शुक्रवार, जनवरी 27, 2017

महाराणा संग्रामसिंह (सांगा)

महाराणा संग्रामसिंह का जन्म वि.सं. 1539, वैशाख वदी 9 (12 अप्रेल, 1482) तथा राज्याभिषेक 24 मई, 1509 को हुआ था। महाराणा संग्रामसिंह, जो लोगों में सांगा के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। यथा नाम तथा गुणवाले संग्रामसिंह का जन्म ही संग्राम के निमित हुआ था। राज्याभिषक के बाद सांगा का जीवन निरन्तर युद्धों अर्थात् संग्रामों के बीच ही बीता। सुप्रसिद्ध इतिहासकार गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने सांगा के सन्दर्भ में लिखा है कि-'मेवाड़ के महाराणाओं में वह सबसे अधिक प्रतापी और प्रसिद्ध हुआ, इतना ही नहीं, किंतु उस समय का सबसे प्रबल हिन्दूराजा था जिसकी सेवा में अनेक हिन्दू राजा रहते थे और कई हिन्दू राजा सरदार तथा मुसलमान अमीर, शाहजादे आदि उसकी शरण लेते थे।

 
ओझाजी के उक्त कथन का सार यही है कि सांगा अपने समय का एक शक्तिशाली और प्रतापी शासक था। ऐसा नहीं था कि सांगा को यह सब विरासत में मिला। सच तो यह है कि सांगा ने अपने पिता रायमल के समय के लड़खड़ाते मेवाड़ को सम्बल ही नहीं दिया बल्कि अपने दादा कुंभा द्वारा स्थापित साम्राज्य को और मजबूती प्रदान कर मेवाड़ की यश-कीर्ति को बढ़ाया। अगर मैं यहाँ यह कहूँ तो सम्भवत: गलत नहीं होऊँगा कि गुहिल ने मेवाड़ की नींव रखी, बप्पा ने उसके निर्माण को प्रारम्भ किया और कुंभा ने उसे पूर्णकर शक्ति एवं शौर्य के रंग से रंगा तो सांगा ने उसे पराक्रम एवं प्रभुसत्ता का स्वरूप प्रदान किया। यहीं से मेवाड़ की एक वह पहचान बनी जिसने प्रताप एवं अन्यान्य शासकों को उस पहचान को रखने के निमित्त अनवरत संघर्ष करने की प्रेरणा दी।

योद्धा के रूप में   जैसा कि पूर्व में  लिखा गया है   कि  संग्रामसिंह को   यथा नाम तथा  काम   करना पड़ा। राज्यारोहण के पश्चात सांगा को ईडर आदि अपने ठिकानों को व्यवस्थित किया। ईडर पर गुजरात सुलतान मुज़फ्फर की नजरें प्रारम्भ से ही थी। इस पर अधिकार करने   के लिए कई   प्रयास किये  किंतु राणा सांगा उसके वास्तविक स्वामी रायमल के पक्ष में रहे और उसे संघर्ष के लिए प्रेरित करते रहे।  फल रूप रायमल सुल्तान से संघर्ष करता रहा किंतु जब गुजरात के सुल्तान ने भी ठानली और   ईडर पर आ जमा तो भला राणा सांगा कैसे चुप बैठे सकते थे? तुरन्त ईडर पर चढ़ आये। सुल्तान का हाकिम निजामुल्मुल्क सांगा के आगमन की खबर मात्र से ही भाग खड़ा हुआ और अहमदनगर के किले में  जा छिपा। राणा ने  भी ईडर की गद्दी पर रायमल को बिठाकर अहमदनगर को जा घेरा। मुसलमानों ने  किले के दरवाजे बन्द कर   दिये, पर वीर राजपूत कब चुप्प रहने   वाले थे। बागड़   का डूंगर सिंह और   उसके  पुत्र  कान्हसिंह ने  अप्रत्याशित शौर्य का परिचय देते हुए दरवाजे तोड़ अंदर प्रवेश कर लिया। बस, अब क्या था, दोनों और से तलवारें बजी और सांगा के आगे सुलतान की सेना नहीं टिक सकी और भाग खड़ी हुई।
इस युद्ध के सन्दर्भ में एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा कि जब किले की किंवाड़ सांगा के हाथी किंवाड़ों पर लगे कीलों को देखकर नहीं तोड़ सके तो डुंगरसिंह को बेटे कान्हसिंह ने किंवाड़ों पर लगे उन नुकीले कीलों को पकड़कर लटक गया और फिर महावत को हाथी बढ़ाने के लिए कहा। महावत ने हाथी आगे बढ़ाया, किंवाड़ टूट गये और राजपूत सैनिकों ने किले में प्रवेश किया। कान्हसिंह द्वारा प्रदर्शित इस वीरतापूर्ण कार्य पर सांगा सहित सभी ने उस वीर को नमन किया।

 
सांगा ने ईडर के बाद अहमदनगर भी जीत लिया और बड़नगर की और बढ़े किंतु यहाँ ब्राह्मणों की अभयदान की प्रार्थना पर सांगा ने कुछ नहीं किया। बीसलनगर की ओर सेना का कूच किया। यहाँ गुजरात सुल्तान के हाकिम खां को मारकर शहर को जमकर लूटा और कई मुसलमानो को कैद किया।

 
दिल्ली पर धाक महाराणा सांगा ने गद्दी पर बैठते ही दिल्ली के तत्कालीन सुल्तान सिकन्दर लोदी के समय में उसके कई इलाकों पर अधिकार कर लिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र इब्राहीमलोदी जो कब से सांगा से दो-दो हाथ करना चाह रहा था, एक बड़ी सेना के साथ राजस्थान में हाड़ोती क्षेत्र की ओर बढ़ा। ज्यों ही सांगा को यह समाचार मिला, मुकाबले के लिए प्रस्थान कर गये और खातोली गाँव के पास दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ। फाब्स (रासमाला), हरविलास शारदा (राणा सांगा) के अनुसार एक पहर तक चले इस युद्ध में लोदी भाग खड़ा हुआ। एक शाहज़ादा गिरफ्तार हुआ जिसे दण्ड लेकर छोड़ दिया लेकिन सांगा का भी बायां हाथ कट गया और घुटने पर तीखा तीर लगने से सदा के लिए लंगड़े हो गये। दिल्ली को सांगा की शक्ति का अनुमान हो गया मगर इब्राहीम लोदी शांत नहीं बैठ सका और एक बार फिर वि.सं. 1518 में चित्तौड़ की ओर मियां माखन के नेतृत्व में बढ़ चला और वही हुआ जो पूर्व में हुआ। सांगा ने करारा उत्तर दिया। वे इस युद्ध में घायल अवश्य हुए लेकिन पुनः विजय प्राप्त की। धोलपुर के पास हुए इस संघर्ष का उल्लेख बाबर ने स्वयं 'तुजुके बाबरी' में किया और लिखा कि इस युद्ध में राणा की विजय हुई। राणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान को तो अपनी शक्ति एवं युद्ध कौशल से अवगत करा दिया मगर पड़ौसी गुजरात एवं मालवा से संघर्ष का अंत नहीं हो रहा था। कभी वह तो कभी वह, कोई न कोई बखेड़ा करते रहते, जिसके कारण सांगा को सदैव चौकस रहना पड़ता था। कभी उन्होंने मालवा के प्रबल राजपूत सरदार मेदिनीराय की मदद की तो कभी मांडू के सुलतान की सुरक्षा में हाथ बढ़ाया। ऐसे छोटे-बड़े संघर्ष चलते रहे। सन् 1519 ई में हुए संघर्ष में तो मांडू के घायल सुलतान महमूद को राणा ने जीवन दान भी दिया और तीन मास तक अपन पास रखा।

ओझा जी के अनुसार एक दिन सांगा ने उसके व्यवहार से प्रसन्न होकर गुलदस्ता भेंट करने की इच्छा व्यक्त की। इस पर मांडू सुलतान ने कहा कि किसी चीज के देने के दो तरीके होते हैं, एक तो अपना हाथ ऊँचा कर अपने से छोटे को देवें या अपना हाथ नीचा कर बड़े को नज़र करें। मैं तो आपका कैदी हूँ, इसलिए यहाँ नज़र का तो कोई सवाल ही नहीं, तो भी आपको ध्यान रहे कि भिखारी की तरह केवल इस गुलदस्ते के लिए हाथ पसारना मुझे शोभा नहीं देता। यह उत्तर सुनकर सांगा बहुत प्रसन्न हुए और गुलदस्ते के साथ मालवे का आधा राज्य भी देने की बात कहदी। महाराणा की इस उदारता से प्रसन्न होकर सुलतान ने गुलदस्ता ले लिया। दूसरे ही दिन महाराणा ने फौज खर्च लेकर सुल्तान को एक हजार राजपूत सैनिकों के साथ मांडू भेज दिया। सुलतान ने भी अधीनता के चिन्ह स्वरूप

 
महाराणा को रत्नजटित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भेट की। महाराणा सांगा के इस उदार बर्ताव की मुस्लिम लेखकों ने बड़ी प्रशंसा की है, परन्तु राजनैतिक परिणाम की दृष्टि से महाराणा की यह उदारता राजपूतों के लिए हानिकारक ही सिद्ध हुई। मांडू का यह सुलतान 1520 ई में गुजरात के सुलतान के साथ मिलकर पुन: युद्ध को तैयार हो गया जिसमें भी राणा सांगा का विजयी होने का उलेख है। जो भी सांगा ने भी हो, दुश्मन के साथ उसी राजपूती उदारता का परिचय दिया जैसा उनके पूर्व के राजपूती शासकों ने दिया और बदले में बुरे परिणाम देखने को मिले। गुजरात के शाहजादे बहादुर शाह को सांगा के समय में मेवाड़ में शरण मिली थी जबकि वह चित्तौड़ को नष्ट करने का भाव लेकर आया था। सांगा की माता तो उसे 'बेटे' शब्द से सम्बोधित करती थी।

 
राजनैतिक और कूटनीति के परिदृश्य में तो यह ठीक नहीं था लेकिन राजपूत संस्कृति में तो यह व्यवहार ही श्रेष्ठ माना जाता रहा है। सांगा ने वही किया, करते भी क्यों नहीं, राजपूत जो थे।

बाबर से संघर्ष

सांगा अब तक भारत में स्थापित मुस्लिम शासकों से ही जूझने में लगे थे कि पश्चिम से बाबर जो अपने राज्य फ़रग़ाना में सफल नहीं होने पर तैमूर के आक्रमणों से प्रभावित होकर भारत में सफलता की आश लिए पांच बार आया किंतु छुट पुट सफलताएं ही प्राप्त कर सका। उसे यह आभास अवश्य हो गया था कि दिल्ली में अफगान शक्ति क्षीण हो रही है और अन्यत्र भी मेवाड़ के राणा सांगा के अतिरिक्त कोई शक्ति नहीं है। अत: वह समकालीन पंजाब के गवर्नर दिलावर खां के न्यौते पर स्थायी रूप से भारत पर अधिकार करने की मंशा से 17 नवम्बर, 1525 ई को काबुल से चला और रास्ते में संघर्ष करता हुआ पानीपत के मैदान में आ डटा, जहाँ दिली सुलतान इब्राहीम लोदी से मुकाबला हुआ और वह सफल रहा। इब्राहीम लोदी मारा गया। इसके बाद उसने आगरा भी फतह कर लिया।

 
बाबर यह अच्छी तरह जानता था कि हिन्दुस्तान में उसका सबसे भयंकर शत्रु महाराणा सांगा है, इब्राहीम लोदी नहीं। महाराणा की बढ़ती शक्ति एवं प्रतिष्ठा को वह जानता था। उसे भली भांति ज्ञात था कि महाराणा से युद्ध करने के दो ही परिणाम हो सकते हैं, या तो वह भारत का सम्राट हो जाए, या उसकी सब आशाओं पर पानी फिर जाए और उसे वापस काबुल जाना पड़े।

ऐसा ही कुछ सांगा ने भी अनुमान लगा लिया था कि अब इब्राहीम लोदी से भी अधिक प्रबल शत्रु देश में आ गया है। अत: उन्होंने भी रणथंभोर, बयाना आदि सैनिक महत्व के ठिकानों और अपनी सैन्य शक्ति को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया था। उधर अफगान भी बाबर के विरुद्ध सांगा को समर्थन देने को तैयार हो गये थे। जब देखा कि बाबर आगरा जीतकर आगे बढ़ने को है तो सांगा भी उसी दिशा में आगे बढ़े और खंडार पर विजय प्राप्त कर बयाना की तरफ बढ़े और उसे भी अधिकार में ले लिया। बयाना का हाकिम मेहंदी ख्वाजा हारकर भागा और बाबर से आज मिला। सांगा वहां से चला और बसावर (भुसावर) आ पहुँचा। सांगा ने 22 फरवरी, 1527 को बाबर के एक मुख्य सेनापति अब्दुल अजीज जो खानवा पहुँचा उस पर आक्रमण कर दिया और यहाँ बड़ी वीरता दिखाई, शत्रुओं का झंडा छीन लिया तथा कोई बड़े-बड़े मुगत सिपहसालारों को धूल चटाई और दो मील तक पीछा करते हुए उन्हें शिकस्त दी। अब स्थिति यह थी कि पूरी मुगल सेना में घोर निराशा व्याप्त थी। स्वयं बाबर अपनी दिनचर्या में लिखता है किइस समय पहले की घटनाओं से क्या छोटे और क्या बड़े सभी सैनिक भयभीत और हतोत्साह हो रहे थे।'

 
ऐसे में बाबर ने दिन रात एक कर युद्ध संरचना की। सेना में जोश भरने के लिए शराब न पीने की प्रतिज्ञा की और दाढ़ी न कटवाने की कसम खाई। जोशीले भाषण दिये और 13 मार्च, 1527 को कूच किया। उधर राणा की सेना में हसन खां मेवाती, इब्राहीम लोदी के पुत्र महमूद लोदी, मारवाड़ का राव गांगा, आंबेर (आमेर) का राजा पृथ्वीराज सहित राजपूताने के सारे राजा, रईस एकत्रित हो गये। बस, अब वह घड़ी (17 मार्च, 1927 सवेरे साढ़े नौ बजे) आ ही गई और युद्ध शुरू हो गया। राणा की सेना चार भागों में विभक्त थी-अग्रभाग (हरावल), पृष्ठ भाग, दक्षिण पाश्र्व और वाम पाश्र्व। स्वयं सांगा हाथी पर सवार थे। दोनों और से ऐसा घमासान मचा जिसकी कल्पना न मुगलों को थी और न राजपूतों को। अभी युद्ध अपने यौवन पर ही था कि एक तीर हाथी पर बैठे सांगा के सिर में लगा। वे मूछिंत हो गये और उन्हें तुरन्त युद्ध भूमि से मेवाड़ की ओर पालकी से ले गये। झाला अज्जा को तुरन्त युद्ध की कमान देने के निमित्त राणा के हाथी पर सवार किया और युद्ध जारी रखा, लेकिन वहाँ बात नहीं बनी और तोपों के गोलों के आगे वे नहीं ठहर सके व राजपूत सेना की हार हो गई। एक नये इतिहास की रचना हो गई। बाबर भी जिस सपने को सच नहीं मानता था, वह सच हो गया।

 
एक पलक झपकते ही विदेशी आक्राताओं की जड़ें जमने का अवसर मिल गया। राजपूती इतिहास में किसी एक युद्ध में जितनी विशाल एकता राणा सांगा के छत्र के नीचे प्रदर्शित हुई, वह न पूर्व में कभी देखी गई और न बाद में कभी दिखलाई दी एवं रणकौशल इस युद्ध में सभी राजपूत-शासकों ने जिस शक्ति, शौर्य, साहस एवं स्वाभिमान का परिचय दिया वह सदैव इतिहास में वन्दनीय रहेगा, अभिनन्दनीय कहलायेगा।

मूल्यांकन

पृथ्वीराज चौहान के बाद से हिन्दू धर्म पर आक्रांताओं द्वारा सतत आक्रमण होते रहे। असंख्य मंदिर धराशायी हो गये तो जबरन धर्मान्तरण करने में लगे थे ये आक्रांता। ऐसे समय सांगा द्वारा उठाया कदम साहसपूर्ण एवं स्तुत्य ही कहलायेगा। इतिहासकार हर बिलास शारदा ने बहुत सुन्दर शब्दों कहा है कि-'सांगा ने सोलहवीं सदी में एक ऐसा हिन्दू राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया जो प्राचीन भारत की परम्पराओं पर आधारित था। संग्रामसिंह अपने पैतृक राज्य को प्राचीन भारतीय शासकों को राज्यों की तरह निर्मित करना चाहते थे, जिसमें अपनी प्रजा की सुख-शान्ति समृद्धि व उन्नति ही राजा का और राज्य का एक मात्र उद्देश्य होता था।'

संक्षेप में सांगा एक कुशल एवं दूरदर्शी शासक एवं अद्वितीय योद्ध थे, जिन्होंने न केवल मेवाड़ व राजस्थान बल्कि विश्व इतिहास में अपना स्थान बनाकर भारत को गौरवान्वित किया।

(लेखक तेजसिंह तरुण राजस्थान के सूरमा” )


 

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