सोमवार, दिसंबर 31, 2012

द्रोपदी

क्षितिज की
खोहों तक
पसरा सन्नाटा और
शाखाओं पर बैठे 
शोकाकुल पक्षी,
देकर  उलाहना
भौर की लालिमा को ,
को बता रहे हैं
बीती  रात
का वो स्याह सच ,
और दिखा रहे है
इशारों से
धरा का  वो
सलवटी हिस्सा
जिस पर मिलकर ,
दुशासनों ने
जी-भरकर ,
नोचा-खसोटा और
फेंक दिया जूठन सा
एक द्रोपदी को , मगर
सुनकर उसका 
कारुणिक क्रंदन
नहीं आया कहीं से
एक भी देवकीनंदन

-विक्रम

शनिवार, दिसंबर 15, 2012

तनहा सा मकान

सूनी-सी  पगडण्डी के
दुसरे  छोर पर ,
वो  तनहा  सा मकान
खड़ा है संजोये अतीत के
कुछ हसीन लम्हे,
निस्तेज, निस्तब्ध ,सुनसान !
उसकी बूढी दीवारों पे
हरी काली सिवार ,
लिपटी है लिए,
मिलन बिछोह के निशान .
टूटकर झूलता वो दरवाजा ,
किसी ने थामकर जिसे ,
गुजारे थे इन्तजार के
वो बोझिल लम्हे तमाम
-विक्रम 

शनिवार, नवंबर 24, 2012

घुसपैठ


मेरे तन्हा मन पे
निरन्तर होती है
घुसपैठ
तेरी यादों की,
और देर तक
होता है संघर्ष
टूटे ख्वाबों
को लेकर  ,
आखिरकार
पानी ज्यों बहते है
अश्क दोनों के, 
क्यों ना हम
मिलकर एक
समझौता करें, की ,
उधर तुम ,
अपनी यादों को
बांध के रखो ,
और इधर में,
करता हूँ कोशिश
बहलाने की,
इस  मासूम
दिल को।   

"विक्रम"

मंगलवार, नवंबर 13, 2012

मिठाई

अस्पताल के बरामदे मे अपनी बारी  के इंतजार मे खड़ा  बुधिया  बड़ी उत्सुकता से छोटी होती लाइन को देख रहा था। वह बार बार बैठकर अपनी थकान मिटाने की कोशिश कर रहा था। पिछले पाँच दिन से उसे कुछ भी काम नहीं मिला थे , जिसके चलते 3 दिन से घर मे चूल्हा भी नहीं जला।


 तुम !” , डॉक्टर ने उसे पहचानते हुये कहा। तुमने तो दो हफ्ते पहले खून दिया था ना? 

जी... हाँ डॉक्टर साहब, बुधिया ने दीनता से मुस्कराकर  हाथ जोड़ते हुये कहा ।

 लेकिन..... तुम इतनी जल्दी दुबारा खून नहीं दे सकते

 साहब , दया कीजिये , मेरा खून देना जरूरी है । मुझे पैसों की सख्त जरूरत  है। “ , बुधिया ने डॉक्टर के पैरों की तरफ हाथ बढ़ाते हुये कहा।


“नहीं” ,डॉक्टर ने बिना उसकी तरफ देखे इंकार ए सिर हिलाते हुये कहा।

“.....”,बुधिया  ने डॉक्टर के पैरों के पास बैठते हुये हाथ जोड़कर लगभग रो देने वाले अंदाज मे विनती की।  

 “लेकिन ऐसे इतनी जल्दी दुबारा खून देने से तुम्हें बहुत कमजोरी महसूस होगी, तुम्हारी सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा। , डॉक्टर ने उसे समझाया ।

 

 “लेकिन मे ठीक हूँ , देखिये , बुधिया ने खड़े होकर अपना सीना आगे की तरफ निकालकर  ताकत दर्शाते हुये कहा ।
 

डॉक्टर ने नर्स की तरफ उसका खून लेने का इशारा किया । इशारा पाते  ही बुधिया मुस्कराता हुआ नर्स के पीछे पीछे चल पड़ा।
 

खून देने के बाद काउंटर से पैसे लेते वक़्त  बुधिया के चेहरे पे मुस्कान और गहरी हो गई और अस्पताल से बाहर आकार तेज़ कदमों से मिठाई की दुकान की तरफ बढ़ गया।  सुबह जब आस पड़ोस मे एक दूसरे के घरों मे दिवाली की मिठाइयों का आदान प्रदान हो रहा था तो उसके तीन से भूखे बच्चे ललचाई नजरों से उन्हे देख रहे थे ।  

/AK    

 

 


    
 

 


-विक्रम  
 

सोमवार, नवंबर 05, 2012

बेटी



“तूँ किससे शादी करेगी?” , नन्हें रिंकू ने अपने साथ झूले पे बैठी निक्की से पूछा।
“मेँ तो तुझसे ही शादी करूंगी”, मासूम निक्की ने बेपरवाही से जवाब दिया।

नन्हा रिंकू उसका जवाब सुनकर खामोश हो गया। दोनों बच्चे पार्क मे बने झूले पे झूल रहे थे। आज सामने वाले शर्मा जी के लड़की की शादी थी। चारों तरफ बहुत गहमा गहमी थी। बारात आने के बाद बैंड बजे का शोर शराबा लगातार तेज़ होता जा रहा था।

“आज रश्मि दीदी खेलने  क्यों नहीं आई ?”, रिंकू ने निक्की से पूछा।

“आज रश्मि दीदी की शादी है ना , इसीलिए नहीं आई ”, निक्की ने  कहा।

क्या शादी के बाद वो हमारे साथ खेलने आएंगी ?”

“बुद्दू !, शादी के बाद वो दूर चली जाएंगी”

“कहाँ ?”

“अपने दूल्हे के साथ”, निक्की का जवाब सुनकर नन्हा रिंकू खामोश हो गया।

लेकिन मेँ तो तुम्हारे साथ दूर नहीं जा पाऊँगा, मम्मी जाने नहीं देगी”,कुछ देर की खामोशी के  बाद रिंकू ने कहा। 

“लेकिन तब तक तो तुम बड़े हो जाओगे और बड़े होने के बाद मम्मी पापा कहीं भी आने जाने को मना नहीं करते। “

नन्हा रिंकू फिर से निक्की के तर्क पर खामोश हो गया।

“शर्मा जी ने अपनी इकलोती बेटी की शादी मे अपना प्रोविडेंट फंड और जमा पुंजी का सब पैसा लगा दिया थादूल्हा अजय डॉक्टर था। शर्मा जी की लड़की रश्मि एक स्कूल मेँ पढ़ाती थी। शर्माजी काफी धार्मिक पृवर्ती के इंसान थे इसीलिए कॉलोनी मे उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी।

दिनभर शादी के कार्यकर्मो मे व्यस्त रहे शर्माजी बेटी की विदाई के वक्त बच्चे की तरह सुबक पड़े। रश्मि उनकी बेटी ही नहीं बल्कि एक दोस्त जैसी थी। जब रश्मि 5 साल की थी तभी उनकी पत्नी की मृत्यु हो गई थी। परिवार वालों के लाख समझाने पर भी शर्माजी ने दूसरी शादी नहीं की। उन्होने रश्मि को माँ बनकर पाला था। जवान होने पर रश्मि घर की ज़िम्मेदारी मे पिता का हाथ बंटाने लगी। वो अपने पिता का भी पूरा ख्याल रखती थी। वो एक माँ की तरह अपने पिता की देखभाल करती थी। जब कब शर्माजी काम की अधिकता के चलते वक़्त पे खाना नहीं खा पाते तो उन्हे रश्मि के गुस्से का सामना करना पड़ता। रश्मि के डांट-डपट मेँ शर्माजी को कभी अपनी स्वर्गवासी पत्नी तो कभी अपनी माँ की झलक मिलती , जब कभी वक़्त पे खाना ना खाने पर उनकी माँ या उनकी पत्नी उन्हे डांटती थी।

भारी मन से बाप-बेटी  समाज और प्रकृति के बनाए नियम के तहत एक दूसरे से बिछड़ गए। एक बाप के घर को वीरान करके बारात उसी बैंड बाजे के साथ चली गई जिस बैंड बाजे के साथ कुछ देर पहले खुशियाँ लेकर आई थी।

शादी के दो माह बाद रश्मि पिता से मिलने आई । हरदम चहकने वाली रश्मि अब काफी खोई खोई सी लग रही थी। पिता के लाख पूछने पर भी उसने बस ये कहकर बात टाल दी की सफर की थकावट की वजह से ऐसा हैं। एक दिन ठहरकर रश्मि वापिस अपनी ससुराल चली गई , मगर बूढ़े पिता ने बेटी की आंखो मे छुपे दर्द को पढ़ लिया था।

दो दिन बाद फिर से रश्मि आई तो शर्मा जी को एहसास हो गया की कुछ गड़बड़ है। उन्होने बेटी से पूछा मगर रश्मि फिर टाल गई और बोली को स्कूल मे हिसाब के कुछ पैसे बाकी थे वो लेने आई हूँ। शर्मा जी बेटी की आवाज मे छुपे दर्द को अनुभव कर रहे थे।  

“ठीक है कल मेँ भी चलता हूँ तूमहरे साथ तुम्हारे स्कूल, अभी थोड़ा बाजार से सामान लेता आऊं”, कहकर शर्माजी साइकिल लेकर बाहर निकल गए।

वापिस आए तो उनकी लाड़ली उन्हे सदा के लिए छोड़कर जा चुकी थी। रश्मि का शरीर पंखे से लटक रहा था। नीचे बिस्तर पर स्टैम्प पेपर के साथ सुसाईट नोट पड़ा था।  ससुराल वाले रश्मि पे लगातार दवाब बना रहे थे की अपने पिता का मकान अजय के नाम करे ताकि अजय वहाँ डिस्पेन्सरी खोल सके।

पूरी कॉलोनी मे शोक की लहर दौड़ गई। जिसने भी सुना वो शर्मा जी के घर की तरफ दौड़ पड़ा।

रिंकू आज झूले पे अकेला ही था। निक्की ने उसे  कह दिया की वो अब लड़को के साथ नहीं खेलेगी।

विक्रम”


बुधवार, अक्तूबर 24, 2012

रेवती चाची



चित्र गूगल आभार 
रेवती चाची बीस साल की उम्र मे विधवा हो गई थी। पति की मौत के वक़्त वो पेट से थी। अपने से दस साल बड़े शराबी जगन से शादी होने के बाद उसका दो साल का वैवाहिक जीवन कष्टपूर्ण ही रहा। रोज रोज जगन का शराब पीकर घर आना और रेवती से मार पीट करना। घर के इसी घुटन भरे माहौल से परेशान होकर शादी के सालभर बाद जगन की माँ भी चल बसी थी। उसके पिता तो उसकी बाल्यवस्था  में ही भगवान को प्यारे हो गए थे।

माँ के लाड़-प्यार ने इकलौते जगन को जरूरत से ज्यादा आज़ादी दी थी जिसकी बदौलत बचपन से जिद्दी जगन जवानी मे कदम रखने से पहले ही शराबी बन चुका था। परिवार और मोहल्ले वालों के समझाने पर  जगन की माँ ने उसके फेरे करवा दिये, सोचा पैरों मे बेड़िया पड़ेंगी तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी। अपनी  घर गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ निभाने लगेगा तो शराब की आदत स्वत: छूट जाएगी।

शादी के बाद भी जगन की हरकतों मे बदलाव की गुंजाइस नजर नहीं आई और इसी कशमकश से परेशान होकर एक दिन उसकी माँ भी चुपके से भगवान के पास चली गई। रेवती का एक मात्र सहारा भी चला गया। दोनों सास बहू अपने बुरे वक़्तों को साझा कर लिया करती थी मगर अब तो सारे दुख रेवती को अकेले ही वहन करने होंगे।

घर में पैसे की तंगी आई तो रेवती ने सिलाई मशीन से अपना और अपने शराबी पति का भरण-पोषण करना शुरू किया। आधे से ज्यादा पैसे तो जगन की शराब मे ही चले जाते। कभी कभार बिना खाये ही गुजारा करना पड़ता। लेकिन उसे मार जरूर खानी पड़ती। कभी खाना न होने पर तो कभी खाना खाने के लिए कहने पर। अपने नसीब को कोसती वो इस इंतजार मे संघर्ष करती रही की सायद अच्छे दिन कभी तो आएंगे।

एक रात जगन घर नहीं आया ,किसी ने सुबह उसे बताया की जगन गाँव के बाहर चौराहे में पड़ा है और गाँव वाले उसको घेर कर खड़े हैं। वो तुरंत बताने वाले के साथ उस तरफ चल पड़ी। सामने से कुछ लोग जगन को कंधे पे उठाए ला रहे थे। गाँव की औरतों ने रेवती चाची को रोक लिया और उसको उसके घर में ले आई। जगन को घर के बाहर चबूतरे पर लिटा दिया। गाँव की औरते रेवती को पकड़ जगन के पास ले आई और उसके दोनों कलाइयों से चुड़ियाँ तोड़कर जगन पे डाल दी। अचानक हुये इस हादसे ने रेवती को हिलाकर रख दिया था।   

जगन के बरहवीं के कुछ दिन बाद रेवती के भाई उसको अपने साथ ले गए। मगर माँ के घर में स्वेन्दनाओं के पाँच साल गुजरने के बाद रेवती का बुरा वक़्त फिर उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसकी माँ के देहांत के कुछ माह बाद ही घर का माहौल बदले लगा। वही भाभियाँ जो रेवती दीदी कहते नहीं थकती थी अब उस से किनारा करने लगी थी। अक्सर बात बात पे ताने मिलने लगे।  
थक हार कर अपने चार साल के बेटे विनोद को ले ससुराल मे आ गई। वो ससुराल जहां उसके सिवा उसका कोई नहीं था। अपने बंद पड़े मकान को साफ सुथरा करके वो जीवन से संघर्ष करने निश्चय कर  चुकी थी। अपनी बंद पड़ी सिलाई मशीन को हथियार बना वो कर्मयुद्ध को तैयार थी। अपनी माँ से दहेज स्वरूप मिली ये मशीन उसके जीवन यापन का एक मात्र सहारा थी।

बचपन से हमने रेवती चाची को संघर्ष करते ही देखा था। आज अपने बच्चे को पालने और लिखाने पढ़ाने की ज़िम्मेदारी निभा रही थी मगर चेहरे पे सिकन तक नहीं थी। जब भी हमारे घर आती थी उसका चार पाँच साल का बेटा विनोद उसके पल्लू से चिपका रहता था। वही उसके बुढ़ापे का एकमात्र सहारा था। विनोद कल को जवान होकर अपनी माँ की जिम्मेदारियाँ अपने कंधो पे उठा लेगा तो जीवन भर संघर्ष करती रेवती को आराम मिलेगा।  

वक़्त अपनी गति से गुजरता रहा। विनोद जवानी की देहलीज पे कदम रख चुका था। माँ की मेहनत रंग लाई और उसे एक कंपनी मे अच्छी पगार पे नौकरी भी मिल गई। रेवती चाची के दुखों का अंत हो गया था। वो अपनी खुशी को दोगुना करना चाहती थी। उसने विनोद की शादी करदी और घर में दुल्हन के आने से चहल पहल बढ़ गई थी। वो घर जो सुना सुना सा रहता था आज भरा भरा सा लग रहा था। रेवती चाची की मेहनत आखिर रंग लाई और उसने दुखों से संघर्ष कर खुशियों को हासिल किया।
विनोद की शादी के लगभग पाँच साल बाद दो दिन के लिए किसी कारणवश गाँव आया तो सोचा जाने से पहले रेवती चाची ने मिलता चलूँ। मैंने दरवाजे पे दस्तक दी तो रेवती चाची ने दरवाजा खोला, मुझे पहचानते हुये मेरे सिर पे हाथ फेरा और अंदर आने को कहा। घर के आँगन के बीचों बीच एक सिलाई मशीन रखी थी जिसके आस पास कपड़ों का ढेर पड़ा था।

“इस बार बहुत दिन बाद आए बेटे”, चाची ने पानी का गिलाश देते हुये कहाँ।
“हाँ चाची , बस ऐसे ही नहीं आ पाया “
“विनोद कहाँ है ?”, मैंने इधर उधर देखते हुये कहा।
“वो और बहू तो पिछले तीन साल से शहर में ही रहते हैं”, रेवती चाची ने मशीन चलाते हुये कहा।

कुछ देर की खामोशी के बाद में चाची को संघर्षरत छोड़कर चला आया।

   
"विक्रम"

शुक्रवार, अक्तूबर 19, 2012

सर्द सुबह की धुंध


सर्द सुबह की धुंध 
में भीगकर 
तुम चली आओ ..
इस तरफ के मौसम
अपनी तपस से 
झुलसाने लगे हैं 
उन हसीन ख्वाबों को 
और लगे हैं कुम्हलाने 
तुम्हारी यादों के 
मखमली अहसास..
अपने बदन से 
लिपटी इन मनचली
ओस की बुंदों को 
झटककर गिरा दो 
उन झुलसते लम्हों पर  
जो तन्हाईयों के बोझ
तले टूटने लगे हैं.. फिर 
समेट अपनी बाहों में 
पहुंचा दो शीतलता 
के चरमोत्कर्ष पर.. 
ठिठुरने ना देना 
 अपनी गरम 
साँसों से....मुझे

"विक्रम"

सोमवार, अक्तूबर 15, 2012

फर्क


कॉलेज छूटने के बाद  निहारिका अपने सहपाठी विकाश के जिद्द करने पर उसके साथ  पार्क मे घूमने चली गई। दोनों ने वहीं पे खाना खाया और बातों ही बातों मे कब सांझ हो गई पता ही नहीं चला।

“हमे अब चलना चाहिए विकाश “, निहारिका ने कहा।

“हाँ , चलो “, कहकर दोनों बाहर जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ गए।

घर पहुँचकर निहारिका तुरंत अपने कमरे मे गई तो पीछे पीछे  उसकी मम्मी  भी पैर पटकती हुई पहुँच गई । निहारिका को इसका पूर्वानुमान पहले से था।

“कॉलेज से आ रही हो या नौकरी से ? शाम के छ:  बज चुके है। कुछ तो ख्याल करो। “

“आज थोड़ी देर हो गई मम्मी , ....वो विकाश जिद्द करने लगा तो हम  साथ मे पार्क चले गए  फिर खाना खाने और घूमने मे वक़्त का पता ही नहीं चला” , निहारिका ने सांस छोड़कर कुर्सी पर बैठते हुये कहा 

“लड़की जात का इतनी देर तक घर से बाहर रहना और किसी पराए मर्द के साथ घूमना अच्छी बात नहीं है, किसी ने देख लिया तो लोग तरह  तरह की बातें बनाएँगे। ऊपर से मौहल्ले वालों को बैठे बिठाये  इज्जत उछालने  का मौका मिल जाएगा। “ मम्मी  उसके पास आकर फुसफुसाते हुये कहने लगी।

“लेकिन मम्मी ऐसा वैसा कुछ नहीं है, में और विकाश सिर्फ दोस्त है। और फिर उस दिन में आपके साथ बाजार गई थी तो आपने देखा की  राहुल भैया भी उस दिन एक लड़की के साथ बाजार मे घूम रहे थे”

“उसका क्या है , वो तो लड़का है “,  मम्मी उसके कंधे को हाथ से धकेलते हुये रसोई मे चली गई ।


शनिवार, अक्तूबर 13, 2012

अस्पृश्यता


चित्र मे जो आप देख रहे हैं ये मेरे गाँव का एक पुराना कुआं है जो आज से करीब पच्चीस  साल पहले बहुत आबाद  हुआ करता था ।  एक जमाना था जब इसपर एक साथ चार  रहट चलते थे और लोग अपनी बारी के इंतजार मे इसके चारों और बने चबूतरे  पर रातभर बैठे रहते थे।   

आज से करीब 20 से 25 साल पहले अस्पृश्यता बहुत ज्यादा थी, जो आज के दौर मे थोड़ा सा कम  है। ऊंच-नीच, छुआ-छुत का काफी बोलबाला था।  ऊँची जाति के लोग (खासकर  ब्राह्मण,बनिये)  नीची जाति के लोगों के पास से निकलते हुये निश्चित दूरी बनाकर निकलते थे और किसी चीज के लेन-देन के वक़्त हाथों मे एक निश्चित फासला रखते थे। मगर हँसी तब आती थी जब कोई नीची जाति का  आदमी बनिये की दुकान से कुछ खरीदने जाता तो बनिया उसके हाथ से पैसे लेते वक़्त कोई फासला नहीं रखता मगर उसके बदले समान देते वक़्त फासला बना लेता। कभी किसी नीची जाति के किसी सदस्य को किसी ऊँची जाति के घर किसी काम से जाना होता तो वो वहाँ पहुँचकर  घर के बाहर ही खड़ा हो जाता , उसको अंदर आने मे झिझक होती थी , हालांकि मैंने कभी सुना नहीं की किसी ऊँची जाति के आदमी ने उसको अंदर आने से मना किया हो , लेकिन लोगों ने अपनी धारणा कुछ ऐसी बना ली थी। ना कभी  नीची  जाति के लोगों ने  आगे बढकर इस अस्पर्शयता की दीवार को लांघने  की हिमाकत की और ना ही ऊँची जाति के लोगों ने इस दीवार की गिराने की।
...ऊँची जाति के लोग (खासकर ब्राह्मण,बनिये) नीची जाति के लोगों के पास से निकलते हुये निश्चित दूरी बनाकर निकलते थे और किसी चीज के लेन-देन के वक़्त हाथों मे एक निश्चित फासला रखते थे। मगर हँसी तब आती थी जब कोई नीची जाति का आदमी बनिये की दुकान से कुछ खरीदने जाता तो बनिया उसके हाथ से पैसे लेते वक़्त कोई फासला नहीं रखता मगर उसके बदले समान देते वक़्त फासला बना लेता।  

पानी की सतह  उन दिनों करीब सौ हाथ पे होती थी, यानि 150 फीट के आस पास। इसके आमने सामने के मुख्य भाग पे  पत्थर की बड़ी बड़ी सिलाओं  पे दो दो रहट आमने सामने लगे रहते थे । उस वक़्त इसका नाम “चार भूण (रहट) वाला कुआ” था जो आज भी वही है।  दाईं तरफ के दोनों रहट ऊंची जाति के लोगों के लिए थे और बायीं तरफ के दोनों रहटों में से एक ज्यादा नीची जाति और दूसरा कम नीची जाति के लिए आवंटित था।

ऐसा ही कुछ कुए से पानी निकालते  वक़्त होता , ज्यादा भीड़ होने पे ऊँची जाति के लोग नीची जाति वाले रहट की तरफ खिसकने लगते । चूंकि नीची जाति के लोगों की संख्या कम थी तो वहाँ भीड़ नहीं रहती थी। जब वहाँ नीची जाति के लोग नहीं होते तो ऊँची जाति वाले उस जगह पे थोड़ा पानी छिड़कते और उसके बाद अपने मटके वहाँ रख लेते। लेकिन कभी किसी का ध्यान उस तरफ नहीं गया की आखिरकार पानी तो उसी कुए से आता है  जिसमे दोनों जाति के लोगों की  रस्सी से बंधे बर्तन (डोल ) डुबकी लगाकर बाहर आते हैं। कभी कभी दोनों जातियों की रस्सियाँ और डोल अंदर आपस मे उलझ जाते और ऊपर आने पर वो अपनी अपनी रस्सियाँ अलग करके फिर से पानी खींचने मे लग जाते ।

ऐसा ही हाल कुए के बगल मे बने मंदिर में था। ऊँची जाति के लोग बड़े मजे से मंदिर के अंदर जाकर भगवान के दर्शन और पुजा-अर्चना कर  लेते थे मगर नीची जाति के लोगों के लिए मंदिर की सीढ़ियों के पास ही एक जगह निर्धारित की हुई थी जहां खड़े होकर वो “ऊँची जाति के  भगवान” की एक झलक पा लेते और वही से पूजा-अर्चना कर वापिस लोट जाते ।   

मतलब उस वक़्त मौकापरस्ती वाली छुआ-छूत थी। अगर समय है तो जात दिखाओ अन्यथा गर्दन नीची करके काम निकाल लो।  अब वक़्त ने करवट बदली है , बिजली पानी मे कुछ सरकारी दखलंदाज़ी होने से अब पानी खींचना नहीं पड़ता।   आज कभी गाँव जाता हूँ तो देखता हूँ तो वही नीची जाति के लोग जो घर के अंदर आने मे झिझकते थे आज बे-धडक अंदर आ जाते हैं और इशारा पाने पर पास रखी कुर्सी या स्टूल पे धडल्ले से  बैठ जाते हैं। हाथ मिलाना,साथ चलना तो आम हो गया। कुए की जगह अब पानी की टंकियाँ बनी है जिसमे नल लगे हैं मगर अब उन नलों  का जाति के हिसाब से बंटवारा नहीं किया गया। ये सामाजिक बदलाव की पहल वक़्त ने की है न की किसी जाति विशेष ने।

"विक्रम"

शनिवार, अक्तूबर 06, 2012

मोटापा

(चित्र आभार गूगल)

आज प्रातकल पार्क में भ्रमण के दौरान बैंच पर फैले एक बारह तेरह साल के  स्थूलकाय  बच्चे ने मुझे घूमते हुये देखकर  कहा ।

“हैलो अंकल ! वाकिंग ?”

“येस” , मैंने उसके  शरीर की थुलथुलाहट से प्रभावित होकर  बड़ी विनम्रता से मुस्करा कर जवाब दिया।

“गुड...गुड  .... कीप इट अप” , उसने मेरी तरफ “थम्स-अप” का इशारा करते हुये मुझे प्रोत्साहित किया , और अपने शरीर को नजरंदाज कर मेरी चिंता मे कुटिलता से  मुस्कराता रहा।
...उसका सीना लटककर पेट के हिस्से पे काबिज हो गया था। पेट सामने की तरफसे नीचे खिसककर कटि-क्षेत्र मे घुसपेट कर चुका था, जिससे उसके संवेदनशील हिस्से अपना अस्तित्व खोते जा रहे थे। 

इस उम्र मे ही उसका वजन अस्सी के आस  पास रहा होगा , यानी लगभग मेरे बराबर। उसका सीना लटककर पेट के हिस्से पे काबिज हो गया था।  पेट सामने की तरफ से नीचे  खिसककर कटि-क्षेत्र मे घुसपेट कर चुका  था, जिससे उसके  संवेदनशील  हिस्से अपना अस्तित्व खोते जा रहे थे।  उसके गले की मोटाई ने सुराहीदार गर्दन या लंबी पतली गर्दन की कल्पनाओं को सिरे से खारिज कर दिया था। उसके मुस्कराने से उसके मोटे शरारती गालों को लुप्तप्राय हो चुकी नाक को चूमने का बहाना मिल जाता था  घर में पूजा या किसी अन्य धार्मिक उत्सव के दौरान उसकी कलाई पे बंधा  लाल धागा उसके हाथ के लटके मास में फंसा अपनी बेबसी पे  मुझे  ताक  रहा था।  मगर इन सबके बावजूद उसे में मोटा नजर आ रहा था।

मेरी तरफ फेंकी गई उसकी कुटिल मुस्कान ने मुझे हैरत मे डाल दिया। मैंने थोड़ा आगे जाकर उसकी नजरे बचाकर अपने शरीर का मुआइना किया। शरीर के दायें बाएँ हल्का सा उभार सिर उठाने लगा था मगर वक़्त की नजाकत के मद्देनजर उसे छुपाया जा सकता था।  हालांकि इन सबके बावजूद मुझमे भी आंशिक रूप से  मोटापे के  आसार नजर तो आते हैं लेकिन फिलहाल सभी हिस्से अपनी यथास्थिति बनाए हुये  हैं।

मैंने सोचा जब इसे या इसके आविष्कारकों को इसके मोटापे की चिंता नहीं तो में क्यूँ बे-वजह अपने पाल पोसकर बनाए  शरीर पे  अत्याचार करूँ ?


“विक्रम”


  

मंगलवार, अक्तूबर 02, 2012

खामोश लम्हे...



एक इंसान जिसने  नैतिकता की  झिझक मे  अपने पहले प्यार की आहुती दे दी और जो उम्र भर  उस संताप  को  गले मे डाले, रिस्तों का फर्ज निभाता चला गया। कभी माँ-बाप का वात्सल्य,कभी पत्नी का प्यार तो कभी बच्चो  की ममता  उसके पैरों मे  बेड़ियाँ बने  रहे। मगर इन सबके  बावजूद वो  उसे कभी  ना भुला सका जो  उसके  दिल के  किसी  कोने  मे सिसक  रही  थी। वक़्त  उसकी झोली  मे  वियोग की तड़प  भरता रहा………….                                        
               

कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना
बहुत मैंने लहू  थूका है  घरदारी बचाने में
                                                                          मुन्नवर राणा
(मैंने अपना ये लघु उपन्यास मशहूर शायर मुन्नवर राणा साहब के इस शेर से प्रभावित होकर लिखा है । जहां एक इंसान अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वाहण करते करते अपने पहले प्यार को अतीत की गहराइयों मे विलीन होते देखता रहा। मगर उम्र के ढलती सांझ मेन जाकर जब जिम्मेदारियों से हल्की सी निजात मिली तो दौड़ पड़ा उसे अतीत के अंधकूप से बाहर निकालने को.... 
विक्रम



अगर पढ़ने में कुछ दिक्कत हो तो आप इस लिंक से भी पढ़ सकते हैंखामोश लम्हे..

खामोश लम्हे..



रविवार, सितंबर 16, 2012

रास्ते का पत्थर


बहु बेटों के  तानों से परेशान  होकर अस्सी साल के  रामधन काका अक्सर सड़क के किनारे खड़े एक बूढ़े बरगद के तने के चारों और बने चबूतरे पे अपनी इकलोती  बैसाखी को सिरहाने से लगाकर लेटे जाते थे | रामधन काका को उस बूढ़े बरगद से पितृवत्  सुख मिलता था | 

वो पास ही खड़े एक बारह तेरह साल के स्कूली बच्चे को देख रहे थे जो  अपनी पीठ पर स्कुल का बैग लटकाए अपनी बस का इन्तजार कर रहा था | वक़्त बिताने के लिए बच्चा सडक के किनारे  पड़े पत्थर  के एक गोल से टुकड़े  से  फुटबाल की तरह खेलने लगता है  | कुछ समय बाद  उसकी  बस आई और वह पत्थर के उस टुकड़े को वहीँ रोड़  के बीच में  छोड़कर अपनी बस में चला गया |

इसके कुछ समय पश्चात एक  युवक उधर से आता है और पत्थर  के उस टुकड़े से ठोकर खाकर गिरने से बाल बाल  बचता है | युवक पत्थर के टुकड़े को देखकर कुछ बुदबुदाया  और  अपनी चोट को सहलाता हुआ आगे बढ गया | दूसरी तरफ से आने वाले एक प्रौढ़  ने जब उस युवक को पत्थर से टकराने के बाद गिरते देखा तो वह  प्रोढ़ सम्भल गया और पास आने पर  उस पत्थर से बचकर निकल  गया | 


गिरते पड़ते , बचते  बचाते  का ये सिलसिला देर तक चलता रहा| किनारे पर पड़े रहने वाला पत्थर आज ठोकरे और गालियाँ  खाते खाते  ऊब चूका था|रामधन काका को पत्थर में अपना अक्स नजर आने लगा|थक हार कर रामधन काका  अपनी बैसाखी के सहारे उठे ...,पत्थर के पास पहुंचकर अपनी इकलोती टांग से उसे लुढका कर किनारे किया और वापिस आकर फिर से लेट गये... |

 -  विक्रम शेखावत Publish Post

शनिवार, अगस्त 11, 2012

छोडो बेकार की बातों को - Circle of Concern


आज हम ज्यादातर उन बातों के बारें में सोचते हैं जो हमारे हाथ  में ही नहीं है , मगर बवजूद इसके हम अपनी एनर्जी बेकार की बातों में जाया करते हैं जैसे ,अन्ना ने अनशन क्यों तोड़ दिया ?  दिग्गी इतना क्यों बोलता है ? बारिश  होगी  या नहीं ?,  इंडिया  मैच  जीतेगी  या नहीं ? , सचिन १०० बना पायेगा या नहीं ? सरकार, महंगाई, अन्दौलन, हिंसां, मौसम  आदि . इसको  कहते हैं "सर्कल ऑफ़ कन्सर्न ".


एक होता है "सर्कल ऑफ़ इन्फ्लूअन्स (Circle of Influence) " और एक होता  है "सर्कल ऑफ़ कन्सर्न (Circle of Concern) ". दिए गए चित्र में आंतरिक घेरा  "सर्कल ऑफ़ इन्फ्लूअन्स" और  बाहरी  घेरा "सर्कल ऑफ़ कन्सर्न" कहलाता है . हर  इंसान इन दो चक्रों  में  जीवनभर घिरा रहता है .


"सर्कल ऑफ़ इन्फ्लूअन्स"  आपका कार्यक्षेत्र है जिसमे आपका पूरा प्रभाव रहता है , जिसपे  आपका नियत्रण है  और  आप जो चाहे उसमे कर सकते हैं . खुशियाँ, परिवार, बच्चे, आमोद-प्रमोद सब इस अन्दर वाले मगर छोटे से चक्र में हैं जो बाहरी चक्र के दवाब में लगातार छोटा होता जा रहा है . इसमे किये गए कार्यों से आपको आत्मसंतुष्टि मिलती है . इसके विपरीत "सर्कल ऑफ़ कन्सर्न "  वो घेरा है जिसके बारे में आप सोच सोच कर परेशान रहते हैं और जो आपके कार्यक्षेत्र से बाहर है .और इससे सम्बंधित  मुद्दे आपके "सर्कल ऑफ़ इन्फ्लूअन्स" के चक्र को छोटा और "सर्कल ऑफ़ कन्सर्न " को बड़ा कर देते हैं और नतीजन आप और चिंतित रहने लगते हैं  .

इसलिए बेहतर है आप अपने आंतरिक चक्र को बड़ा आकार दें जिस से आपके "सर्कल ऑफ़ कन्सर्न ". कम हो जायेंगे जिससे आप और बेहतर ढंग से जीवन-निर्वाह कर सकेंगे .

"कुछ तो लोग कहेगें, लोगो का काम कहना, छोडो बेकार की बातों को, कहीं बीत न जाए रैना,....... "



-"विक्रम" 11th Aug'12

शनिवार, जुलाई 21, 2012

क्या आप इन्टरनेट या उसकी कम स्पीड से परेशान हैं ?

बहुत आसान उपाय है.  अपनी इन्टरनेट डिवाइस जैसे डाटा कार्ड , फ़ोन जो भी है उसे  अपने साथ   किसी  एकांत स्थान में ले जाएँ .  इस बात का ध्यान रखे की उस  स्थान से कितना भी जोर से बोलने  पर  दूर दूर  तक  आपकी  आवाज  सुनने वाला कोई ना हो . उसके बाद डिवाइस को अपने सामने रखें और जमीन पर ध्यान मुद्रा में बैठ जाएँ , कमर सीधी हो ,पूरा ध्यान सामने रखी  डिवाइस पे केन्द्रित करें , एक  लम्बी  साँस खींचे और अपने ISP (इन्टरनेट सर्विस प्रवाइडर) को याद करते हुए जोर जोर से भद्दी से भद्दी  गालियाँ निकाले. 

ये क्रिया कम से कम १० बार दोहराएँ , अगर आपको असीम सुख की अनुभूति ना  हुई हो तो उसे निरंतर  जारी रख सकते हैं, लेकिन हर बार एक नई और ताज़ा गाली निकालें.  अगर आपको इस क्रिया के दौरान थकान महसूस हो रही हो तो , अपने अन्दर नई उर्जा का स्त्रोत पैदा करने के लिय उन लम्हों को याद करें जब एक 50 एम.बी  की फाइल 99% डाउनलोड होने के बाद इन्टरनेट डिसकंनेक्ट हो गया और आपको फिर से अधोभारण (डाउनलोड) करने के लिए पूरा दिन बर्बाद करना पड़ा . और फाईनली जब पूरा डाउनलोड  हो गया तो पता चला फाइल डाउनलोड के दरमियाँ फाइल क्रेश हो गई .

इस पूरी क्रिया के सम्पूर्ण होते होते आपके अन्दर एक नया जोश और चेहरे में किला फतह करने जैसी मुस्कान नाच रही होगी. उसके बाद पुरे टसन के साथ घर वापिस आयें . सबसे पहले नहालें , अगर पानी की किल्लत  हो तो (ड्राई कलीन) हाथ मुंह  तो कम से कम जरुर धोलें, और इस अंदाज में धोये जैसे किसी नेता के अंतिम संस्कार से लौटे हों .

उसके बाद अपनी डिवाइस की तरफ विजयी और  कुटील मुस्कान में मुस्कराएँ और उसको ऐसे कंनेक्ट करें जैसे आप उसके स्वामी हों और वो आपकी दासी . 

आप फ़र्क महसूस करें तो धन्यवाद की उम्मीद के साथ इन्तजार करूँगा .


'विक्रम शेखावत '

नुकीले शब्द

कम्युनल-सेकुलर,  सहिष्णुता-असहिष्णुता  जैसे शब्द बार बार इस्तेमाल से  घिस-घिसकर  नुकीले ओर पैने हो गए हैं ,  उन्हे शब्दकोशों से खींचकर  किसी...

Details