सोमवार, दिसंबर 31, 2012

द्रोपदी

क्षितिज की
खोहों तक
पसरा सन्नाटा और
शाखाओं पर बैठे 
शोकाकुल पक्षी,
देकर  उलाहना
भौर की लालिमा को ,
को बता रहे हैं
बीती  रात
का वो स्याह सच ,
और दिखा रहे है
इशारों से
धरा का  वो
सलवटी हिस्सा
जिस पर मिलकर ,
दुशासनों ने
जी-भरकर ,
नोचा-खसोटा और
फेंक दिया जूठन सा
एक द्रोपदी को , मगर
सुनकर उसका 
कारुणिक क्रंदन
नहीं आया कहीं से
एक भी देवकीनंदन

-विक्रम

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही मार्मिकता के साथ लिखा है! सतयुग की द्रोपदी के साथ कलयुग की द्रोपदी की विवशता की मार्मिक अभिव्यक्ति की है!

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  2. कई दिनों से मैं ब्लॉग की दुनियां से कटा कटा रहा ... तो मैं आपकी पोस्ट पर नही आ पाया ...

    कोरवों की तरह तमाशबीनों की दुनियां में देवकीनंदन मात्र कल्पना सी है।
    रचना अच्छी है.

    यहाँ पर आपका इंतजार रहेगा: शहरे-हवस

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  3. "सुनकर उसका
    कारुणिक क्रंदन
    नहीं आया कहीं से
    एक भी देवकीनंदन"


    संवेदनहीन हो रहे समाज की वास्तविकता - साकार प्रस्तुति - अति सुंदर

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  4. दुशासनों की फ़ौज देख देवकीनंदन ने शायद ऑंखें मूंद ली है ...अब खुद आज द्रोपदी को अपनी रक्षा के लिए स्वयं कदम उठाने होगें ..गूंगी-बहरी होती मानसिकता के बीच आखिर कितने उम्मीद रखे ..बहुत अच्छी गहन सम्वेंदना से उपजी सार्थक प्रस्तुति ..आभार

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  5. चिरनिद्रा में सोकर खुद,आज बन गई कहानी,
    जाते-जाते जगा गई,बेकार नही जायगी कुर्बानी,,,,

    recent post : नववर्ष की बधाई

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  6. प्रतीक्षा है सूर्योदय की... नव वर्ष की शुभकामनाओं के साथ....

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  7. बहुत मार्मिक...नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!

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  8. देवकी नंदन जरूर आएंगे .. पहले खुद में पौरुष जगाना होगा ...
    बहुत ही मार्मिक चित्रण है ... पर कडुवा सत्य लिखा है ..
    २०१३ की मंगल कामनाएं ...

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