रविवार, फ़रवरी 19, 2017

आखिरी पड़ाव

रेलवे के वेटिंग हॉल मे एक शख्स गाड़ी के इंतजार मे अखबार के पन्ने पलट रहा था । चेहरे पर कुछेक झुर्रियां उसके वृद्ध होने की गवाही दे रही थी। उसके कान ट्रेन  के आने की आवाज पर टिके थे । करीब चार दशक के बाद आज फिर से उसके कदम उस शहर की तरफ चल पड़े ।

अंकल ये सीट खाली है ?

विश्वनाथ ने अखबार से नजरे हटाकर ,चश्मा दुरुस्त करते हुये ऊपर देखा तो सामने एक युवती दो बैग थामे खड़ी थी ।
“.....”
अंकल...”
“हाँ...हाँ बेटे  खा...खाली है...”, बैठो ।
विश्वनाथ युवती को देखकर एक पल को चौंक गये ।
“थैंक यू अंकल “, कहते हुये युवती ने दोनों बैग सीट के पास रखे और बैठ गई।
आप कहाँ जाओगी बेटे ?” , विश्वनाथ ने कुछ समय बाद पूछा।

“लुधियाना, और आप अंकल  , लड़की ने पानी की बोतल का ढक्कन खोलते हुये पूछा ।
“मैं ...मैं भी.... “ 
“आप वहीं रहते हैं अंकल ?”
“हाँ...नहीं... मेरा एक पुराना दोस्त है वहाँ , काफी अरसा हो गया , उसी से मिलने जा रहा हूँ” , विश्वनाथ ने कहा।

“और बेटा आप....?”
“अंकल मैं वहीं रहती हूँ ,हमारा घर है वहाँ। अभी कुछ दिन कॉलेज की छुट्टियाँ थी तो घर जा रही हूँ। “, युवती ने जवाब दिया।

“किस एरिया मे रहते हैं आपके दोस्त अंकल ?”, युवती ने पूछा।
“वो ...वो एरिया तो मुझे याद नहीं ,लेकिन हाँ उसका फोन नंबर है मेरा पास , मैं उसको स्टेशन पहुँचकर फोन करूंगा। “

“जी अंकल” ,युवती ने पानी की बोतल का ढक्कन बंद करते हुये कहा ।
तभी स्पीकर पर  ट्रेन के आने की घोषणा हुई और विश्वनाथ की बात उसमे दबकर रह गई, युवती तुरंत उठ खड़ी हुई और अपने दोनों बैग लेकर प्लेटफॉर्म पर आ गई।

विश्वनाथ ने भी अपनी छड़ी और बैग उठाया और वो भी प्लेटफॉर्म पर ट्रेन के आने का इंतजार करने लगे , साथ ही वो उस युवती को भी देखे जा रहे थे जो थोड़ी दूरी पर ट्रेन के इंतजार मे खड़ी थी । गुजरा हुआ वक़्त उनके जहन मे रह रहकर सरगोशी कर रहा था।

कुछ अंतराल पर ट्रेन के आते ही भगदड़ शुरू हो गई , सभी पैसेंजर अपनी अपनी बोगी और सीट खोजने मे लग गए। विश्वनाथ के कदम अपनी बोगी की तरह बढ़ गए , उन्होने पीछे मुड़कर देखा तो  युवती दूसरी बोगी मे चढ़ चुकी थी।

रात का एक बज चुका था , पूरी बोगी मे यात्रियों के खर्राटे गूंज रहे थे। दूसरी तरफ विश्वनाथ की आँखों मे नींद का नामोनिशान नहीं था और वो अपनी सीट पर करवटें बदल रहे थे।  अतीत से उनका द्वंद चल रहा था ।

उन दिनों विश्वनाथ की पहली पोस्टिंग लुधियाना हुई थी । ऑफिस के पास ही उन्हे एक फ्लैट किराए पर मिल गया था । उसी प्रवास के दौरान सामने के मकान मे रहने वाली रंजना नाम की युवती से नजरें मिली तो सिलसिले चल निकले। महीनों तक एक दूसरे को देखते और आगे बढ़ जाते। फिर धीरे धीरे बातों और मुलाकातों का दौर भी चल पड़ा । सालभर तक दोनों  छुपछुप कर मिलते रहे , कभी सीढ़ियों मे , कभी छत तो कभी पार्क मे।

यूँ ही एक साल गुजर गया । एक दिन दोपहर बाद अचानक विश्वनाथ के ट्रान्सफर ऑर्डर आ गए और उन्हे तुरंत कोचीन ऑफिस मे रिपोर्ट करने को कहा गया। अचानक हुये इस ट्रान्सफर से विश्वनाथ काफी विचलित हो गए मगर सरकारी नौकरी के चलते उन्हे उसी रात कोचीन के लिए निकलना पड़ा। इस दौरान वह रंजना से भी नहीं मिल पाया और भारी कदमों से अपना समान लेकर स्टेशन की तरफ बढ़ गया।

वक़्त गुजरता गया ।

इस दरमियाँ उसने बहुत बार लुधियाना जाने की सोची मगर नौकरी के कामों मे  इतना उलझकर रह गया की  पाँच साल गुजर गए। इसी दौरान परिवार वालों ने दवाब बनाकर विश्वनाथ की शादी कर दी और फिर गृहस्थी और नौकरी  ने देखते देखते ही उसके जीवन के चार दशक छीन लिए।

आज नौकरी और गृहस्थी से सम्पूर्ण फुर्सत मिली तो जिंदगी के उस हिस्से को अपने से जोड़ने निकल पड़ा।
ट्रेन लुधियाना पहुँच चुकी थी। एक एक करके सभी यात्री उतर चुके थे ।   

विश्वनाथ स्टेशन के पास बने एक होटल की तरह चल पड़े। होटल से जल्दी फ्रेश होकर वो बाहर आ गए और फिर उनके कदम उस तरफ बढ़ गए जहां वो किसी को इंतजार मे छोड़ आए थे।

बहुत कुछ बदल चुका था । काफी जद्दोजहद के बाद उन्हे वो फ्लैट नज़र आया जहां वो उन दिनों ठहरे  थे। बाहर से मकान काफी जीर्ण हालत मे था। मकान के अंदर जाने का कोई कारण नहीं था इसलिए वो सामने के पार्क मे जा बैठे। घंटों उस पार्क मे गुजारने के बाद वो अपने दिल को नहीं रोक पाये और  आखिर उनके कदम उस मकान की तरफ बढ़ गए।

“अरे अंकल आप ?”

सामने उस लड़की को देखकर  विश्वनाथ चौंक गए।    

“त...तुम यहीं रहती हो”
“हाँ”
“वो... ट्रेन मे मेरा मोबाइल कहीं गिर गया , इसलिए दोस्त को ढूँढता हुआ इधर आया था , लेकिन लगता है वो अब यहाँ नहीं रहता।“

“चलिये फिर आप हमारे घर चलिये अंकल”
युवती विश्वनाथ को अपने घर के अंदर ले गई।
“क्या लेंगे अंकल ? चाय या कॉफी ?”
“क...कुछ भी..... तुम्हारे मम्मी-पापा ?  ,विश्वनाथ ने कुछ देर रुककर पूछा।

“मैं नानी के साथ रहती हूँ अंकल ,मैं चाय लाती हूँ फिर बैठकर बात करते हैं ।“, कहकर युवती अंदर चली गई।

विश्वनाथ हॉल मे बैठे इंतजार करने लगे । उनकी नजरे किसी को  ढूंढ रही थी । क्या इतने सालों बाद वो रंजना को पहचान लेगा ? वो खुद से ही सवाल कर रहे थे। ये लड़की कौन है ? इसकी शक्ल रंजना से काफी मिलती है । क्या ये .....।
“लीजिये अंकल , आपकी चाय...  
विश्वनाथ ने काँपते हाथों से चाय का कप थामा।

“मैं तुम्हारा नाम पूछना तो भूल ही गया बेटी “,विश्वनाथ ने चाय की चुस्की लेते हुये पूछा।
“विशाखा, अंकल ” , लड़की ने कहा।
“बहुत प्यारा नाम है “

“माँ ने रखा था”, विशाखा ने मुस्कराते हुये कहा।
“तुम्हारी मम्मी नहीं दिखाई दे रही ....”
 “करीब दस साल मम्मी मुझे छोड़कर भगवान के पास चली गई अंकल ”
“का...क्या...क्या हुआ रंजना को .... म...मेरा मतलब आपकी मम्मी को “,विश्वनाथ बुरी तरह से सकपका गए , उनका पूरा वजूद काँप कर रहा गया।  

“विशाखा ने चौंक कर विश्वनाथ की तरफ देखा”
विश्वनाथ के हाथ काँप रहे थे । कप से चाय छलक रही थी ।
“अंकल आप ठीक तो है ना “, विशाखा ने उनके हाथ से कप लेते हुये कहा।  

“अं... हाँ मैं...मैं ठीक हूँ , मुझे अब चलना चाहिए”, विश्वनाथ ने आँखें पौंछते हुये कहा, और उठकर चलने लगे।

विशाखा उन्हे छोड़ने मुख्य द्वार तक आई।
“अंकल”
“हाँ ... बेटे “,विश्वनाथ ने भर्राई हुई आवाज मे पूछा।

“आप.....  विश्वनाथ अंकल हो ना ?”

“ हाँ...मगर  त...तुम्हें कैसे पता ?”, विश्वनाथ ने डगमगाते हुये पूछा।
“मम्मी ने एक बार बताया था”
“क...क्या”
“हाँ अंकल , आइये सामने पार्क मे बैठते हैं वही बैठकर बात करते हैं। विशाखा उनका हाथ पकड़कर पार्क की बेंच तक ले गई।  

आपके जाने के करीब पंद्रह सालों तक मम्मी  ने  आपका इंतजार किया , बाद मे परिवार वालों के दबाब के चलते उनकी शादी कर दी गई । शादी के तीन साल बाद मेरा जन्म हुआ और उसके अगले साल ही पापा ने मम्मी को तलाक दे दिया। मम्मी नानी के साथ रहने लगी। वो बहुत खामोश खामोश सी रहने लगी थी । वो अक्सर बीमार भी रहने लगी। एक बार उन्होने मुझे आपके बारे मे बताया था । बताते हुये उनकी आँखों से बार बार आँसू बह रहे थे। वो आपको मरते दम तक नहीं भूली थी । उन्होने मेरा नाम भी आपके नाम से मिलता जुलता रखा था ।

विशाखा की आँखें  नम हो चुकी थी । उसने अपने आँसू पौंछकर मुस्कराते हुये,  विश्वनाथ का  हाथ पकड़ते हुये कहा , “आप ने सच मे बहुत देर कर दी अंकल” , दूसरे ही पल विश्वनाथ का थका हुआ शरीर एक और लुढ़क गया। उसी दौरान उनकी जेब मे पड़े मोबाइल की घंटी बज उठी ।

“विक्रम”

 

बुधवार, फ़रवरी 08, 2017

राजा मानसिंह

21 दिसम्बर, 1550 को राजा भगवान दास की पटरानी भागवती की कूख से जन्मे मानसिंह राजस्थान के उन राजा-महाराजाओं में हैं जिन्होंने अपने समय में असीम ख्याति अर्जित की और इतिहास बनाया। यह विडम्बना ही है कि समय ने उन्हें नहीं समझा और जैसी प्रसिद्धि उन्हें मिलनी चाहिए थी वह उन्हें प्राप्त नहीं हो सकी। सम्भवत: इसका कारण था कि वे तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर की सेवा में रहे और हल्दीघाटी जैसे स्वतंत्रता-संघर्ष में प्रताप के विरुद्ध लड़े। भारतीय जन-मानस में उनकी छवि बिगड़ने का एकमात्र कारण था। जबकि वे वीर साहसी और कुशल नीतिज्ञ थे। अपने जीवन में 77 युद्धों को अंजाम दिया और लगभग सभी में विजयी रहे। हल्दीघाटी युद्ध एक अपवाद कहा जा सकता है। यूं अब तक हल्दीघाटी में भी मानसिंह की विजय का उल्लेख होता आया है लेकिन अब जो तथ्य सामने आये हैं, इसे एक अनिर्णायक युद्ध ही माना जाने लगा है।
हल्दीघाटी युद्ध को यदि अपवाद मान लेते हैं तो यह कहना ही होगा कि राजा मानसिंह एक अपराजेय योद्धा थे। मानसिंह द्वारा लड़े युद्ध प्रचण्ड और विपरीत परिस्थितियों में लड़े गये थे। उनके इसी अपराजेय स्वरूप के कारण मुगल बादशाह अकबर के वे सबसे चहेते और खास बन गये थे। इसे यूं भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे उस समय मुगल साम्राज्य के प्रमुख स्तम्भ थे।
मानसिंह का बाल्यकाल आम्बेर से दूर मोजमाबाद में व्यतीत हुआ था। शस्त्र विद्या के साथ उन्हें हिन्दी, संस्कृत एवं फारसी भाषाओं में पारंगत किया
गया। बारह वर्षीय किशोर मानसिंह को आगरा में शाही सेवा में रखकर अकबर ने प्रशिक्षण की विशेष व्यवस्था की थी। इस दौरान मानसिंह को वह सब कुछ सिखाया एवं बताया गया जो एक क्षत्रिय राजकुमार को सीखना होता है।
कहा जाता है कि मानसिंह अपने बाल्यकाल में नित्यप्रति भागवत, गीता और रामायण का पाठ सुनते थे, इस निमित उनके निवास पर विशेष विद्वान पंडितों की व्यवस्था की गई। आखेट मानसिंह का विशेष शौक था, किशोरावस्था में उन्होंने अपने इस शौक को अम्बेर एवं आगरा में पूरा किया। जब आगरा में शाही प्रशिक्षण में थे तो मानसिंह ने युद्धकला में न केवल पारंगतता प्राप्त की बल्कि उन्होंने शीघ्र ही युद्ध में प्रत्यक्ष भाग लेने की इच्छा प्रकट की और उन्नीस वर्ष में ही रणथम्भौर-युद्ध में खुलकर भाग लिया।
 
रणथम्भोर मानसिंह का प्रथम युद्ध था जिसमें मानसिंह ने अपने युद्ध-कौशल का परिचय दिया। बस अब क्या था, अकबर ने इसके बाद मानसिंह को गुजरात अभियान में अपने साथ लिया। संयोग से इस अभियान में एक ऐसा क्षण आया जब अकबर के प्राण संकट में पड़ गये थे तब मानसिंह की चुस्ती-फुर्ती के कारण अकबर अपनी प्राण-रक्षा कर सका। उसके बाद मानसिंह के युद्ध-कौशल से ही यह अभियान सफल रहा और विजयश्री प्राप्त की। अकबर ने उसके शौर्य और कौशल का पुरस्कार भगवन्तदास और मानसिंह को 'नकारा-निशान' सम्मान के रूप में दिया।
ऐसा ही एक और अवसर मानसिंह को प्राप्त हुआ। एक बार जब सभी दरबारी बैठे थे और वीरता की बात चली तो नशे में धुत अकबर ने दीवार से तलवार लगाकर अपने सीने के द्वारा उसे मोड़ने का घातक प्रयास किया। इससे पहले कि तलवार अकबर का सीना चीर जाती, मानसिंह ने सम्राट के कोप की परवाह किये बगैर तलवार को झटक कर अकबर की प्राण-रक्षा की।
उत्त दोनों घटनाओं से एक बात स्पष्ट होती है कि मानसिंह बुद्धिमान एवं वीर प्रकृति का था। अन्यथा वह ऐसा नहीं करता। अकबर के मन में मानसिंह के प्रति एक विशेष अनुराग अथवा सम्मान घर कर गया और देखते ही देखते वह मुगल साम्राज्य का सम्माननीय व्यक्ति बन गया और अकबर के 'नव-रत्नों' में सम्मिलित हो गया।
रणथम्भोर गुजरात विजय के बाद मानसिंह ने एक के बाद एक देश के विभिन्न राज्यों में विद्रोहियों के दमन अथवा राज्य-विस्तार के अभियानों में मानसिंह ही मुख्य सेनानायक रहा। देश के बाहर काबुल आदि के आक्रमणों का नेतृत्व भी अकबर ने मानसिंह को ही सौंपा। उसने भी इस दूरस्थ क्षेत्र में मुगल झंडा लहराने में सफलता प्राप्त की और फिर अशान्त बिहार, उड़ीसा और बंगाल को विजयी कर मुगल साम्राज्य का विस्तार किया। अकबर ने बंगाल में एक सूबेदार के रूप में रहते हुए कई विद्रोहों को न केवल दबाया बल्कि उनसे इन क्षेत्रों से सदा-सदा के लिए मुक्ति भी दिलवादी। इससे उसका प्रभाव दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता गया। अगर यह कहा जाए तो कुछ भी गलत नहीं होगा कि अकबर के समय उसके अतिरिक्त यदि अन्य कोई प्रभावशाली व्यक्ति था तो वह मानसिंह था। स्वतंत्रता प्रिय एवं पूर्णं हिन्दू-संस्कारी व्यक्तित्व
बादशाह की निष्ठापूर्वक सेवा करने के बावजूद वे मन से पूर्ण-रुपेण हिन्दू थे। इसका परिचय उन्होंने अनेक बार दिया। अकबर द्वारा स्थापित दीन-ए-इलाही धर्म स्वीकार करने से स्पष्ट मना करते हुए कहा था कि मुझे अपने हिन्दू धर्म में कोई कमी दिखाई नहीं देती है, मैं आपके लिए प्राण दे सकता हूँ किंतु धर्म नहीं दूंगा। यह कोई कम बात नहीं थी कि उस समय विश्व के सर्व शक्तिमान शासक को उसका एक मातहत दरबारी इस तरह स्पष्ट मना कर दे।
उत्त बात तो वह बात थी जिससे उनके निभींक व धर्मपरायण व्यक्तित्व होने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है लेकिन उनके धार्मिक अनुराग की और भी कई झलकियां इतिहास के पन्नों पर दृश्यवान है जिनसे जन सामान्य अब तक अनावगत है। उदाहरणार्थ चित्तौड़ विजय के समय उन्होंने मीरांबाई के उपास्य देव भगवान कृष्ण की प्रतिमा आम्बेर लाकर भव्य जगत शिरोमणि मन्दिर में प्रतिष्ठापित की थी। आम्बेर में शिलादेवी की धूमधाम से प्रतिष्ठा के अतिरिक्त वृंदावन में अपार धन व्यय करके गोविन्ददेवजी के भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जो आज भी वृंदावन का एक आकर्षण है। श्री आनन्द शर्मा ने अपने लेख 'अपराजेय योद्धा राजा मानसिंह' में ग्राउस के माध्यम से इसे उत्तर भरत का भव्यतम भवन माना है। बिहार व बंगाल में जब मानसिंह सूबेदार थे, कई ऐसे ही निर्माण करवाये अथवा कई जर्जर होते धार्मिक स्थलों का जीणोंद्वार करवाया, यथा-बैद्यनाथ धाम में 'मानसरोवर, बिहार के मानसून परगने के पारा ग्राम में दो मन्दिरों व तेलकूपी ग्राम के अनेक मन्दिरों को नया स्वरूप प्रदान किया। 'घाड़ की गैर' ग्राम में एक विशाल देवालय व सात छोटे मंदिरों और पटना में पड़े देवियों के मंदिर मानसिंह की धार्मिक निष्ठा को व्यक्त करते हैं। यहीं गंगा के तटपर अपनी माता भागवंती देवी के दाहस्थल पर खड़ा भव्य गौरी-शंकर मंदिर और काशी का मान मंदिर (इसका उल्लेख जहांगीर ने अपनी आत्मकथा में भी किया है) तथा बरसाना के पहाड़ पर बनवाया। विशाल एवं कलात्मक 'राधा मंदिर' आज भी इस यशस्वी नरेश के धर्मपरायण होने के जीवन्त प्रमाण है। ऐसे ही स्मारक, 'नीलकंठ महादेव' का मंदिर और साथ में सात कुएं ओर सरोवर का निर्माण उनके मन की धार्मिकता के साथ जनहितार्थ चिंतन को भी दर्शाता है, चूंकि कुएं व सरोवर जन-हितार्थ ही होते हैं। यही नहीं, प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ पुरी के विख्यात जगन्नाथ मंदिर का जीणोद्धार भी इस महापुरुष के हाथों हुआ और यहीं बना 'मुक्ति मंडप' आज भी उनके धार्मिक एवं स्थापत्यप्रेम की कहानी कहता हमारे सम्मुख उपलब्ध है।
ऊपर दर्शाये स्थलों के पीछे हमारा यहाँ यह जतलाना है कि मानसिंह वैसा नहीं था जैसा आज जन सामान्य में प्रचलित है। यह तो उस समय की राजनीतिक मजबूरी थी जो उसे मुगल साम्राज्य की सेवा में रहना पड़ा था। अन्यथा मानसिंह स्वयं स्वतंत्रता प्रिय व धर्मवान शासक था। मैं यहाँ पुन: हल्दी घाटी के युद्ध की बात कर रहा हूँ जिसमें कहने को मानसिंह और महाराणा प्रताप के बीच संघर्ष हुआ था लेकिन पाश्र्व में ऐसे कई प्रसंग है जिनकी गहराई में यदि जाएं तो स्पष्ट हो जाता है कि मानसिंह ने प्रताप को हर तरह से मदद की थी, चूंकि वह चाहता था कि कम से कम एक हिन्दू शासक ऐसा हो जो मुगल साम्राज्य से स्वतन्त्र हो। यही कारण था कि मुगल सेना के खमनोर पहुँचने के उपरांत भी तुरंत युद्ध प्रारम्भ नहीं किया। प्रताप को तैयारी का समय दिया और बाद में भी युद्ध के मैदान से उन्हें सुरक्षित निकल जाने दिया। मानसिंह की इस मानसिकता का आभास अकबर को भी हो गया। उसने मानसिंह पर नाराजगी व्यक्त करते हुए अपने प्रिय नौरत्न की डड्योढी बंद कर दी थी। इन पंक्तियों के लेखक ने 1970 में प्रकाशित एक लेख एवं अपनी पुस्तक 'प्रात: स्मरणीय: महाराणा प्रताप' में स्पष्ट लिखा है कि महाराणा प्रताप एवं मानसिंह के बीच सद्भावपूर्ण सम्बन्ध थे जिसके कारण ही प्रताप एवं मेवाड़ को हल्दीघाटी युद्ध से पूर्व व बाद में कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ।
यह प्रसंग विशेषकर उठाया जा रहा है चूंकि मानसिंह के सम्बन्ध में जन सामान्य में अभी भी कई भ्रांतियां विद्यमान है, जबकि वास्तविकता यह है कि अगर मानसिंह अकबर के दरबार में और उसका प्रिय न होता तो शायद देश में मुस्लिम कट्टरता का तांडव नृत्य देखने को मिलता, जैसाकि स्वयं अकबर ने अपनी उपस्थिति में 1567 ई. में चित्तौड़ पर किये आक्रमण के समय किया था। बाद में उसे सही दिशा देने एवं निरंकुश नहीं होने देने में मानसिंह का विशेष योगदान रहा है जिसे हमें नहीं भूलना चाहिए।
एक और तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करना समीचीन होगा कि सामरिक इतिहास के इस सबसे तेजस्वी पुरुष के काल में आम्बेर राज्य की सीमा का प्रसार तो नहीं हुआ लेकिन वैभव और शक्ति में अपार वृद्धि हुई थी। मानसिंह स्वयं एक कवि था। अत: वे एक प्रबल योद्धा होने के बावजूद कभी भी वह क्रूर नहीं हुआ। हो भी कैसे सकते थे, कवि सदैव संवदेनशील होता है। उसके अनेक स्फुट छंद मिलते हैं। उसके राज्यकाल में आम्बेर ने अनेक कवि, पंडित, गुणीजन व कालावन्त दिये और अपार साहित्य-सृजन हुआ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि 77 युद्धों का यह नायक राजस्थान की वह विभूति है जिस पर हर राजस्थानी को गर्व का अनुभव होता है चूंकि इतिहास में ऐसा सफल समर-योद्धा युगों-युगों में होता है।

 (लेखक तेजसिंह तरुण , पुस्तक - राजस्थान के सूरमा)

 
 

शनिवार, फ़रवरी 04, 2017

रोबिन हुड श्री बलवन्त सिंह बाखासर

राजस्थान में ये नाम किसी पहचान का मोहताज नही बच्चा बच्चा जानता है सीमावर्ती गाँव बाखासर को और वहाँ के रोबिन हुड श्री बलवन्त सिंह जी । दरअसल 60 और 70 के दशक के पश्चिमी राजस्थान के सबसे बड़े डकैत जिनसे बोर्डर पार पाकिस्तानी भी ख़ौफ़ खाते थे।  दरअसल कितनी ही बार पाकिस्तानियो को गाय चोरी कर पाकिस्तान ले जाते उन्होंने रोका था।  कुछ एक को तो गोली से भी उड़ा दिया था।  1971 में युद्ध हुआ भारत पाक के बिच तक सेना को डाकू बलवन्त सिंह याद आये खुद ब्रिगेडियर भवानी सिंह बलवन्त सिंह से जाकर मिले और सेना को मदद करने की गुहार की ।

 कारण बलवन्त सिंह का ननिहाल भी पाकिस्तान था, सो वे पाकिस्तानी हिन्दुओ को बातचीत कर भारत के पक्ष में कर पाये एवम् पाक के गाँव गाँव चप्पे चप्पे का रास्ता बलवन्त सिंह जी जानते थे।  सो सेना को भी उम्मीद थी की बहुत बड़ी मदद मिल सकती थी।  बेझिझक बलवन्त सिंह जी सेना के साथ खड़े हुए अपनी पूरी डकैत टीम के साथ खुद उन्होंने बोर्डर पर मोर्चा सम्भाला एवम् उनकी सबसे बड़ी कामयाबी रही।  पाकिस्तान के छाछरो मिट्ठी थरपारकर  गाँवो के हिन्दुओ को एकत्रित किया और मनाया की इस युद्ध में भारतीय सेना का साथ दिया जाए।  उक्त गाँवों के लोगो ने बिना शर्त खुलकर भारतीय सेना का साथ दिया।  और पाकी सेना के एक एक ठिकाने की बंकर  की पूरी जानकारियां इंडियन आर्मी को दी जिस कारन हम 1971 में एक बड़ी जीत हासिल कर पाये।  बाद में खुद तत्कालीन प्रधान मंत्री तक बलवन्त सिंह जी बाखासर द्वारा मदद के किस्से पहुंचे तो उन्होंने बलवन्त सिंह जी के सर पर जितने भी डकैती के केस थे सब फौरन हटाने की कार्यवाही की।  

 
4 October 2016 को भारतीय सेना एक बार फिर बलवन्त सिंह जी के घर पहुंची और उनके पोत्र रतन सिंह जी से मिली और आह्वान किया की अगर युद्ध होता है आपसे अनुरोध करते है आपके गाँव और आसपास के गाँवों को तैयार करे ताकि वे फिर से सेना की मदद कर सके।

शुक्रवार, फ़रवरी 03, 2017

महाराणा प्रताप

वीर प्रसविनी जौहर भूमि मेवाड़ ने ऐसे कई वीर-वीरागंनाओं को जन्म दिया है, जिनके साहस, शौर्य, त्याग और बलिदान की वीर गाथाओं से प्रत्येक भारतीय अपने को गौरवान्वित मानता है और ये वीर गाथाएं आज भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ है।
 
मेवाड़ की इस वीर वसुधरा ने ही 9 मई. 1540 के दिन राणा प्रताप को जन्म दिया जिसके कारण स्वयं वह धन्य हो गई। प्रताप ने जिन विपरीत परिस्थितियों में अपने देश की स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष किया, वह अपने में अनुपम एवं अनुकरणीय है। यही कारण है कि प्रताप अपने पूर्ववर्ती शासकों की तुलना में अधिक प्रसिद्ध हुए और प्रात: स्मरणीय हो गये। निसन्देह प्रताप की कुछ ऐसी उपलब्धियां थी जो इतिहास में अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है। हम यहां प्रताप की उन उपलब्धियों और चारित्रिक विशेषताओं का अध्ययन करना चाहेगें जिनके कारण प्रताप भारतीय इतिहास में एक देदीप्यमान नक्षत्र के रूप में प्रेरणा के प्रकाश स्तम्भ बन गये।
 
विषम परिस्थितियों के पथिक-प्रताप से पूर्व मेवाड़ अकबर के हाथों 1568 के चित्तौड़ युद्ध में भारी पराजय के कारण टूट चुका था और उसकी सारी शक्ति बिखर चुकी थी। यहां तक कि राजधानी चित्तौड़ भी राणा उदयसिंह के हाथों से निकल गई थी। उदयसिंह अपनी इस पराजय के सदमे को सहन नहीं कर सके और 1572 ई. मे मृत्यु को प्राप्त हो गये। पिता ही थी कि प्रताप एक शासक होते हुए भी न उनके पास पास राजधानी थी, न सेना थी और न राज प्रासाद ही था। और तो और इस विपरीत समय में उनके अनुज शक्ति सिंह, जगमाल और सगर तक अकबर के दरबार की शोभा बन गये थे, किन्तु प्रताप ने अपना धैर्य नहीं खोया। एक कुशल संगठक के रूप में प्रताप अटूट विश्वास के साथ राजगद्दी की गरिमा को बढ़ाने की दिशा में जन-शक्ति को एक सूत्र में बांधने का प्रयास करते रहे। सर्दी-गर्मी और वर्षा की चिंता किये बिना तपस्वी के रूप में उन्होंने मेवाड़ का कौना-कौना घूमा। स्वातन्त्र्य भावना को जनजन में जाग्रत कर समय को करवट दी। बहुत शीघ्र ही प्रताप राजा के रूप में नहीं बल्कि एक जन-नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। एक नये उत्साह का संचार हुआ और शीघ्र ही प्रताप 1576 ई. में अकबर को इतिहास प्रसिद्ध हल्दीघाटी की रणभूमि में सशक्त चुनौती देने के निमित प्रस्तुत हुए। इस चुनौती से पूर्व प्रताप मेवाड़ को एक राज्य का स्वरूप प्रदान कर चुके थे। भामाशाह आदि कुशल प्रशासकों के सहयोग से प्रताप ने बिखरे हुए मेवाड़ को एक सशक्त राज्य बना दिया था। जो कि उस समय की परिस्थितियों में बहुत कठिन कार्य था।
 
स्वतन्त्रता एवं साहस के प्रतीक-अकबर अपने समय में विश्व का सर्व शक्तिमान सम्राट था। मेवाड़ उसके विशाल साम्राज्य की तुलना में कुछ भी नहीं था, किन्तु प्रताप स्वतन्त्रता प्रिय थे। उन्हें अधीनता स्वीकार नहीं की। प्रताप ने अपने वीरोचित स्वभाव के अनुकूल अकबर को चुनौती देकर सचमुच में सबको आश्चर्य चकित कर दिया था। जयपुर, जोधपुर, गुजरात और मालवा की कई बड़ी शक्तियां अकबर के आगे घुटने टेक चुकी थी। अकबर प्रताप के इस साहस । पर स्वयं अचम्भित था। जब प्रताप झुकने को तैयार नहीं हुए तो उसने अपने कुशल सेनापति मानसिंह को प्रताप की शक्ति को समूल रूप से नष्ट करने के लिए भेजा। किन्तु क्या हुआ ? युद्ध भूमि पर उपस्थित स्वयं अकबर के दरबारी लेखक बदायूंनी ने भी अपनी नैतिक पराजय को स्वीकार किया है। अन्य प्रमुख मुस्लिम लेखक अबुल फज़ल ने प्रत्यक्ष में तो पराजय नहीं स्वीकारी किन्तु युद्ध के बाद मानसिंह को अकबर द्वारा दी की गई प्रताड़ना का उल्लेख कर पराजय का संकेत दिया है। राजपूत स्रोत तो प्रताप की जीत का स्पष्ट उल्लेख करते ही हैं जिनमें जगदीश के मन्दिर की प्रशस्ति में तो प्रताप की विजय का स्पष्ट वर्णन है।
 
इस प्रकार असम्भव सम्भव हो गया। प्रताप ने हल्दीघाटी को अमर कर दिया और हल्दीघाटी की युद्ध भूमि ने प्रताप को भारतीय इतिहास में स्वातन्त्र्य  भावना का प्रेरणा स्तम्भ बना दिया। सचमुच में हल्दीघाटी के युद्ध की ख्याति का मूल कारण प्रताप द्वारा स्वतन्त्रता के लिए लड़ना था। ये तो प्रताप ही थे जो संघर्ष कर गये, अन्यथा अकबर से मेवाड़ जैसे छोटे राज्य द्वारा लोहा लेना उस समय कल्पना से बाहर की बात थी। इसी साहस के कारण प्रताप आज हम सबके लिए प्रात: स्मरणीय है।
 
रण-कौशल में नये मूल्यों के प्रणेता-प्रताप जहां एक कुशल संगठक और स्वातन्त्र्य भावना के अमर साधक के रूप में विख्यात हुए वहाँ रण-कौशल में भी उन्होंने कुछ नये मूल्यों की स्थापना की। प्रताप से पूर्व के राजपूती शासक मैदानी युद्ध की ही परम्परा का अनुसरण करते रहे थे, किन्तु प्रताप प्रथम शासक थे जिन्होंने गुरिल्ला युद्ध पद्धति का प्रयोग कर अकबर को लोहे के चने चबाने को मजबूर कर दिया। अकबर जैसे शक्ति शाली सम्राट का सफल न होने का मुख्य कारण प्रताप की गुरिल्ला युद्ध-पद्धति ही थी। इसी प्रकार प्रताप से पूर्व राजपूत शासक दुश्मन से घिर जाने पर युद्ध भूमि नहीं छोड़ते थे, किन्तु प्रताप ने इस लीक से हटकर एक नई दिशा दी और संघर्ष को अनवरत रखने के लिए दुश्मन की सेना द्वारा घेरे जाने पर उन्होंने हल्दीघाटी का मैदान छोड़ दिया था।
 
यही नहीं, प्रताप से पूर्व युद्ध करने का मुख्य दायित्व राजपूत सरदारों पर होता था। प्रताप ने यहा भी एक क्रान्तिकारी कदम उठाया और प्रथम बार अपने राज्य की सभी जातियों को सेना में स्थान दिया। विशेषकर उन्होंने मेवाड़ के बहुसंख्यक आदिवासियों का जिस तरह सहयोग लिया, निसन्देह उनकी पैनी दृष्टि का परिणाम ही कहा जायेगा। आदिवासी पहाड़ी जाति होने के कारण मेवाड़ की पहाड़ियों में युद्ध के लिए ये लोग बहुत ही सक्षम आदिवासी। अगर यह कहा जाए तो कोई गलत बात नहीं होगी कि प्रताप की सफलता का मुख्य राज ये आदिवासी ही थे। प्रताप ने भी इस बहादुर जाति के प्रति पूरा सम्मान दर्शाया और इस जाति के मुखिया को अपने समकक्ष 'भीलू राणा' के खिताब से विभूषित कर दरबार में बराबर का स्थान दिया, जिसकी कल्पना भी राजतन्त्र में नहीं की जा सकती थी। प्रताप ने ऐसा कर निसन्देह उस समय के राजतन्त्र को एक नई दिशा दी। प्रताप के बाद आज तक उनके वंशज इनके के प्रति प्रताप के ही समान पूर्ण सम्मान दर्शाते रहे हैं।
 
इस प्रकार प्रताप मेवाड़ राज्य पर ही नहीं अपितु सम्पूर्ण देश पर अपने अप्रतिम स्वतन्त्रता संघर्ष, असीम धैर्य, त्याग एवं बलिदान की एक चिर-स्मरणीय छाप छोड़ गये हैं। उनके इन्हीं विशेष गुणों के कारण प्रताप स्वतन्त्रता प्रेमियों के लिए चिर-प्रेरणा स्रोत एवं जन-जन में वन्दनीय हैं तथा रहेंगे।
 
आवश्यकता हल्दी घाटी-युद्ध के पुनर्लेखन को-चार सौ वर्षों से अधिक बीत जाने पर भी अगर किसी देश का इतिहास-दोष यथावत रहता है तो निसन्देह वह उस देश का दुर्भाग्य ही कहलाता है। हमारे देश में यह विडम्बना ही रही है कि यहां का इतिहास बहुत तोड़-मोड़ कर लिखा गया है। लगभग सभी इतिहासकार इस तथ्य पर एक मत है कि भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन आज की एक बड़ी आवश्यकता है।
 
राजतन्त्र में शासकों की उदासीनता और बाद में अंग्रेजों ने योजनाबद्ध भारतीय इतिहास को तोड़ा-मोड़ा और कई वास्तविक तथ्यों को ओझल कर दिया। यही प्रहार प्रताप और उनके इतिहास प्रसिद्ध हल्दी घाटी युद्ध के साथ भी हुआ। आज हमारे विद्यार्थी हल्दी घाटी युद्ध के परिणाम के बारे में जो कुछ पढ़ रहे है। वह नितान्त गलत है। जबकि स्वयं तत्कालीन मुस्लिम लेखक अबुल फज़ल और बदायूंनी जो युद्ध के मैदान में और मेवाड़ से आगरे तक की वापसी का एक प्रत्यक्षदर्शी लेखक है, अपने ग्रंथ मुंतखुबउतवारिख (जि. 2, पृष्ठ 238) पर लिखता है कि हमारी जो फौज पहले हमले में ही भाग निकली थी, नदी (बनास) को पार कर 5-6 कोस तक भागती ही रही.मानसिंह के वे राजपूत, जो हरावल में थे भागे, जिससे आसफ खां (दूसरा प्रमुख सेनापति) को भी भागना पड़ा और उन्होंने दाहिने पाश्र्व के सैय्यदों की शरण ली। यदि इस अवसर पर सैय्यद लोग टिके न रहते तो हरावल के भगे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार होती।'
 
अलबदायूंनी के उपर्युक्त कथन में स्पष्ट संकेत मिलता है कि शाही सेना की पराजय हुई, केवल बदनामी से बचने की बात कहता है। एक दरबारी लेखक होने के कारण उसका ऐसा कथन स्वाभाविक है। ऐसा ही एक कथन स्वयं अबुल फज़ल का है जो न केवल व दरबारी लेखक ही था बल्कि अकबर के नौ रत्नों में भी था। वह लिखता (अकबर नामा, अंग्रेजी अनुवाद, जिल्द 3, पृष्ठ 246) है कि-'सरसरी तौर से देखने वालों को तो राणा की जीत नजर आती थी, इतने में ही एकाक शाही फौज की जीत होने लगी, जिसका कारण यह हुआ कि सेना में यह अफवाह फैल गई कि बादशाह स्वयं आ पहुंचा है। इससे बादशाही सेना में हिम्मत आ गई...।"
अबुल फज़ल के इस कथन में भी स्पष्ट है कि शाही सेना की हिम्मत टूट चुकी थी। आगे जो कुछ वह लिखता है मात्र अपने संरक्षक के प्रति सम्मान दर्शाना था। चूंकि बदायूंनी युद्ध के उपरांत वापसी के समय का वर्णन करते हुए जो लिखता है उससे स्पष्ट है कि उस समय के जनसामान्य में भी प्रताप की जीत का ही समाचार फैला हुआ था। वह लिखता है कि-'मैं बाकोर (बागौर) और मांडलगढ़ होता हुआ आम्बेर पहुंचा। लड़ाई की खबर सर्वत्र फैल गई थी, लेकिन मार्ग में उसके सम्बन्ध में मैं जो कुछ कहता, उस पर लोग विश्वास नहीं करते हैं। 
 
अत: दोनों मुस्लिम लेखक जिन्होंने अप्रत्यक्ष में लेखकीय धर्म का निर्वाह करते हुए युद्ध में प्रताप के पक्ष को प्रबल माना और अपने कथनों में वास्तविकता को समझाने के लिए बहुत कुछ स्पष्ट संकेत दिये हैं। जो अगर प्रताप का पक्ष कमजोर होता तो ये बढ़ा-चढ़ा कर उल्लेख करते जो उस समय के दरबारी लेखकों से अपेक्षित था, किन्तु ऐसा कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। बल्कि कुछ और भी ऐसे तथ्य दोनों लेखकों ने दिये हैं जिनसे भी स्पष्ट होता है कि हल्दी घाटीयुद्ध में अकबर सफल नहीं हो सका। चूंकि दोनों ही लेखकों ने इस युद्ध के बाद मानसिंह की ड्योढी बन्द करने व उसे भरे दरबार में फटकारने का भी उल्लेख करते हैं। स्मरण रहे कि मानसिंह उस समय के दरबारियों में सबसे बड़ा मनसबदार था। उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त उदयपुर नगर में स्थित जगदीश के मन्दिर की प्रशस्ति और 'राणा रासो' में हल्दी घाटी युद्ध में प्रताप की विजय का स्पष्ट उल्लेख है।
 
इतना सब कुछ स्पष्ट होने पर भी अभी तक देश की पाठ्य पुस्तकों में हल्दीघाटी के युद्ध के बारे में गलत-सलत क्यों पढ़ाया जा रहा है? यही एक ऐसा प्रश्न है जो आज विचारणीय है। इतिहास तो सत्य तथ्यों की खोज का ही दूसरा नाम है। जाति धर्म और देश इसमें बाधक नहीं बनने चाहिए।
 
पराक्रम एवं शौर्य का प्रतीक दिवेर का युद्ध-अकबर ने सोचा भी न था कि हल्दी घाटी के युद्ध का यह परिणाम होगा। पराजय उस समय अकबर को असहनीय थी लेकिन इस युद्ध के बाद उसे यह स्वीकार करना पड़ा कि प्रताप को अधीन करना बहुत कठिन है। यही कारण है कि 1580 ई. के मध्य शाहबाज खां को मेवाड़ से बुला लेने के बाद मेवाड़-विरोधी मुगल सैनिक कार्यवाहियों में शिथिलता आ गई। बस, जगह-जगह मुगल थाने बिठा दिये और इन पर बैठे सैनिकों को राणा का पीछा करते रहने के निर्देश थे। महाराणा प्रताप ने इस मुगलिया उदासीनता का लाभ लिया और गोगुंदा, कुंभलगढ़, उदयपुर सहित कई थानों पर अधिकार कर लिया वे शीघ्र ही दिवेर के थाने पर अधिकार करने के उद्देश्य से आगे बढ़े। सामरिक दृष्टि से इस थाने का बहुत महत्व था। डॉ. देवीलाल पालीवाल के शब्दों में यह मेवाड़ में प्रवेश करने वाली मुगल सेना का पहाड़ी प्रवेश-द्वार था। यही कारण है कि अन्य थानों के मुकाबले यहाँ मुगल सेना भी अधिक थी और अकबर इसकी सुरक्षा का दायित्व भी अपने विश्वस्त व्यक्तियों के कंधों पर था।
 
महाराणा प्रताप को भी इसका पता था कि दिवेर पर विजय प्राप्त करना कोई सरल कार्य नहीं है, इसलिए उन्होंने भी अपने पुत्र अमरसिंह, भामाशाह जैसे विश्वस्त वीरों के साथ वनवासी लड़ाकों के साथ दिवेर पर धावा बोला। अब तक प्रताप की युद्ध नीति में परिवर्तन आ चुका था। उन्होंने आमने-सामने और घोषित युद्ध करने की जगह जहाँ जब अवसर देखा वहीं आक्रमण करने की नीति अपनाली थी। दिवेर का यह युद्ध भी इसी नीति का हिस्सा था। सही भी था उनका ऐसा करना। दिवेर पर अचानक आक्रमण का परिणाम था कि बड़ी संख्या में मुगल सैनिकों के होते हुए भी वे सम्भल नहीं पाये और भाग खड़े होने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। सामने आया वह गाजर-मूली की तरह कट मरा। स्वयं प्रताप के सामने मुगलियां प्रमुख बहलोल खां आया तो वो एक ही बार में घोड़े सहित मारा गया। ऐसे ही दिवेर का थाना प्रमुख एवं अकबर का चाचा सुल्तान खां कुंवर अमरसिंह के बछे के जोरदार वार का शिकार हो गया। इस युद्ध में भामाशाह एवं उसके भाई ताराचंद ने भी अपने अद्वितीय वीरता का परिचय दिया। अन्य राजपूत एवं वनवासी वीरों ने इस युद्ध में भी जिस बहादुरी का परिचय दिया वह उल्लेखनीय है।
 
वर्तमान में भीम और अजमेर के मध्य स्थित दिवेर ग्राम से दो-तीन किलोमीटर दूर स्थित तत्कालीन दिवेर थाने के अवशेष आज भी विद्यमान है और प्रताप के अदम्य साहस की कहानी कहते खड़े हैं। यही वह युद्ध था जिसके बाद से अकबर मेवाड़ को अधीन करने की बात भूल सा गया और प्रताप ने पुन: मेवाड़ पर अधिकार करने का लक्ष्य बनाया जो 1597 ई. में अर्थात् अपनी मृत्यु से पूर्व तक बहुत कुछ प्राप्त करने में सफल रहे। सच तो यह है कि इस युद्ध की सफलता ने मेवाड़ के शौर्य, पराक्रम और साहस की। थाती में चार चांद लगा दिये थे।
 
 
(लेखक तेजसिंह तरुण राजस्थान के सूरमा” )

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