड़ाव में लौट गई थी, वह सूर्यमल के डेरे पर निडर हो पहुंचा और दोनों काका-भतीजे के मधुर वार्तालाप के अन्त में पृथ्वीराज यह कह कर पुन: लौट आया कि-'काकाजी, स्मरण रखिये कि मैं आपको भाले की नोंक जितनी भूमि भी न रखने ढूंगा।'

 उपरोक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि सूर्यमल और पृथ्वीराज में जहां स्पर्धा थी, वहीं प्रेम भी था। सूर्यमल जब चित्तौड़ की लड़ाई में परास्त होकर बाठेड़ा

 चला गया पृथ्वीराज ने उसका पीछा किया और वह रात के समय ही बाठेड़ा जा पहुंचा। सूर्यमल अपने कुछ साथियों सहित पृथ्वीराज की पहुंच के समय ताप रहा था। पृथ्वीराज सूर्यमल के डेरे में सेना सहित घुस गया। युद्ध शुरू हो गया। पृथ्वीराज को पास आते देखकर सूर्यमल ने कहा-'कुंवर, हम तुम्हें मारना नहीं चाहते हैं, क्योंकि तुम्हारे मारे जाने पर राज्य डूबता है, मुझ पर तुम शस्त्र चलाओ।" यह सुनते ही पृथ्वीराज ने लड़ाई बन्द करवा दी और घोड़े पर उतर कर सूरजमल से पूछा-'काकाजी, आप क्या कर रहे थे।सूरजमल ने उत्तर दिया-'हम तो यहां निश्चिन्त होकर ताप रहे थे।इस पर पृथ्वीराज तपाक से बोला,-'मेरे जैसे शत्रु के होते हुए भी क्या आप निश्चिन्त रहते हैं?" सूरजमल इस चुनौती भरे वाक्य को सुनकर कुंवर पृथ्वीराज की सूरत निहारने लगा।

 पृथ्वीराज के उपरोक्त वाक्य में झलकने वाले आत्मविश्वास ने ही आगे चलकर सूरजमल को मेवाड़ छोड़ने के लिये मजबूर किया। पृथ्वीराज की निष्कपटता एवम् निडरता का एक और उदाहरण हमारे सामने है जो महाभारत की याद दिलाता है। जब सूरजमल बाठेड़ा से भागा और सादड़ी पहुंचा, पृथ्वीराज भी पीछे-पीछे सादड़ी गया और वहां सूरजमल से मिलकर अन्त: पुर में गया, जहां उसने अपनी काकी से मुजरा करके कहा, "मुझे भूख लगी है।सचमुच कितना निश्च्छल मन था। उस पृथ्वीराज का जिसने सूरजमल को युद्ध के मैदान में सदैव शत्रु समझा, किन्तु उसके बाद उसने उसी शत्रु को अपने परिवार का ही एक प्रिय व्यक्ति माना, साथ-साथ खाना खाता और रात में पारिवारिक बातें किया करता था। ऐसे विशाल हृदय वाला पृथ्वीराज नीति के प्रश्न पर सदैव नीति से ही काम लेता था। जब उसने सुना कि भुवा रमाबाई को पति (राजा मंडलिक) के बदचलन होने के कारण दु:ख है तो उसने तुरन्त गिरनार (गुजरात) सेना सहित ग्रस्थान किया और महल मे सोते हुए मंडलिक को जा दबोचा। मंडलिक प्राण भिक्षा मांगने लगा, जिस पर उसने उसके कान का एक कोना काट कर उसे छोड़ दिया और रमाबाई को अपने साथ ले आया। ऐसा ही सिरोही के राव जगमाल, जो पृथ्वीराज की बहिन आनन्दाबाई को दु:ख दिया करता था, को ठीक किया किन्तु राव जगमाल ने जहां अपने वीर साले का बहुत सत्कार किया, वहीं सरल हृदय पृथ्वीराज को लौटते समय विष मिली गोलियां खिला दी, जिसके कारण कुंभलगढ़ के निकट पहुंचने पर उसका देहान्त हो गया।

 इस प्रकार यदि मेवाड़ का यह महा पराक्रमी कुंवर पृथ्वीराज कुछ समय और जीवित रह जाता तो पता नहीं मेवाड़ के इतिहास में वीरता के और कितने पृष्ठ जुड़ते ? नैणसी ने तो अपनी ख्यात में इसे उड़ना पृथ्वीराज कहकर लिखा है। पृथ्वीराज की वीरता तो इसी में प्रकट हो जाती है कि बाबर जैसे व्यक्ति द्वारा मान्य शक्तिशाली सांगा भी पृथ्वीराज के हाथों पराजित होकर कई वर्षों तक मेवाड़ के बाहर दर-दर की ठोकरें खाता फिरा। जब तक पृथ्वीराज जीवित रहा, सांगा की मेवाड़ में आने की हिम्मत नहीं हुई। सांगा मेवाड़ में तब ही आया जब पृथ्वीराज को विधाता के कूर हाथों ने इस पावन धरती से छीन लिया था।

 
संक्षेप में यह कहना ही उचित होगा कि   सचमुच उसकी   भुजाओं में भीम   का बल, मन में अभिमन्यु सा आत्मविश्वास, और रगों में अपने ही वंशजों की यशमय स्फूर्ति भरी थी।  इतिहासकारों ने उसे राणा के पद पर आसीन न हो   सकने के कारण ख्याति   नहीं दी। अगर वह सांगा की  जगह  राणा होता  तो मेवाड़ के इतिहास में शायद ही   और कोई राणा   शौर्य और पराक्रम में   पृथ्वीराज की समानता करता।

(“राजस्थान के सूरमा “ ,लेखक – तेज़सिंह तरुण)



 


शुक्रवार, जनवरी 27, 2017

महाराणा संग्रामसिंह (सांगा)

महाराणा संग्रामसिंह का जन्म वि.सं. 1539, वैशाख वदी 9 (12 अप्रेल, 1482) तथा राज्याभिषेक 24 मई, 1509 को हुआ था। महाराणा संग्रामसिंह, जो लोगों में सांगा के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। यथा नाम तथा गुणवाले संग्रामसिंह का जन्म ही संग्राम के निमित हुआ था। राज्याभिषक के बाद सांगा का जीवन निरन्तर युद्धों अर्थात् संग्रामों के बीच ही बीता। सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने सांगा के सन्दर्भ में लिखा है कि-'मेवाड़ के महाराणाओं में वह सबसे अधिक प्रतापी और प्रसिद्ध हुआ, इतना ही नहीं, किंतु उस समय का सबसे प्रबल हिन्दूराजा था जिसकी सेवा में अनेक हिन्दू राजा रहते थे और कई हिन्दू राजा सरदार तथा मुसलमान अमीर, शाहजादे आदि उसकी शरण लेते थे।

 
ओझाजी के उक्त कथन का सार यही है कि सांगा अपने समय का एक शक्तिशाली और प्रतापी शासक था। ऐसा नहीं था कि सांगा को यह सब विरासत में मिला। सच तो यह है कि सांगा ने अपने पिता रायमल के समय के लड़खड़ाते मेवाड़ को सम्बल ही नहीं दिया बल्कि अपने दादा कुंभा द्वारा स्थापित साम्राज्य को और मजबूती प्रदान कर मेवाड़ की यश-कीर्ति को बढ़ाया। अगर मैं यहाँ यह कहूँ तो सम्भवत: गलत नहीं होऊँगा कि गुहिल ने मेवाड़ की नींव रखी, बप्पा ने उसके निर्माण को प्रारम्भ किया और कुंभा ने उसे पूर्णकर शक्ति एवं शौर्य के रंग से रंगा तो सांगा ने उसे पराक्रम एवं प्रभुसत्ता का स्वरूप प्रदान किया। यहीं से मेवाड़ की एक वह पहचान बनी जिसने प्रताप एवं अन्यान्य शासकों को उस पहचान को रखने के निमित्त अनवरत संघर्ष करने की प्रेरणा दी।

योद्धा के रूप में   जैसा कि पूर्व में  लिखा गया है   कि  संग्रामसिंह को   यथा नाम तथा  काम   करना पड़ा। राज्यारोहण के पश्चात सांगा को ईडर आदि अपने ठिकानों को व्यवस्थित किया। ईडर पर गुजरात सुलतान मुज़फ्फर की नजरें प्रारम्भ से ही थी। इस पर अधिकार करने   के लिए कई   प्रयास किये  किंतु राणा सांगा उसके वास्तविक स्वामी रायमल के पक्ष में रहे और उसे संघर्ष के लिए प्रेरित करते रहे।  फल रूप रायमल सुल्तान से संघर्ष करता रहा किंतु जब गुजरात के सुल्तान ने भी ठानली और   ईडर पर आ जमा तो भला राणा सांगा कैसे चुप बैठे सकते थे? तुरन्त ईडर पर चढ़ आये। सुल्तान का हाकिम निजामुल्मुल्क सांगा के आगमन की खबर मात्र से ही भाग खड़ा हुआ और अहमदनगर के किले में  जा छिपा। राणा ने  भी ईडर की गद्दी पर रायमल को बिठाकर अहमदनगर को जा घेरा। मुसलमानों ने  किले के दरवाजे बन्द कर   दिये, पर वीर राजपूत कब चुप्प रहने   वाले थे। बागड़   का डूंगर सिंह और   उसके  पुत्र  कान्हसिंह ने  अप्रत्याशित शौर्य का परिचय देते हुए दरवाजे तोड़ अंदर प्रवेश कर लिया। बस, अब क्या था, दोनों और से तलवारें बजी और सांगा के आगे सुलतान की सेना नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई।
इस युद्ध के सन्दर्भ में एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा कि जब किले की किंवाड़ सांगा के हाथी किंवाड़ों पर लगे कीलों को देखकर नहीं तोड़ सके तो डुंगरसिंह को बेटे कान्हसिंह ने किंवाड़ों पर लगे उन नुकीले कीलों को पकड़कर लटक गया और फिर महावत को हाथी बढ़ाने के लिए कहा। महावत ने हाथी आगे बढ़ाया, किंवाड़ टूट गये और राजपूत सैनिकों ने किले में प्रवेश किया। कान्हसिंह द्वारा प्रदर्शित इस वीरतापूर्ण कार्य पर सांगा सहित सभी ने उस वीर को नमन किया।

 
सांगा ने ईडर के बाद अहमदनगर भी जीत लिया और बड़नगर की और बढ़े किंतु यहाँ ब्राह्मणों की अभयदान की प्रार्थना पर सांगा ने कुछ नहीं किया। बीसलनगर की ओर सेना का कूच किया। यहाँ गुजरात सुल्तान के हाकिम खां को मारकर शहर को जमकर लूटा और कई मुसलमानो को कैद किया।

 
दिल्ली पर धाक महाराणा सांगा ने गद्दी पर बैठते ही दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान सिकन्दर लोदी के समय में उसके कई इलाकों पर अधिकार कर लिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र इब्राहीमलोदी जो कब से सांगा से दो-दो हाथ करना चाह रहा था, एक बड़ी सेना के साथ राजस्थान में हाड़ोती क्षेत्र की ओर बढ़ा। ज्यों ही सांगा को यह समाचार मिला, मुकाबले के लिए प्रस्थान कर गये और खातोली गाँव के पास दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ। फाब्स (रासमाला), हरविलास शारदा (राणा सांगा) के अनुसार एक पहर तक चले इस युद्ध में लोदी भाग खड़ा हुआ। एक शाहज़ादा गिरफ्तार हुआ जिसे दण्ड लेकर छोड़ दिया लेकिन सांगा का भी बायां हाथ कट गया और घुटने पर तीखा तीर लगने से सदा के लिए लंगड़े हो गये। दिल्ली को सांगा की शक्ति का अनुमान हो गया मगर इब्राहीम लोदी शांत नहीं बैठ सका और एक बार फिर वि.सं. 1518 में चित्तौड़ की ओर मियां माखन के नेतृत्व में बढ़ चला और वही हुआ जो पूर्व में हुआ। सांगा ने करारा उत्तर दिया। वे इस युद्ध में घायल अवश्य हुए लेकिन पुनः विजय प्राप्त की। धोलपुर के पास हुए इस संघर्ष का उल्लेख बाबर ने स्वयं 'तुजुके बाबरी' में किया और लिखा कि इस युद्ध में राणा की विजय हुई। राणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान को तो अपनी शक्ति एवं युद्ध कौशल से अवगत करा दिया मगर पड़ौसी गुजरात एवं मालवा से संघर्ष का अंत नहीं हो रहा था। कभी वह तो कभी वह, कोई न कोई बखेड़ा करते रहते, जिसके कारण सांगा को सदैव चौकस रहना पड़ता था। कभी उन्होंने मालवा के प्रबल राजपूत सरदार मेदिनीराय की मदद की तो कभी मांडू के सुलतान की सुरक्षा में हाथ बढ़ाया। ऐसे छोटे-बड़े संघर्ष चलते रहे। सन् 1519 ई में हुए संघर्ष में तो मांडू के घायल सुलतान महमूद को राणा ने जीवन दान भी दिया और तीन मास तक अपन पास रखा।

ओझा जी के अनुसार एक दिन सांगा ने उसके व्यवहार से प्रसन्न होकर गुलदस्ता भेंट करने की इच्छा व्यक्त की। इस पर मांडू सुलतान ने कहा कि किसी चीज के देने के दो तरीके होते हैं, एक तो अपना हाथ ऊँचा कर अपने से छोटे को देवें या अपना हाथ नीचा कर बड़े को नज़र करें। मैं तो आपका कैदी हूँ, इसलिए यहाँ नज़र का तो कोई सवाल ही नहीं, तो भी आपको ध्यान रहे कि भिखारी की तरह केवल इस गुलदस्ते के लिए हाथ पसारना मुझे शोभा नहीं देता। यह उत्तर सुनकर सांगा बहुत प्रसन्न हुए और गुलदस्ते के साथ मालवे का आधा राज्य भी देने की बात कहदी। महाराणा की इस उदारता से प्रसन्न होकर सुलतान ने गुलदस्ता ले लिया। दूसरे ही दिन महाराणा ने फौज खर्च लेकर सुल्तान को एक हजार राजपूत सैनिकों के साथ मांडू भेज दिया। सुलतान ने भी अधीनता के चिन्ह स्वरूप

 
महाराणा को रत्नजटित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भेट की। महाराणा सांगा के इस उदार बर्ताव की मुस्लिम लेखकों ने बड़ी प्रशंसा की है, परन्तु राजनैतिक परिणाम की दृष्टि से महाराणा की यह उदारता राजपूतों के लिए हानिकारक ही सिद्ध हुई। मांडू का यह सुलतान 1520 ई में गुजरात के सुलतान के साथ मिलकर पुन: युद्ध को तैयार हो गया जिसमें भी राणा सांगा का विजयी होने का उलेख है। जो भी सांगा ने भी हो, दुश्मन के साथ उसी राजपूती उदारता का परिचय दिया जैसा उनके पूर्व के राजपूती शासकों ने दिया और बदले में बुरे परिणाम देखने को मिले। गुजरात के शाहजादे बहादुर शाह को सांगा के समय में मेवाड़ में शरण मिली थी जबकि वह चित्तौड़ को नष्ट करने का भाव लेकर आया था। सांगा की माता तो उसे 'बेटे' शब्द से सम्बोधित करती थी।

 
राजनैतिक और कूटनीति के परिदृश्य में तो यह ठीक नहीं था लेकिन राजपूत संस्कृति में तो यह व्यवहार ही श्रेष्ठ माना जाता रहा है। सांगा ने वही किया, करते भी क्यों नहीं, राजपूत जो थे।

बाबर से संघर्ष

सांगा अब तक भारत में स्थापित मुस्लिम शासकों से ही जूझने में लगे थे कि पश्चिम से बाबर जो अपने राज्य फ़रग़ाना में सफल नहीं होने पर तैमूर के आक्रमणों से प्रभावित होकर भारत में सफलता की आश लिए पांच बार आया किंतु छुट पुट सफलताएं ही प्राप्त कर सका। उसे यह आभास अवश्य हो गया था कि दिल्ली में अफगान शक्ति क्षीण हो रही है और अन्यत्र भी मेवाड़ के राणा सांगा के अतिरिक्त कोई शक्ति नहीं है। अत: वह समकालीन पंजाब के गवर्नर दिलावर खां के न्यौते पर स्थायी रूप से भारत पर अधिकार करने की मंशा से 17 नवम्बर, 1525 ई को काबुल से चला और रास्ते में संघर्ष करता हुआ पानीपत के मैदान में आ डटा, जहाँ दिली सुलतान इब्राहीम लोदी से मुकाबला हुआ और वह सफल रहा। इब्राहीम लोदी मारा गया। इसके बाद उसने आगरा भी फतह कर लिया।

 
बाबर यह अच्छी तरह जानता था कि हिन्दुस्तान में उसका सबसे भयंकर शत्रु महाराणा सांगा है, इब्राहीम लोदी नहीं। महाराणा की बढ़ती शक्ति एवं प्रतिष्ठा को वह जानता था। उसे भली भांति ज्ञात था कि महाराणा से युद्ध करने के दो ही परिणाम हो सकते हैं, या तो वह भारत का सम्राट हो जाए, या उसकी सब आशाओं पर पानी फिर जाए और उसे वापस काबुल जाना पड़े।

ऐसा ही कुछ सांगा ने भी अनुमान लगा लिया था कि अब इब्राहीम लोदी से भी अधिक प्रबल शत्रु देश में आ गया है। अत: उन्होंने भी रणथंभोर, बयाना आदि सैनिक महत्व के ठिकानों और अपनी सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया था। उधर अफगान भी बाबर के विरुद्ध सांगा को समर्थन देने को तैयार हो गये थे। जब देखा कि बाबर आगरा जीतकर आगे बढ़ने को है तो सांगा भी उसी दिशा में आगे बढ़े और खंडार पर विजय प्राप्त कर बयाना की तरफ बढ़े और उसे भी अधिकार में ले लिया। बयाना का हाकिम मेहंदी ख्वाजा हारकर भागा और बाबर से आज मिला। सांगा वहां से चला और बसावर (भुसावर) आ पहुँचा। सांगा ने 22 फरवरी, 1527 को बाबर के एक मुख्य सेनापति अब्दुल अजीज जो खानवा पहुँचा उस पर आक्रमण कर दिया और यहाँ बड़ी वीरता दिखाई, शत्रुओं का झंडा छीन लिया तथा कोई बड़े-बड़े मुगत सिपहसालारों को धूल चटाई और दो मील तक पीछा करते हुए उन्हें शिकस्त दी। अब स्थिति यह थी कि पूरी मुगल सेना में घोर निराशा व्याप्त थी। स्वयं बाबर अपनी दिनचर्या में लिखता है किइस समय पहले की घटनाओं से क्या छोटे और क्या बड़े सभी सैनिक भयभीत और हतोत्साह हो रहे थे।'

 
ऐसे में बाबर ने दिन रात एक कर युद्ध संरचना की। सेना में जोश भरने के लिए शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और दाढ़ी न कटवाने की कसम खाई। जोशीले भाषण दिये और 13 मार्च, 1527 को कूच किया। उधर राणा की सेना में हसन खां मेवाती, इब्राहीम लोदी के पुत्र महमूद लोदी, मारवाड़ का राव गांगा, आंबेर (आमेर) का राजा पृथ्वीराज सहित राजपूताने के सारे राजा, रईस एकत्रित हो गये। बस, अब वह घड़ी (17 मार्च, 1927 सवेरे साढ़े नौ बजे) आ ही गई और युद्ध शुरू हो गया। राणा की सेना चार भागों में विभक्त थी-अग्रभाग (हरावल), पृष्ठ भाग, दक्षिण पाश्र्व और वाम पाश्र्व। स्वयं सांगा हाथी पर सवार थे। दोनों और से ऐसा घमासान मचा जिसकी कल्पना न मुगलों को थी और न राजपूतों को। अभी युद्ध अपने यौवन पर ही था कि एक तीर हाथी पर बैठे सांगा के सिर में लगा। वे मूछिंत हो गये और उन्हें तुरन्त युद्ध भूमि से मेवाड़ की ओर पालकी से ले गये। झाला अज्जा को तुरन्त युद्ध की कमान देने के निमित्त राणा के हाथी पर सवार किया और युद्ध जारी रखा, लेकिन वहाँ बात नहीं बनी और तोपों के गोलों के आगे वे नहीं ठहर सके व राजपूत सेना की हार हो गई। एक नये इतिहास की रचना हो गई। बाबर भी जिस सपने को सच नहीं मानता था, वह सच हो गया।

 
एक पलक झपकते ही विदेशी आक्राताओं की जड़ें जमने का अवसर मिल गया। राजपूती इतिहास में किसी एक युद्ध में जितनी विशाल एकता राणा सांगा के छत्र के नीचे प्रदर्शित हुई, वह न पूर्व में कभी देखी गई और न बाद में कभी दिखलाई दी एवं रणकौशल इस युद्ध में सभी राजपूत-शासकों ने जिस शक्ति, शौर्य, साहस एवं स्वाभिमान का परिचय दिया वह सदैव इतिहास में वन्दनीय रहेगा, अभिनन्दनीय कहलायेगा।

मूल्यांकन

पृथ्वीराज चौहान के बाद से हिन्दू धर्म पर आक्रांताओं द्वारा सतत आक्रमण होते रहे। असंख्य मंदिर धराशायी हो गये तो जबरन धर्मान्तरण करने में लगे थे ये आक्रांता। ऐसे समय सांगा द्वारा उठाया कदम साहसपूर्ण एवं स्तुत्य ही कहलायेगा। इतिहासकार हर बिलास शारदा ने बहुत सुन्दर शब्दों कहा है कि-'सांगा ने सोलहवीं सदी में एक ऐसा हिन्दू राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया जो प्राचीन भारत की परम्पराओं पर आधारित था। संग्रामसिंह अपने पैतृक राज्य को प्राचीन भारतीय शासकों को राज्यों की तरह निर्मित करना चाहते थे, जिसमें अपनी प्रजा की सुख-शान्ति समृद्धि व उन्नति ही राजा का और राज्य का एक मात्र उद्देश्य होता था।'

संक्षेप में सांगा एक कुशल एवं दूरदर्शी शासक एवं अद्वितीय योद्ध थे, जिन्होंने न केवल मेवाड़ व राजस्थान बल्कि विश्व इतिहास में अपना स्थान बनाकर भारत को गौरवान्वित किया।

(लेखक तेजसिंह तरुण राजस्थान के सूरमा” )


 

गुरुवार, जनवरी 26, 2017

राव शेखाजी

राजस्थान में शूर-वीरों की कभी कोई कमी नहीं रही। यही कारण था कि राजस्थान के इतिहास के जनक जेम्स कर्नल टॉड को यह कहना पड़ा कि इस प्रदेश का शायद ही कोई ग्राम हो जहाँ एक भी वीर नहीं हुआ हो। बात सही भी लगती है। इस अध्याय में जिस वीर शेखा का वृतांत ले रहे हैं वो किसी बड़े राज्य का स्वामी नहीं बल्कि उसका एक बहुत ही छोटे ठिकाने में जन्म हुआ था। आज भले ही वह क्षेत्र एक बड़े नाम 'शेखावटी' से जाना जाता है। जिसमें राजस्थान को दो जिले सीकर व झुंझनु आते हैं। यह शेखावटी इसी वीर शेखा के नाम पर है। 

 शेखा का सम्बन्ध यूं तो जयपुर राजघराने के कछवाह वंश से है लेकिन उनके पिता राव मोकल के पास मात्र 24 गाँवों की जागीर थी। राव मोकल के घर आंगन में शेखा का जन्म सम्वत् 1490 में हुआ था। इनके जन्म की भी अपनी एक रोचक कहानी है जो इस प्रकार है

राव मोकल बहुत ही धार्मिक वृति के पुरुष थे। मोकल के वृद्धावस्था तक कोई सन्तान नहीं हुई फिर भी संतोषी प्रवृति के होने के कारण किसी से कोई शिकायत नहीं थी। बस, साधु-संतों की सेवा-सुश्रा में लगे रहते थे। मोकल को एक दिन किसी महात्मा ने उन्हें वृंदावन जाने की सलाह दी और उसी के अनुसार महाराव मोकल वृंदावन गये। वहां उन्हें गऊ सेवा में एक विशिष्ट आनन्द की अनुभूति हुई। यहीं उन्हें किसी ने गोपीनाथजी की भक्ति करने के लिए कहा। मोकल अपनी वृद्धावस्था में गऊ सेवा और भगवान गोपीनाथजी की सेवा-आराधना में ऐसे लीन हुए कि उन्हें दिन कहाँ बीतता, पता ही नहीं लगता।

 
एक दिन महाराज मोकल गायों के एक झुंड के साथ अपनी जागीर अमरसर के बाहर पेड़ के नीचे बैठे थे, तभी फकीर शेख बुरहान चिश्ती से भेंट हुई। फकीर ने मोकल को एक प्रतापी पुत्र पैदा होने की दुआ दी तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ कि इस वृद्धावस्था में यह कैसे सम्भव है,  मगर फकीर की बात सही हो गई और निरबान रानी की कोख से बच्चे ने जन्म लिया। मोकल ने भी उस संत फकीर शेख बुरहान चिश्ती के प्रति आभार प्रकट करने हेतु उस प्रतापी पुत्र का नाम शेखा रखT|

 
फकीर के कहे अनुसार शेखा निश्चित ही प्रतापी पुरुष थे। इन्होंने अपने पिता की 24 गाँवों की छोटी सी जागीर को 360 गाँवों की एक महत्वपूर्ण जागीर का रूप दे दिया। सच तो यह है कि शेखा किसी जागीर के मालिक नहीं थे बल्कि वे एक स्वतंत्र रियासत के मुखिया हो गये थे।

 
दूरदृष्टा-राव शेखा ने अपने जीवन काल में करीब बावन युद्ध लड़े। इनमें कुछ तो अपने ही भाइयों आम्बेर के कछवाहों के साथ भी लड़े। शेखा की दिन दूनी-रात चौगूनी सफलता को नहीं पचा पाए, जिसके कारण उनके न चाहते हुए भी उन्हें संघर्ष को मजबूर होना पड़ा था। सौभाग्य से उन्हें हर युद्ध में सफलता प्राप्त हुई। एक बार आम्बेर नरेश ने नाराज होकर बरवाड़ा पर आक्रमण कर दिया तो राव शेखा ने इस क्षेत्र में रहने वाले पन्नी पठानों को अपनी तरफ करके उस आक्रमण को भी विफल कर दिया।

 
इस सफलता के पीछे राव शेखा की दूरदृष्टि थी। शेखा ने समझ लिया था कि क्षेत्र में पन्नी पठानों का बाहुल्य है और उनको बिना विश्वास में लिए शासन करना सम्भव नहीं है, तो उन्होंने पन्त्री पठानों के 12 कबीलों को 12 ग्राम जागीर में दिये ताकि हमेशा शान्ति बन रहे। इस निमित्त कुछ नियम बनाये ताकि हिन्दुमुस्लिम दोनों ही में कभी कोई विरोध पैदा न हो और सभी भाई-भाई बनकर रहें। राव शेखा ने अपने पीले झंडे के नीचे चौ-तरफा नीली पट्टी लगवाई क्योंकि पठानों का झंडा नीले रंग का था। इसी तरह से दोनों धर्मों में पवित्र माने जाने वाले पशुपक्षियों के वध एवं उनके मांस-भक्षण पर सहमति बनाली, जैसे पठान गाय-बेल का मांस नहीं खायेंगे और हिन्दु सुअर का मांस भोजन में नहीं लेंगे।

 
मर्यादा पुरुष-राजपूती संस्कृति के अनुरूप शेखा एक मर्यादाशील पुरुष थे तथा अन्य से भी मर्यादोचित व्यवहार की अपेक्षा रखते थे, फिर वे चाहे कोई भी हो। जीवन पर्यन्त उन्होंने मर्यादाओं की रक्षा की। इतिहास गवाह है कि एक स्त्री की मान मर्यादा के पालनार्थ उन्होंने अपने ही ससुराल झूथरी के गौड़ों से झगड़ा मोल लिया जिसके परिणामस्वरूप घाटवे का युद्ध हुआ और उसमें उन्हें अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़ी थी।

घटना कुछ इस प्रकार से थी। झूथरी ठिकाने का राव मोलराज गौड़ अहंकारी स्वभाव का था। उसने अपने गाँव के पास से जाने वाले रास्ते पर एक तालाब खुदवाना आरम्भ किया और यह नियम बनाया कि रास्ते से गुजरने वाले प्रत्येक राहगीर को एक तगारी मिट्टी खोदकर बाहर की ओर डालनी होगी।

एक कछवाह राजपूत अपनी पत्नी के साथ गुजर रहा था। पत्नी रथ में थी, वह स्वयं घोड़े पर था, साथ में एक आदमी और था। इन सबको भी मिट्टी डालने को विवश किया। कछवाह राजपूत व उसके साथ के आदमी ने तो मिट्टी डालदी परन्तु वहाँ के लोग स्त्री से भी मिट्टी डलवाने के लिए जबरदस्ती रथ से उतारने लगे तो पति ने समझाया-बुझाया पर जब नहीं माने और बदसूलकी पर उतर आये तो उसने गौड़ों के एक आदमी को तलवार से काट दिया। इस पर वहाँ एकत्रित गौड़ों ने भी स्त्री के पति को मौत के घाट उतार दिया। पत्नी ने अपने आदमी का अन्तिम संस्कार करने के बाद वहाँ से एक मुट्ठी मिट्टी अपनी साड़ी के पलू में बांधकर लाई और सारी घटना से शेखा को अवगत कराया। शेखा ने सारा वृतांत जानकर गौड़ों को तुरन्त दंड देने का मन बना लिया और झूथरी पर चढ़ाई करदी। जमकर संघर्ष हुआ और गौड़ सरदार का सिर काटकर ले आये और उस विधवा महिला के पास भिजवा दिया। बाद में शेखा ने वह सिर अपने अमरसर गढ़ के मुख्य द्वार भी टांगा ताकि कभी और कोई ऐसी हरकत नहीं करें।

 
न्याय तो हो गया लेकिन गौड़ों ने इसे अपना घोर अपमान समझा और पूरी शक्ति के साथ घाटवा के मैदान में शेखा को ललकारा। शेखा ने भी उनकी चुनौती को स्वीकारा। दोनों ओर से घमासान मचा। शेखा को 16 घाव लगे लेकिन वे निरन्तर लड़ते रहे। गौड उनके आगे नहीं ठहर सके किंतु इस युद्ध के बाद बैशाख शुक्ला 3 (आखा तीज) संवत् 1545 में वे अपनी राजपूती मान-मर्यादा की बेदी पर स्वर्ग सिधार गये।

 
संक्षेप में शेखा निडर एवं आत्म स्वाभिमानी था। शौर्य व साहस की प्रतिमूर्ति था, धर्म-कर्म और पुण्य के मार्ग का अनुयायी था। सम्भवत: शेखा के इन्हीं पुण्यात्मकता के कारण उनके नाम से प्रसिद्ध शेखावटी अचंल आज विश्वस्तर पर नाम को रोशन कर रहा। शेखा के बाद आठ पुत्रों की संतानें शेखावत कहलाई और इन्हीं में से एक खांप ने देश को उपराष्ट्रपति (भैरोसिंह शेखावत) दिया तो एक खांप की पुत्रवधु आज देश की राष्ट्रपति है। ऐसे ही विश्व का सबसे धनी व्यक्ति भी इसी शेखावटी क्षेत्र की देन है। अत: स्वयं शेखा अपने समय में राजपूताने के एक ख्यातिनाम वीर पुरुष थे और आज भी उनका नाम सर्वत्र सम्मानीय है। इतिहासकार सर यदूनाथ सरकार ने भी लिखा है की जयपुर राजवंश में शेखावत सबसे बहादुर शाखा है।

 

(पुस्तक - "राजस्थान के सूरमा" )

 

राव कांधल

दुनिया में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरों के लिए जन्म लेते हैं और पूरी जिन्दगी ही दूसरों के लिए जीते हैं। इनमें कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो दूसरों के लिए बलिदान भी हो जाते हैं। राजस्थान में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है। यही कारण है कि यहाँ की माटी को लोग चंदन मानकर आदर भाव से माथे पर लगाते हैं। मेरे मत में इतिहास में अब तक राजस्थान के जितने भी बलिदानियों के नाम प्रकाश में आये हैं, वह बहुत कम है, चूंकि तलवारों की झंकारों पर खेलने वालों को कहाँ समय था कि वे अपना इतिहास लिखवाते। टॉड ने लिखा है कि शौर्य एवं बलिदान की पूजा-स्थली के रूप में सम्पूर्ण यूरोप में मात्र एक थर्मापोली है, जबकि राजस्थान में तो पग-पग पर कई थर्मापोलियां हैं।

 
टॉड का कथन सही है। यहाँ के सूरमाओं ने हर युग में और हर जगह अपने बलिदान से इतिहास रचा है। क्या राजा और क्या सामान्य व्यक्ति, सभी यहाँ की शौर्य-गाथाओं के पात्र रहे हैं। अब बात करते हैं वीर-धीर एवं पराक्रम के पर्याय रावत कांधलजी की तो स्पष्ट है कि वे राजस्थान के किसी बड़े राज्य अथवा बड़े भूभाग के मालिक नहीं थे लेकिन उनके साहस, शौर्य एवं स्वाभिमान की बात करें तो लगता है कि उन जैसा और नहीं। कांधल अपने पिता रणमल की तरह बचपन से ही सुन्दर और सुदृढ़ शरीर के तेजस्वी बालक थे। शिक्षा-दीक्षा

 
राव रणमल ने बचपन से ही बीका ,जोधा व अन्य पुत्रों के साथ ही कांधल का पालन-पोषण किया था। इनकी कुछ विशिष्टताओं के कारण पिता की इनसे कुछ विशेष ही अपेक्षाएं थी। इसी कारण उनको विधिवत शिक्षण, घुड़सवारी, आखेट, अस्त्र-शस्त्र-संचालन, तलवार, कटार, भाला आदि अन्यान्य शस्त्रों को उपयोग में लेना, रणभूमि में लड़ना, सैन्य संचालन करना, मान-मर्यादाओं और परम्पराओं पर चलने की शिक्षा सुचारू रूप से दी गई। संयोग से कांधल की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा मारवाड़ व मेवाड़ दोनों ही प्रदेश के शूर-वीर बालकों के साथ हुई। इससे पहाड़ों व मरुभूमि दोनों ही जगहों का उन्हें अनुभव हो गया, जिसका लाभ उन्हें आगे बहुत मिला और वे आगे चलकर एक महान् वीर एवं कुशल योद्धा के रूप में उभरे। उनके इसी तेजस्वीता का परिणाम था कि रणमल ने अपने अस्तबल का सबसे अच्छा 'जेठो घोड़ा' कांधल को ही दिया था। स्मरण रहे कि तेज घोड़ा अच्छे योद्धा को ही दिया जाता था, यह एक महान् सम्मान समझा जाता था, जो कांधल को अपने पिता से मिला। कांधल का रण-कौशल एवं विजयी अभियान

 
इससे पूर्व की कांधल युवावस्था में प्रवेश करें, उसे तलवारों से खेलना पड़ गया, चूंकि जब मेवाड़ के महाराणा मोकल की जो रिश्ते में फूफा लगते थे, हत्या हुई। पिता रणमल एवं स्वयं उसे हत्यारों से निपटने में अपने कौशल का परिचय देना पड़ा। यही नहीं कमजोर होते मेवाड़ की सुरक्षा के लिए मांडू एवं गुजरात के सुल्तानों के साथ दो-दो हाथ करना पड़ा। इन युद्धों में सैन्य-संचालन और व्यूह रचना में उसने पूर्ण दक्षता प्राप्त करली और पिता व भाई जोधा की आशा के केन्द्र बन गये।

 
मेवाड़-मारवाड़ में द्वेष उत्पन्न हो जाने के बाद जब मेवाड़ के कतिपय सरदारों के कान भरने से पिता रणमल की हत्या हो गई तो राठौड़ों को तत्काल मेवाड़ छोड़ना पड़ा। बात यहाँ ही समाप्त नहीं हुई बल्कि मेवाड़ की सेना जोधा व कांघल आदि सभी भाईयों के पीछे हाथ धोकर पड़ गई। एक भाई मंडला उनके हाथ लग गया। जब कांधल को इस बात का पता लगा तो फिर क्या था, विपरीत परिस्थितयों में भी कुछेक वीरों के साथ चित्तौड़ जाकर राणा के अदम्य साहसी वीरों के रहते अपनी तलवार के बल पर भाई मंडला को कैद से छुड़ा लाए। निश्चित ही यह कांधल के अद्वितीय योद्धा होने तथा अतुल्य साहस एवं शौर्य का अनुपम उदाहरण है। इस विकट घड़ी में कांधल को राणा की सेना से अनेकानेक जगह संघर्ष करनापडा।

 
ऐसे ही कांधल ने अपने पिता के खोये हुए राज को प्राप्त करने के निमित्त भी चौकड़ी, मंडोर, मेड़ता, अजमेर, भैरूंदा आदि स्थानों पर युद्ध किये। चौकड़ी के  युद्ध में जब जोधा महाराणा के सुभट योद्धाओं से घिर गये थे तो कांधल ने अपने युद्ध कौशल का श्रेष्ठ परिचय देते हुए जोधा को मात्र मुक्त ही नहीं करवाया बल्कि दुश्मनों को मौत के घाट भी-उतार दिया था। यह इतिहास में पुन: भ्रातृ-स्नेह का एक उज्ज्वलतम उदाहरण है।

 
ऐसा लगता है कि पिता की मृत्यु के पश्चात कांधल के भाग्य में विश्राम लिखा ही नहीं था। बड़ी मुश्किल से मंडोर पर विजय प्राप्त की थी किंतु अभी वहाँ जमे भी नहीं कि नरबद और गुजरात के यवन शासक ने उस पर अधिकार कर लिया। कांधल भला यह कैसे सहन करता, उसने फिर मारवाड़ के छोटे-बड़े राजपूत सरदारों को एकत्रित किया और मंडोर को अधिकार में ले लिया।

 
यह एक सत्य है कि बीकानेर राज्य का नवोदय तो कांधल की तलवार की देन ही था। बीका को प्रारम्भ से ही उनके पराक्रम व सूझबूझ पर पूरा भरोसा था। यही कारण है कि अपने प्रत्येक महत्वपूर्ण निर्णय में कांधल को आगे रखा। दिली के सुल्तान बहलोल लोदी के सेनापति सारंग खां को जिस कुशलता के साथ कांधल ने धूल चटाई वह अविस्मरणीय है राव बीका की हर सफलता में चाहे वह जाटों के दमन में हो अथवा भाटियों की चुनौतियों का जवाब देने में हो, कांधल के शौर्य और बहुबल का ही कमाल था। कांधल ने राव जोधा व राव बीका दोनों की यशो-कीर्ति बढ़ाने में भरपूर सहयोग दिया। राजस्थान के पश्चिम में जैसलमेर, जालौर और पूर्व में हरियाणा के हांसी, हिसार, धमौरा, भट्टू और फतियाबाद, दक्षिण में मेवाड़ की सीमा पर गोड़वाड़ और उत्तर में भटनेर तक अनेक युद्ध क्षेत्रों में कांधल ने खून और पसीना बहाया था। निरन्तर 62 वर्ष तक शक्ति एवं शौर्य के प्रतीक के रूप में मृत्यु का व्रत धारण कर शेरों की तरह कांधल लड़ा और एक वीर राजपूत की तरह ही युद्ध भूमि में वीर गति को प्राप्त हुआ। अद्भुत व्यक्तित्व' के धनी  

 
राजस्थान के रण-बांकुरों की पंक्ति में तो कांधल प्रथम पंक्ति के हकदार है ही, किंतु जब कभी श्रेष्ठ मानवीय गुणों से परिपूर्ण महान् व्यक्तियों का स्मरण किया जायेगा, तब मध्यकालीन इतिहास में उनका स्मरण किये बिना नहीं रहा जायेगा। कांधल ने एक ऐसे काल में जन्म लिया था जब भाई-भाई राज के लिए खून का प्यासा बना हुआ था तो पुत्र पिता का खून कर राजसिंहासन लेने में तनिक भी संकोच नहीं कर रहा था। ऐसे में कांधल तो सचमुच ही एक अलग से महामानव थे, जो अपने भाई को अपनी तलवार के बल पर एक राज्य उपहार में देने के लिए उत्सुक दिखलाई दिये और दिया भी सही। ऐसे ही अपने पिता के खोये राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए कांधल ने कितनी-कितनी लड़ाइयां लड़ी और क्या-क्या नहीं किया ? इतिहास गवाह है कि 73 वर्ष की आयु में भी वह निरन्तर संघर्ष रत रहा। तलवार से खेलना और युद्ध भूमि में जूझना शायद उनकी नियति थी।

 
कांधल के व्यक्तित्व की एक यह भी खूबी थी कि वे जहाँ भी रहे, जिसके साथ भी रहे, उसका मान बढ़ाया। अपने निकट सम्बन्धी स्वाभिमानी सिसोदिया (मेवाड़) के स्वभिमान को ऊँचा रखने में कांधल का महान् योगदान रहा। महाराणा मोकल, लाखा और कुंभा के प्रताप को कांधल ने अपने पराक्रम एवं कौशल से निरन्तर बढ़ाया। यह बात तो कांधल के यौवनावस्था की है। बाद में अपने भाइयों की यशो-गाथा को अपने रक्त एवं पसीने से सींचकर आज के जोधपुर और बीकानेर राज्यों की कीर्ति-पताका फहराई। लोक देवता के रूप में  कांधल के व्यक्तित्व की एक विशेषता यह भी थी कि उन्होंने प्रजा के सुख-चैन का सदैव ध्यान रखा। जब भी उनके पास आतंकियों और लुटेरों का समाचार आया वे तत्काल उनके विरुद्ध संघर्ष को तैयार हो गये। ये लुटेरे या आतंकी चाहे मुसलमान थे या हिन्दु, इन्होंने कभी जातिगत भेद किये बिना उनके विरुद्ध उठ खड़े हुए। यही तो कारण है कि मारवाड़ की जनता आज भी उनके बलिदान दिवस (पौष पंचमी) पर उनको देवता के रूप में पूजकर भगवान अंशुमाली के अस्त होते ही साहिबा के पवित्र सरोवर पर उनकी रानी देवड़ीजी के थड़े से दीपमाला बनाकर अंधियारे में उजाला भरती है और उनके नाम की जय-जयकार से आकाश को गुंजा देती है। प्रजा द्वारा यही उनका महान् सम्मान है। ऐसा क्यों हुआ? तो स्पष्ट है कि प्रजा के मन में उनके साहस एवं वीरता के अनुपम उदाहरण जो उन्होंने प्रस्तुत किये मरणोपरांत आज पांच सौ वर्ष बाद भी जीवन्त है और सम्भवत: आगे भी सदैव जीवन्त ही रहेंगे। त्याग एवं भ्रातृ-प्रेम के प्रतीक


अगर आज मारवाड़ कांधल की पूजा करे या जय-जयकार करे तो यह सब कुछ यूं ही नहीं हुआ। इसके पीछे कांधल का अतुल्य त्याग एवं बलिदान है। पिता की आज्ञानुसार अपनी तलवार से भाई बीका के लिए द्रोणपुर व अन्य कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर सारे क्षेत्र बीका को देकर उसे स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया। अपने बाहुबल से अर्जित राज्य को अपने और अपने बाल-बच्चों के लिए न रखकर बीका को सौंप दिया और जन्म भर उसको राजा मानते रहना, सो भी एक हंसी में की गई प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए, कांधल से त्यागवीर के द्वारा ही सम्भव था। 
सुविख्य इतिहासवेता ठा. भगवतीप्रसाद सिंह बिसेन ने एक अत्यन्त ही मार्मिक घटना का वर्णन करते हुए लिखा है कि-'बीकानेर का नया राज विजय कर बीका को राजा घोषित करने के उपरांत जब रावत कांधल मंडोर पहुँचे तब राव जोधा, चांपा, बरजांग और दूदा आदि तमाम भाई और भतीजे, गिनायत (सम्बन्धी), उमराव, दरबारी और जोधपुर की समस्त प्रजा ने दीपमालिकाएं सजाकर कांधल का स्वागत किया चूंकि भगवान रामचन्द्र के समान ही पिताज्ञा को पूर्ण कर वे 23 वर्ष बाद जोधपुर आये थे। अब उन्हें अपने लिए नये राज्य को विजयी करने के लिए निकलना था, इसलिए अपने भाई-बंधुओं से मिलने के लिये आये थे। बीका ने कांधल से अधिक उम्र होने के कारण मना भी किया किंतु वे नहीं माने और अपने युद्ध कौशल से बेनीवाल एवं सारण जाटों के क्षेत्र को विजय किया और साहबा को मुख्यालय बनाया और पुन: एक राज्य की नींव डाली। बाद में कांधल ने सेरडा, बुडाक, हिसार, फातियाबाद, हांसी और गडाणा तक के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। 
मृत्य  भी तलवार के साथ  वीर कांधल अपने विजय अभियान के  दौरान ही जब वह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी के क्षेत्र तक पहुँचा तो लोदी ने उसे तुरंत रोकना उचित समझकर एक विशाल सेना के साथ सारंग खां को भेजा। सारंग खां ने युद्ध की प्रतीक्षा भी नहीं की और कांधल पर जब वह करीब तीस सवारों के साथ घूमने निकला हुआ था, आक्रमण कर दिया। घोड़े का तंग टूट जाने के बावजूद पैदल ही कांधल ने सारंगखां व उसकी सेना से डटकर मुकाबला किया और 22 शत्रुओं को मारकर पौस कृष्ण पंचमी वि.सं. 1546 (रविवार, दिसम्बर 13, 1489) के दिन वीरगति को प्राप्त हुआ। 
आज कांधल हमारे बीच नहीं है लेकिन इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ आज भी हमारे सम्मुख उसके शौर्य एवं बलिदान की अमर गाथाओं का बखान कर रहे हैं और सदियों तक करते रहेंगे।

(लेखक - तेज़ तरुण "राजस्थान के
सूरमा")




 

मंगलवार, जनवरी 24, 2017

राव बीकाजी

जब भी मरुधरा का नाम स्मृति-पटल पर आता है तो सहज ही एक नाम उभर कर आता है और वह है बीकानेर और उसके संस्थापक राव बीकाजी का। बीकाजी जोधपुर के शासक जोधा के ज्येष्ठ पुत्र थे। बीकाजी का जन्म विक्रम संवतू 1495 सावण सुदी 15 तदनुसार दिनांक 5 अगस्त, 1438 ईस्वी को हुआ था। राव जोधा के छ: रानियों से 17 पुत्र थे। बीकाजी उनमें सबसे बड़े पाटवी युवराज थे किंतु जोधाजी अपनी हाड़ी रानी जसमादे के पुत्र सातल को जोधपुर की राजगद्दी पर बिठाना चाहते थे। एक बार बात ही बात में जोधा ने बीका को कह भी दिया कि बाप का राज बेटा भोगे इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, परन्तु जो बेटा नया राज्य स्थापित करे, वही बेटों में प्रमुख होता है।

 
बस, अब क्या था। बीकाजी को पिता की बात समझ में आ गई और मन में एक नये राज्य की स्थापना का विचार जोर पकड़ने लगा। इससे पहले कि बीका जोधपुर राज्य का त्याग करे, बात उनके भाइयों व मामा नापा सांखला आदि तक भी पहुँच गई। नापा सांखला मरुप्रदेश के इतिहास में एक प्रसिद्धि प्राप्त विचक्षण बुद्धिमान पुरुष माना गया है और जोधा के संकटकाल में कई बार सहायक सिद्ध हुआ। यही कारण था कि जोधा भी नापा को साले की तुलना में एक विश्वस्त मित्र के रूप में अधिक मानते थे। अत: उसने अवसर देखकर अपने बहनोई से बीका की जगह सातल को राजगद्दी देने के सन्दर्भ की बात कर ही ली। नापा ने जोधा से अनुरोध किया कि यदि आप सातल को युवराज-पद देना चाहते हैं तो प्रसन्नता पूर्वक देवें, किंतु बीकाजी को सैनिक सहायता सहित सारूंडे का पट्टा दे दीजिये, उनके भाग्य में होगा तो वह अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेंगे।

 
राव जोधा ने नापा की इस सलाह को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर ली और पचास सवार मय सारुंडे के पट्टे के उसी समय आदेश दे दिया। बस, अब क्या था? बीका द्वारा जोधपुर छोड़ने की बात सर्वत्र फैल गई। बीका अपने काका कांधलजी, रूपाजी, मांडलजी, नंदाजी(जोधाजी के सगे भाई) और नापा सांखला, वेला पड़िहार, वैद्य लाला लखनसी, चौथमल कोठारी, बरसिंह बच्छावत, विक्रमसी पुरोहित और सालूजी राठी आदी प्रमुख सरदारों व उनके सौ सवार व दो सौ पैदल सैनिकों के साथ आसोज सुदी 10, संवत 1522 (सन् 1465 ई.) में जोधपुर से कूच किया। मंडोर होते हुए देशनोक करणी माता की सेवा में उपस्थित हुए और यहां से बीकाजी अपना लक्ष्य साधने में लगे रहे। करणीमाता के बीकाजी पास ही में स्थित चांडासर में रहने लगे। कुछ ही समय में अपनी शक्ति में वृद्धि करते हुए कोडमदेसर और जांगलू क्षेत्र में अपना पूर्ण वर्चस्व जमा लिया और वि.सं. 1529 में 'राजा' पद से विभूषित हो गये। इस समय तक सांखलों के 84 गाँव बीकाजी के अधीन हो गये थे।

 
बीकाजी एक नये राज्य की स्थापना में तो सफल हो गये लेकिन जांगलू क्षेत्र के आसपास के भाटी सरदार और जाट शक्ति की चुनौतियां खड़ी थी। ऐसे ही कुछ दूरी पर भट्टी मुसलमानों का कब्जा था। सुजानगढ़ के आग्रेय सीमा पर मोहिल राजपूतों का अधिकार था। इन सबसे निपटना आसान नहीं था। सौभाग्य से इसी समय पास के ही पूंगल के भाटी राव शेखोजी को सुलतान की फौज ने गिरफ्तार कर लिया। जब इस घटना का बीकाजी के मामा नापा सांखला को पता लगा तो वह पूंगल गया और सहयोग का हाथ बढ़ाया। शेखोजी की बेटी रंगकंवर का हाथ बीकाजी के लिए मांगा और विवाह पका करालिया। ऐसा भी कहते हैं कि राव शेखा जब सुल्तान की कैद में थे, उसकी ठकुरानी करणी माँ के पास प्रार्थना लेकर गई। माँ करणी ने उसकी पुत्री रंगकंवर का हाथ बीका के लिए मागा। ठकुरानी के मान लेने पर लम्र का दिन भी निश्चित कर दिया। ऐसा माना जाता है कि लम्र के दिन स्वयं करणी माँ मुल्तान गई और शेखा को कैद से छुड़ाकर पूंगल लाई। शेखा को सारी बात बताई और कन्यादान कराया। तवारीख बीकानेर ने भी इस घटना की पुष्टि की है। पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित होने के कारण बीकाजी को अब इस क्षेत्र में एक सहयोगी और मिल गया।

 
बीकाजी  अब कहाँ शांत   बैठने   वाले थे।   उन्होंने   कोडमदेसर में किला बनाना  शुरू किया लेकिन आसपास के भाटी सरदारों ने जमकर विरोध किया। भाटी कलिकर्ण एक बड़ी सेना के साथ बीकाजी पर चढ़ आया। बीकाजी को भी अन्देशा तो था ही। दोनों में धमासान हुआ। अन्ततः विजयश्री बीकाजी को मिली लेकिन भेरुजी के पवित्र स्थान पर रक्तपात और भाटियों
से सदा का वैर मोल लेना ठीक नहीं लगा और उन्होंने कोडमदेसर में किले के निर्माण का विचार त्याग दिया।


 

बीकाजी के उत्त विचार ने इस क्षेत्र में उन्हें स्थायित्व दिया और शीघ्र ही करणीमाता के निर्देशानुसार और उन्हीं के कर कमलों से वर्तमान बीकानेर के किले की नींव 1542 ई. में रखी गई जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1545, बैसाख सुदी 2, शनिवार (सन् 1488 ई.) को कराई गई। इस किले को आज जूनागढ़ के नाम से जानते है। जो बीकानेर का मूल स्थान है। चूरू निवासी खेमराजश्री कृष्णदास द्वारा बम्बई में स्थापित श्री वेंकटेश्वर प्रेस से प्रकाशित 'बीकानेर राज्य का इतिहास' में पृष्ठ 21 पर किले में 'भाडासर नाम से प्रसिद्ध मन्दिर होने का उल्लेख किया है जो संवत् 1525 ई. का बना हुआ है। इससे यह प्रतीत होता है कि किले की पहाड़ी पर अथवा इसके नीचे आज जहाँ बस्ती है, पूर्व में भी एक अच्छी खासी बस्ती रही होगी, जिसका बीकाजी ने किले का निर्माण करवाकर अपने नाम से नामकरण किया।

 
कुछ भी हो बीकाजी ने करणीजी की कृपा से अपना लक्ष्य साध ही लिया। इस सफलता में काका कांधल व बीदा के सहयोग को नहीं भूला जा सकता है। जोधपुर से साथ आये अन्य सरदारों ने भी बीकाजी के साहस एवं धैर्य को बनाये रखने में पूरा-पूरा योगदान किया जो राजपूत इतिहास में अप्रतिम उदाहरण है, तभी तो जांगलू क्षेत्र में बरसों तक ये पंक्तियां गूंजती रही कि कांधल बांके वीर रो, सीधो सरल सुभाव। भूपति कियो भतीज नै, आप रहयो उमराव। बीकाजी नये राज्य के राजा तो बन गये किंतु उनके सम्मुख अभी भी कई कठिनाइयां यथावत थी। उत्तर-पूर्व में कृषि प्रधान भूभाग पर जाटों का तो अन्यत्र कई छोटे-बड़े भूभाग राजपूत व मुसलमानों के आधीन थे और आये दिन मुसीबतें खड़ी कर रहे थे। इन्हें अपने अधिकार में करना आवश्यक हो गया था।

 
बीका ने सर्वप्रथम जाटों से निपटने की सोची। यह जाट बाहुल्य क्षेत्र कुल छ: जातियों के प्रभाव में था। इनमें प्राय: खींचतान चलती रहती थी और परस्पर लड़ते रहते थे। बीका के भाग्य से एक ऐसी ही घटना घटित हो गई और उन्हें जाटों के बीच हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया। हुआ यह कि गोदारों का प्रमुख पांडू सारन जाट जाति के मुखिया पलू (पूला) की स्त्री को ले भागा। इस पर सिवाना के निकटस्थ नरसिंह जाटू की मदद से पांडू पर चढ़ आया। यह देखकर घबराया हुआ पांडू बीकाजी की शरण में आया और निवेदन किया कि यदि आप मुझे इस आपत्ति से उबार लें तो मैं निज बंधुबांधव व मित्रों सहित आपकी प्रजा बन जाऊँगा। बीकाजी को और क्या चाहिए था। बीकाजी ने अपने काका कांधल को सेना के साथ पांडू के संग कर दिया और तुरत-फुरत में रात्रि को ही नरसिंह जाटू को जा मारा। नरसिंह के अंत के साथ ही समस्त जाटों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे सब के सब एक-एक करके बीकाजी की शरण में आ गये और राजसी नजरें देकर राठौड़ वंश की प्रजा बन गये।

 
जाटों को अपने अधीन कर लेने से बीकाजी जांगलू प्रदेश की एक प्रभावी शक्ति बन गये लेकिन अभी भी कुछ भाग ऐसा था जिस पर राजपूतों और मुसलमानों का अधिकार था और आये दिन उनकी प्रभुसत्ता को चुनौती देते रहते थे। जाटों की शक्ति के जुड़ जाने के बाद बीकाजी ने इन्हें अपने अधीन करने का मानस बनाया। सर्वप्रथम सीहाणे पर आक्रमण किया जहाँ का स्वामी (जोहिया राजपूत) उनके पैरों में आ पड़ा और इसके बाद देवल खीची के 140 गाँवों को अपने राज्य में मिला लिया। एक के बाद एक सारा जांगलू प्रदेश अब बीकाजी के कब्जे में था। ऐसे ही हिसार के पठानों से भी कई गाँव मुक्त करवाये और अपनी सीमा को पंजाब की सीमा तक पहुँचादी।

 
ज्ञातव्य है कि बीकाजी का विजयी-रथ निरन्तर जारी रहा, एक के बाद एक विजय प्राप्त करते रहे। जब वे उत्तर में कांधलजी के सहयोग से हिसार की सीमा तक पहुँचे तो वहाँ उनका सूबेदार सारंगखां से मुकाबला होना ही था। इस समय मोहिल सरदारों का सहयोग भी उसे था। उधर दिल्ली से बादशाह दौलतखां लोदी को भी बीकाजी के बढ़ते कदमों को रोकने के लिए तैयार कर लिया था लेकिन कुशल रणनीति के कारण बीकाजी व कांधलजी के आगे टिक नहीं सके। मोहिलों के नेता नरबद व बरसल युद्ध में मारे गये और सूबेदार सारंगखां को युद्ध भूमि से भागना पड़ा।

 
युद्ध के पश्चात् बीकाजी तो द्रोणपुर में ठहर गये किंतु कांधलजी ने अपना विजयी अभियान जारी रखा। एक दिन जब वे मोजा साहेब के तालाब पर डेरा डाले हुए थे, एक दिन सूबेदार की मुसलमान सेना ने अचानक उन पर धावा बोल दिया। दोनों और से संघर्ष हुआ किंतु इस लड़ाई में कांधलजी की मृत्यु हो गई और उनकी सेना को मैदान छोड़ना पड़ा। जब कांधलजी की मृत्यु का समाचार बीकाजी को मिला तो वे अपने काका के बलिदान को सहन नहीं कर सके और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि-'जब तक सारंगखां को न मार लूगा तब तक अन्न ग्रहण नहीं करूंगा।'

 
कांधलजी के बलिदान ने जोधपुर शासक जोधाजी सहित सभी राठौड़ों में एकता का नया संचार कर दिया। जोधपुर की बड़ी सेना बीकाजी से आ मिली और तेजी से सारंगखां की ओर कूच कर दिया। मोजा कानासर के मैदान में दोनों के बीच सामना हुआ। सारंगखा पहली ही मुठभेड़ में मारा गया और बीकाजी ने विजय पताका फहरादी।

 
युद्ध के उपरांत राव जोधाजी द्रोणपुर में रुके और बीकाजी को अपने पास बुलाकर उनके बाहुबल और राजनीति की प्रशंसा करते हुए कहा कि तुमने मेरे नाम को खूब उज्वल किया, मैं तुम्हारें कर्तव्य से परम संतुष्ट हूँ। अब मैं दो बाते तुमसे कहता हूँ, उन्हें मेरी आज्ञा मानकर शिरोधार्य करो। एक तो यह कि लाडनू परगना मुझे दो और दूसरी बात यह कि तुम कभी अपने भाई के राज्य पर आक्रमण करने की चेष्टा मत करना। राव बीकाजी ने पिता के दोनों वचन सादर अंगीकृत कर लिए, किंतु उन्होंने कहा कि यदि आप मुझसे संतुष्ट हैं तो एक वर मैं भी चाहता हूँ, वह यह कि राठौड़ वंश के वंश परम्परा के पैतृक राजचिह्न मुझे प्रदान किये जायें, क्योंकि न्याय पूर्वक मैं ही उनके संरक्षण का अधिकारी हूँ। जोधाजी ने बीकाजी की इस बात को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करली।

 
किंतु राव जोधा की मृत्यु के पश्चात् जोधपुर सिंहासन पर बैठे सूजाजी ने जब राजचिह्न देने से मना कर दिया तो संघर्ष हुआ। सूजाजी बीकाजी के आगे नहीं ठहर सके और स्वयं सूजाजी की माता ने राजचिह्न बीकाजी को देकर संघर्ष को रोका। माताश्री ने दोनों भाइयों में पुन: स्नेह-धारा के प्रवाह को तेज किया जिसके परिणाम स्वरूप जोधपुर-बीकानेर दोनों राज्यों में राठौड़ों की पताका अनवरत लहराती रही।

 
अंततः बीकाजी संवत 1561 (1504 ई.) आसोज सुदी 3 के दिन राजस्थान को एक नया राज्य 'बीकानेर उपहार में प्रदान कर इस संसार से पदार्पण कर गये। आज उनके अनवरत संघर्ष करते रहने की प्रेरणा देते हुए महान् व्यक्तित्व की स्मृति शेष है।

 (लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )
 

राव जोधा

शक्ति, शौर्य, साहस और स्वतंत्रता का दूसरा नाम ही राजस्थान है, और फिर राव जोधा तो इन गुणों का पर्याय ही था। प्रारम्भ से अंत तक उसके हर कदम पर संघर्ष देखने को मिलता है। यह भी एक सत्य है कि जोधा ने संघर्ष की हर चुनौती का साहस के साथ सामना किया, अपने भीतर के जुझारूपन को दर्शाया। उसके इन्हीं गुणों के कारण वह मरुभूमि पर एक सशक्त राज्य की नींव डालने में सफल रहा। कहने को उससे पूर्व भी उसके पूर्वज राजा थे लेकिन वह मजबूती नहीं थी जो जोधा ने स्थापित  की। यह  जोधा की  कुशलता  ही थी कि न  केवल अपने    बिखरे हुए व पल-पल लड़खड़ाते राज्य को संगठित किया बल्कि अपने बड़े पुत्र बीका को भी एक नये राज्य की स्थापना के लिए प्रेरित किया। अगर यह कहा जाए तो कोई अतिथ्योति नहीं होगी कि जोधपुर और बीकानेर राज्य का वास्तविक जनक राव जोधा ही था। उसने न केवल छोटे-बड़े सामंतों को ही एक सूत्र में बांधा बल्कि उन्हें अपने अद्भुत राज-कौशल से  मजबूत भी  किया और कुशल संचालन के लिए प्रेरित किया।

 
ऐसे संघर्षवान किंतु प्रतापी  राव जोधा  का जन्म  वि.सं. 1472, अप्रैल-1, 1416 ई. में हुआ।  जोधा  बाल्यावस्था  से ही पिता रणमल के साथ रहने के कारण युद्ध एवं कूटनीति में तरूणावस्था तक बहुत कुछ अनुभव ले चुका था। उसे पिता का मेवाड़ में रहना अच्छा नहीं लगता था लेकिन पिता से विशेष स्नेह को देखते हुए कुछ कहना ठीक  नहीं समझा। मेवाड़ के सरदार महाराणा कुंभा   के   निरंतर  कान भर रहे थेयहाँ तक कहने लग   गये थे कि किसी भी दिन  रणमल मेवाड़ पर अधिकार कर लेगा, अत: उसको मेवाड़ से दूर करना आवश्यक है।

 
आखिर में हुआ भी यही कि रणमल को  धोखे से  मरवा  दिया  गया। यह  बात  1438 ई. की है। जोधा भी उस समय चित्तौड़गढ़ की तलहटी में स्थित अपने निवास में ही था कि एक डोम ने दुर्ग की दीवार पर चढ़कर जोर से चिलाते हुए कहा कि ;

   चूंडा अजमल आविया, मॉडू हूँ धक आग।
                                                   जोधा रणमल मारिया, भाग सके तो भाग।

ज्यों ही जोधा ने सुना तुरंत अपने सात सौ समर्थक साथियों के साथ  चित्तौड़ से  प्रस्थान कर गया किंतु चूडा ने भी ससैन्य उसका पीछा किया। अनेक जगह आमना-सामना हुआ। कपासन के  पास तो भयंक र संघर्ष हुआ। जोधा के  कई सैनिक हताहत हुए। मारवाड़ की सीमा में प्रवेश करते समय जोधा के पास केवल सात साथी थे। उधर पीछा करते हुए चूंडा ने मंडोवर पर अपना अधिकार कर लिया और अपने पुत्रों को वहाँ का दायित्व सौंपकर स्वयं चित्तौड़ आ गया।

 
मंडोवर पर अधिकार हो जाने के कारण जोधा इधर-उधर भटकते हुए काहूनी गाँव जाकर अपना वास बनाया। यहाँ रहते हुए राव जोधा ने अपने साथी सैनिकों की संख्या बढानी शुरू की और मंडोवर पर कई आक्रमण  किये किंतु सफल नहीं हुआ। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार उन्हीं दिनों एक   दिन मंडोवर से भागता हुआ  भूख-प्यास से व्यथित जोधा रास्ते के एक जाट के घर ठहरा। जाट की पत्नी ने घर आये अतिथि से भोजन की मनुहार की तो जोधा ने कहा जो तैयार हो ले आओ, बहुत भूख लगी है। घर में बाजरे की गर्म घाट तैयार थी। थाली भरकर जोधा के सम्मुख लाकर जैसे ही रखी, उसने खाने के लिए थाली के बीच में अंगुलियां डाली तो गर्म होने के कारण अंगुलियों के पौर जल गये। इस पर सामने बैठी जाटनी से नहीं रहा गया और बोल पड़ी-'मुझे तो तू जोधा के जैसा ही निर्बुद्धि दिखाई देता है।

 
इस पर जब जोधा ने पूछा-'बाई जोधा निर्बुद्धि कैसे है?' तब जाटनी ने कहा-'निर्बुद्धि नहीं तो और क्या, वह भी तेरी तरह आसपास की जमीन पर तो अधिकार करता नहीं और केन्द्र में स्थित मंडोर पर रोज-रोज धावे बोलता है अब बेटे, तुम ही बताओ बीच में डालने पर तुम्हारे हाथ जले कि नहीं, यही अगर तुम आसपास की घाट लेते तो कुछ नहीं होता।

 
कहते हैं कि कभी भी किसी से भी सीखा जा सकता है। यही बात राव जोधा के साथ भी हुयी। जाटनी की सीख को मन में उतारली और उसने मंडोवर लेने से पहले अपने आसपास के क्षेत्रों पर ध्यान दिया और विभिन्न राजपूत सरदारों से मेलजोल बढ़ाना शुरू किया। इससे जोधा को स्थिति में धीरे-धीरे सुधार होने लगा।

इसी बीच मेवाड़ के महाराणा कुंभा भी जोधा के प्रति कुछ उदार हुए। यह परिवर्तन कुंभा की दादी हंसा के कहने पर हुआ। कुंभा ने अपनी दादी से स्पष्ट कहा कि मेवाड़ के सरदारों के गुस्से को देखते हुए प्रत्यक्ष  तो वह इधर-उधर भटकते जोधा की मदद नहीं कर  सकता है किंतु   अगर वह मंडोर पर   अधिकार करता है तो  कोई आपत्ति नहीं होगी। इस पर हंसा ने कुंभा की बात अपने विश्वस्त सेवक चारण डूला के माध्यम से जोधा तक पहुँचादी।

 
इस संदेश से राव जोधा के प्रयास और तेज हो गये। घुड़सवारों की संख्या पर्यात नहीं थी। इस निमित सेत्रावा के रावत लूणा, हरबू सांखला व रामदेव तंवर से उसने सहयोग मांगा। सौभाग्य से सभी ने जोधा को समर्थन देना स्वीकार लिया। स्मरण रहे कि हरबू अथवा हरभू सांखला व रामदेव (बाबा रामदेव) तंवर मारवाड़ क्षेत्र में सिद्ध पुरुष के रूप में पूजे जाते थे और जन-सामान्य पर उनका खासा प्रभाव भी था। जोधा ने किंचित् भी देर करना उचित नहीं समझा और मंडोवर पर चढ़ाई कर दी। मंडोवर से पूर्व जोधा ने महाराणा के चौकड़ी थाने पर आक्रमण किया जिसमें महाराणा के कई प्रमुख (दूदा, बीसलदेव आदि) सरदार मारे गये। इससे मंडोवर की ओर बढ़ना सरल हो गया। रास्ते के कोसाणे को भी जीत लिया अंतत: सन् 1453 ई. का वह शुभ दिन आ ही गया जब पन्द्रह वर्षों के बाद जोधा का स्वप्न पूरा हुआ और मंडोवर पर राठौड़ी ध्वज फहरा उठा।

 
इस विजय-अभियान के साथ कुछ भ्रान्तियों ने भी जन्म ले लिया। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार जोधा द्वारा मंडोवर पर अधिकार कर लेने के बाद कुंभा ने उस पर चढ़ाई की और कुंभा की हार हो गई तथा चित्तौड़ आकर दुर्ग के किंवाड़ जला दिये। अधिकांश इतिहासकर इससे सहमत नहीं है। प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा का तो कहना है कि कुंभा अपने युग का प्रबलतम हिन्दू राजा था, उसी के मौन संकेत पर जोधा ने मंडोवर पर अधिकार किया, ऐसी स्थिति में राव जोधा ने कुंभा को अपमानजनक पराजित किया हो, उचित नहीं लगता है। ओझा की तो मान्यता है कि कुंभा ने मारवाड़ पर दूसरी बार चढ़ाई की ही नहीं। एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासवेता डॉ. गोपीनाथ शर्मा का भी ऐसा ही मानना है।

 
राजपूती व्यवहार एवं मर्यादाओं की दृष्टि से भी यही लगता है कि जोधा ने मंडोवर पर विजय प्राप्त की और महाराणा कुंभा ने अपनी दादी हंसा के कहे अनुसार अनदेखी की हो। राव जोधा के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर भी यदि दृष्टिपात करें तो वे अपने मौन सहयोगी के साथ अपमानजनक व्यवहार करने वाले नहीं हो सकते थे। कई प्रसंगों में जोधा राजपूती मान-मर्यादाओं की पालना करने वाले व्यक्तित्व के धनी थे। जो अगर ऐसा होता तो अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का सम्बन्ध कुंभा के पुत्र रायमल के साथ क्यों करते ? और क्यों ही अपने समय के सर्वशक्तिमान कुंभा ही अपने पुत्र का सम्बन्ध जोधा की पुत्री से करते ? हाँ, एक बात अवश्य प्रतीत होती है कि दोनों ही चूंकि पूर्व में सम्बन्धी थे, अत: एक दूसरे के साथ मिलकर चलने को सहमत हो गये हों। क्योंकि मेवाड़ के सामने मालवा-गुजरात के मुस्लिम शासकों की सदैव रहने वाली चुनौती थी तो मारवाड़ को भी उत्तरपश्चिमी सीमा से नित्य प्रति का खतरा था। ऐसे में दोनों का हित एक बनकर रहने में ही था।

 
मंडोवर विजय के बाद राव जोधा एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना में जुट गया। इस श्रृंखला में मंडोवर के निकट ही 'चिड़िया ट्रंक' पहाड़ी पर एक दुर्ग के निर्माण की नींव मई 12, 1459 ई. को रखी और दुर्ग के नीचे अपने नाम पर जोधपुर नगर बसाकर उसे राजधानी बनाई। नई राजधानी के साथ उसका साम्राज्य-प्रसार का कार्य भी अविराम गति से चलता रहा। मेड़ता, फलोदी, पोकरण, भ्राद्राजून, सोजत, जैतारण, शिव, सिवाना, एवं गोड़वाड़ के कुछ हिस्से तथा नागौर को अपने राज्य में मिलाया। यही नहीं जोधा के ही ज्येष्ठ पुत्र बीका ने भी पिता के कहने पर ही जांगलू प्रदेश में अपना प्रभाव बढ़ाने में लगा था। सच तो यह है कि लगभग सम्पूर्ण मारवाड़ पर राठौड़ वंशीय जोधा एवं उसके पुत्र का परचम लहराने लगा था।

 
जोधा के अपने अन्तिम दिनों में मिली सफलताओं के बाद चारों तरफ उसका राजनीतिक स्तर बढ़ गया था, अब उसके पास राज्य नहीं, साम्राज्य था। इस साम्राज्य के निर्माण में उसके सगे-सम्बन्धियों एवं अन्यान्य जिन समर्थकों का भी समर्थन मिला, उन्हें वह नहीं भूला और सबके प्रति यथा-योग सम्मान दर्शाया। उसकी इसी दूर दृष्टि एवं मानवोचित कृत्य का लाभ मिला और वह अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल रहा तथा उसके बाद भी आने वाले राठौड़ राजाओं ने इसी मार्ग का अनुसरण किया।

 
राव जोधा का 73 वर्ष की उम्र में संवत् 1545 के वैशाख मास की सुदी 5, 6 अप्रेल 1489 ई. को जोधपुर में स्वर्गवास हुआ। समाहार के रूप में आज हम यही कहेंगे कि वह वीर, साहसी व असीम धैर्यवान व्यक्तित्व का धनी था। सन् 1931 में प्रकाशित 'मारवाड़ का मूल इतिहास' पुस्तिका में राव जोधा के लिए लिखा कि-'उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी, सदा अपनी भूमि प्राप्त करने का उद्यम करते रहे।" ओझाजी के मत में 'राव जोधा को ही जोधपुर का पहला प्रतापी राजा कह दें तो कोई अतिश्योति नहीं होगी।' ऐसा ही विचार डॉ. गोपीनाथ शर्मा का भी है कि-'जोधा के नेतृत्व ने राठौड़ों के राजनीतिक सम्मान के स्तर को काफी उन्नत किया था। डॉ. जमनेशकुमार ओझा ने एक लेख में ठीक ही लिखा है कि-'उसके व्यक्तित्व में राजनीतिक एवं सैनिक गुणों का सुन्दर समन्वय था।" अंत में मारवाड़ के इतिहास के पुरोधा पं. विश्वरेश्वरनाथ रेउ के अनुसार राव जोधा साहसी और वीर के साथ-साथ उद्योगी, दानी और बुद्धिमान नरेश भी था।

 (लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )

नुकीले शब्द

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