शुक्रवार, जनवरी 13, 2017

मेड़तिया राठौड़ ( भाग - 2 )


मीरांबाई-मीरां का जन्म वि.सं. 1555 में कुड़की ग्राम में हुआ था। ये राव दूदा जी की पौत्री और कुंअर रतन सिंह की एकमात्र सन्तान थी। मीरां जब दो वर्ष की थी तो इनकी माता का देहान्त हो गया। मीरां का पालन-पोषण व शिक्षा मेड़ता में राव दूदा जी की देखरेख में हुआ। राव दूदा ईश्वर भक्त थे जिनके संस्कारों का प्रभाव मीरां पर पडे बिना नहीं रहा।

मीरां की शिक्षा पंडित गजाधर की देखरेख में हुई। कुछ ही वर्षों में मीरां पूर्ण व पंडिता हो गई।

मीरां बाई के बारे में एक जनश्रुति प्रचलित हे कि रतनसिंह के घर एक साधु आया जिसकी कृष्णमूर्ति को देख मीरां ने मूर्ति के लिए हठ किया। साधु ने मूर्ति नहीं दी तो भगवानकृष्ण ने स्वप्न में दर्शन दे साधु को मूर्ति मीरां को देने का आदेश दिया। साधु ने मूर्ति मीरां को दी जिसे पाकर मीरां प्रसन्न हो गई तथा तभी से कृष्ण को अपना वर स्वीकार कर लिया। एकदूसरी जनश्रुति के अनुसार राव दूदा की अनुपस्थिति में मीरां पूजा भोग आदि करती थी। दो दिन तक भोजन पड़ा रहा तो तीसरे दिन भोजन रख कर मीरां ने भगवान को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि आज भोजन न किया तो आत्मघात कर लूगी। जब मीरां कटार से आत्मघात करने लगी तो मूर्ति ने मीरां का हाथ पकड़ लिया और भोजन किया। दूदा जी ने वापस आकर जब यह चमत्कार देखा तो मीरां के चरणों में सादर प्रणाम किया। इस चमत्कारिक घटना से 10 वर्षीय मीरां का यश चारों और फैल गया।

 वि.सं. 1580 में कुंवर भोजराज के देहान्त के बाद मीरां का वैवाहिक सुखी जीवन समाप्त हो गया। संवत 1584 में रतन सिंह की मृत्यु से मीरां को दूसरा आघात लगा। मीरां के मन में पली वैराग्य भावना उभर कर सामने आई और लोक लाज त्याग कर कृष्ण भक्ति में लग गई।

 
महाराणा सांगा व कुंवर रतनसिंह की मृत्यु के बाद विक्रमसिंह मेवाड़ के शासक बने। विक्रमादित्य चाहते थे कि मीरां वैभव का जीवन बिताए। देवर द्वारा सताने की अनेक जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं। इन घटनाओं पर मीरां ने अनेक पदों की रचना की भी है।  

 मेवाड़ में बढ़ते कष्टों से मीरां ने मेवाड़ का परित्याग कर मेड़ता आ गई जहाँ वो भाई जयमल के साथ रहते हुए भक्ति और सन्तों की सेवा में जुट गई।

संवत 1595 में मेड़ता पर मालदेव के आक्रमण के बाद मीरां वृंदावन और द्वारका संवत 1600 में चली गई। राणा उदयसिंह द्वारा वापस आने का आग्रह और पुरोहितों द्वारा अन्न त्याग से मीरां संकट में पड़ गई। उसने ईश्वर से प्रार्थना की।

 
कहते हैं कि मीरां की आत्मा द्वारकेश्वर की प्रतिमा में विलीन हो गई और उसके का कुछ अब भी भक्त जनों को दिखता है। मीरां की पूजा प्रतिमाओं में से एक मेड़ता के चतुर्भुज जी के मन्दिर में, दूसरी नुरपुर के गिरिदुर्ग में तथा तीसरी उदयपुर के श्री मुरलीधर जी के विशाल देवालय में स्थापित हैं। अनुमान है आठ वर्ष तक द्वारिका में रहने के कारण वहाँ भी एक प्रतिमा होनी चाहिये। आज राजपूताना को भक्तिमति मीरां बाई के देश के नाम से भारत के लोग जानते हैं। मीरां की पूजा धामों में की जाती है। मीरां परम् धर्मात्मा, ईशभक्त,वेद-शास्त्र पारंगत, दयाशील, काव्य नाट्य, वाद्य,गायन में प्रवीण थी ।

राव जयमल

राव जयमल का जन्म 17 सिम्बर 1507 ई. को हुआ था। राव वीरमदेव की मृत्यु के पश्चात् फरवरी 1544 ई. में जयमल मेड़ता का शासक बना।

 
शेरशाह की मृत्यु के बाद मालदेव पुनः जोधपुर पर अधिकार करने में सफल हो गया। अब भी वह मेड़तिया राठौड़ों को सन्देह की दृष्टि से देखता था फिर भी सात वर्ष तक वह जयमल पर आक्रमण की कोई बात सोच न सका। जयमल ने अपने राज्य को सुदृढ़ बनाने व शक्ति बढ़ाने के लिए अपने विश्वस्त सरदारों को जागीरें प्रदान की। मालदेव ने इससे नाराज होकर मेड़ता पर चढ़ाई कर दी। जयमल ने संधि का प्रयास किया पर मालदेव ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। फलत: दोनों पक्षों में युद्ध हुआ। मालदेव की सेना के पैर उखड़ गए और मालदेव रणक्षेत्र से भाग गया। इस युद्ध में मालदेव को बचाने में उनका वीर सेनापति नगा भारमलोत काम आया। दोनों सेनाओं के अनेकों योद्धा रणक्षेत्र में काम आए।
 

25 जनवरी 1557 ई. को राव मालदेव ने जयमल की अनुपस्थिति का लाभ उठा मेड़ता पर अधिकार कर लिया। जयमल की सेना हरमाड़ा युद्ध के बाद बिखर गई थी। अतः पुनः मेड़ता प्राप्ति का उसका प्रयास सफल नहीं हुआ। मालदेव ने आधा मेड़ता जयमल के भाई जगमाल को प्रदान किया।

राव जयमल शाही सहयोग की इच्छा से अकबर की सेवा में चला गया। बादशाह अकबर के आदेश से शरफुद्दीन ने सेना सहित मेड़ता पर चढ़ाई की। मालदेव ने चन्द्रसेन के नेतृत्व में सेना भेजी थी पर शत्रु पक्ष की शक्ति पहचान कर वापस जोधपुर लौट आया। जयमल का 1563 ई. में मेड़ता पर पुनः अधिकार हो गया।
 

सन् 1563 ई. में जयमल को बागी शरफुदीन को संरक्षण देने के कारण शाही सेना का कोपभाजक बनना पड़ा। वह मेड़ता त्याग कर मेवाड़ सपरिवार चला गया। महाराणा उदयसिंह ने जयमल को बदनोर, करहेड़ा और कोठारिया की जागीरें प्रदान की। शाही आदेशानुसार मेड़ता जगमाल को सौंप दिया गया।

महाराणा उदयसिंह ने जयमल की वीरता से प्रभावित हो 1565 ई. में चित्तौड़ का दुर्गाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। महाराणा द्वारा अकबर की आधीनता स्वीकार करने से मना कर देने पर 1567 ई. में अकबर ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी।

चित्तौड़ दुर्ग के सरदारों में सन्नाटा व्याप्त था। लगातार चार माह तक युद्ध के कारण किले में रसद प्राय: समाप्ति को था। अत: जयमल के परामर्शानुसार जौहर का निर्णय लिया गया। जयमल व पता सिसोदिया की पत्नियों के नेतृत्व में स्त्रियों तथा बच्चों ने जौहर किया।

 

दूसरे दिन सूर्योदय के साथ ही राजपूत योद्धा केशरियाँ वस्त्र धारण कर दुर्ग के कपाट खोल मुगल सेना पर शेरों की तरह झपट पड़े। जयमल वीरवर कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठ कर युद्ध करते हुए हनुमान पोल और भैरव पोल के बीच दोनों योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। अकबर भी क्षत्रियों के आक्रमण को देख दंग रह गया। जयमल का बहनोई पता बहादुरी से लड़ता हुआ एक कुद्ध हाथी द्वारा मारा गया।

 
जयमल के अनुज ईशरदास मेड़तिया, प्रताप मेड़तिया व चाचा रायमल के पुत्र अर्जुन मेड़तिया, रायमल का पौत्र एवं सुरजन का पुत्र रूपसी मेड़तिया तथा करमचन्द मेड़तिया वीरगति को प्राप्त हुए। अनेकों शूरवीरों ने हँसते-हँसते मातृभूमि का आलिंगन किया। 25 जनवरी 1568 ई. को चितौड़ के तीसरे इतिहास प्रसिद्ध शाके का दारुण अन्त हुआ। मेड़तिया राठौड़ों का वह दैदीप्यमान उज्ज्वल दीप सदा के लिए बुझ गया।

 
जब तक राजपूतों के पास अपने पूर्वजों की सम्पति का कुछ भी अंश अथवा पुरातन घटनाओं की कुछ यादें शेष रहेंगी तब तक जयमल-पता के नाम बड़े सम्मान एवं गौरव के साथ स्मरण किए जायेंगे। अकबर ने जयमल-पता की वीरता से प्रभावित हो दोनों की गजारूड़ पाषाण मूर्तियों का निर्माण कर अपने किले के मुख्य द्वार पर प्रतिष्ठित कराई। बर्नियर ने लिखा है जयमल-पता ने स्वदेश की रक्षार्थ अपना तन-मन अर्पण कर दिया एवं एक आक्रमणकर्ता के अधीन हो जाने की अपेक्षा चितौड़ की स्वतन्त्रता के लिए शत्रुओं पर आक्रमण करके मर जाना ही अच्छा समझा।
 

जयमल के पुत्र

1. सुरताण-यह जयमल का ज्येष्ठ पुत्र था जिसे अकबर से मेड़ता प्राप्त हुआ। इसके वंशज  
   सुरताणोत मेड़तिया कहलाए।

2. केशवदास-इसे अकबर से आधा मेड़ता प्राप्त हुआ। इसके वंशज केशवदासीत मेड़तिया  
   कहलाए।

3. गोयंददास-इसे नीलिमा मिला था। यह केशवदास के साथ बीड़ के युद्ध में काम आया।  
   इसके पुत्र एवं सांवलदास के पुत्र रघुनाथ सिंह को मारोठ मिला था। इसके वंशज     
   रघुनाथसिंहोत मेड़तिया कहलाये।

4. माधवदास-इसे रीयां की जागीर मिली यह अजमेर के शाही सूबेदार से लड़ता हुआ काम  
   आया। इसके वंशज माधवदासीत मेड़तिया विख्यात हुए।
5. कल्याणदास-इसके वंशज कल्याणदासोत मेड़तिया कहलाए।
6. रामदास-हल्दीघाटी युद्ध में राणा प्रतापसिंह की ओर से लड़ता हुआ काम आया।
7. विट्ठलदास-इसने जगा जोड़चा को मारा था। इसके वंशज विट्ठलदासोत मेड़तिया कहलाए।
8. मुकुनदास-जयमल के बाद बदनौर की गद्दी पर बैठा। मुकुनदास की संतति मुकुनदासोत
     मेड़तिया कहलाए।
9. श्यामदास-दूदा हाडा की सेवा में रहते हुए बहलोल खाँ से लड़ता हुआ मारा गया।
10. नारायणदास-इसे सुरताण से लांबिया का पट्टा मिला। इसकी संतति नारायणदासोत
     मेड़तिया कहलाये।
11. नरसिंहदास के कोई संतान नहीं हुई।
12. द्वारकादास-इसे अकबर ने लांबिया का पट्टा दिया। यह बीड़ के युद्ध में केशवदास के
     साथ मारा गया।
13. हरीदास-यह राणा प्रतापसिंह की सेवा में रहा। इसे देलाणा की जागीर मिली। यह राणपुर
    के युद्ध में मारा गया।
14. सादूल-जयमल से कुड़की जागीर में मिली। यह शरफुद्दीन की रक्षार्थ नागौर में मारा
    गया। इसके वंशज सादूलोत मेड़तिया कहलाए।

सुरताण और केशवदास मेड़तिया शाही सेना के साथ रहकर, अनी बहादुरी व वफादारी - साबित कर चुके थे। अत: 1580 में सुरताण को अकबर से मेड़ता प्राप्त हो गया। राव रमदेव का पौत्र व ईशरदास का पुत्र नरहरदास सुरताण से नाराज था क्योंकि इसे इच्छानुसार जागीर प्राप्त नहीं हुई। वह केशवदास से मिल गया। नरहरदास के प्रयासों से केशवदास को आधा मेड़ता प्राप्त हुआ। केशवदास ने प्रसन्न होकर नरहरदास को रीयां की जागीर प्रदान की।  ..... आगे पढ़िये .....

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