सोमवार, दिसंबर 26, 2016

कुछ उम्दा शे'र


बेहिसाब यादें  है उन बीते लम्हो की,
एक भुलाने निकलूं तो, सौ जहन मेँ आती है.

एक झलक देख लें तुझको तो चले जाएंगे
कौन आया है यहाँ उम्र बिताने के लिए

हिचकयों को न भेजो अपना मुखबिर बना के
हमें और भी काम हैं तुम्हें याद करने के सिवा


मिल-मिल के बिछड़ गई.
ऐ जिंदगी, तेरी सारी खुशियाँ बड़ी जल्दी में थी


तेरी तलब में रहता है आसमां पे दिमाग
तुझको पा गये होते तो जाने कहाँ होते


इक अजीब सी बेताबी है तेरे बिन
रह भी लेते हैं और रहा भी नहीं जाता


कोई पूछता है मुझसे मेरी ज़िन्दगी कि कीमत.
मुझे याद आता है तेरा हलके से मुस्कराना.


मोहब्बत के अंदाज़ भी होते हैं जुदा जुदा.
किसी ने टूट के चाहा कोई चाह के टूट गया.

उस शख्स को बिछड़ने का सलीका भी नहीं आता
जाते जाते खुद को मेरे पास छोड़ गया

एक पल भी जो सोचूं तुम्हे भूलने कि मैं.
मेरी सांसें मेरी तकदीर से उलझने लगती हैं

मैं उसको भूल जाऊं कैसी बातें करते हो.
सूरत तो फिर भी सूरत वो नाम भी अच्छा लगता है

फ़रिश्ते ही होंगे जिनका हुआ इश्क मुकम्मल,
इंसानों को तो हमने सिर्फ बर्बाद होते देखा है .

तू छोड़ गयी तुझसे क्या खफा होना
खुदा ने ही लिखा था जुदा होना

तुझे खो कर, पाने के लिए लिखता हूं
आज भी तुझे, भूल जाने के लिए लिखता हूँ

उसका मिलना तक़दीर में ही नही था,
वरनामैंने क्या कुछ नही खोया, उसे पाने के लिए

इसमें कोई शक नही, तुम ख्यालों में हो।
पर तेरा मेरा मिलना, अब भी सवालों में है॥

मुदत बाद मिले हम और उसने कहा तुझे भुल जाना चाहती हूँ मैं…. ”
आँसू आ गए आखों में ये सोच कर कि इसे अब तक याद हुं मैं

ऐ जिंदगी तू सच में बहुत ख़ूबसूरत है,
फिर भी तू, उसके बिना अच्छी नहीं लगती

ढूंढ़ने में बड़ा मजा आता है
दिल में बसा कोई अपना जब खो जाता है….

जहाँ भूली हुई यादें दामन थाम लें दिल का,
वहां से अजनबी बन कर गुज़र जाना ही अच्छा है.


बात मुकद्दर पे आकर रूक गयी है वरना….
कोई कसर तो ना छोडी थी तुझे चाहने मे


यूँ तो तमन्ना दिल में ना थी लेकिन
ना जाने तुझे देखकर क्यों आशिक बन बैठे

अजीब खेल है ये मुहब्बत का;
किसी को हम न मिले, कोई हमें ना मिला

सौ बार कहा दिल से चल भूल भी जा उसको,
सौ बार कहा दिल ने तुम दिल से नहीं कहते

तुम जिंदगी की वो कमी हो
जो जिंदगी भर रहेगी

आ कुछ लिख दूं तेरे बारे में
मुझे पता है तू रोज ढूंढती हैं खुद को मेरे शब्दों मे

तुझे पा नहीं सकते तो सारी ज़िन्दगी तुझे प्यार करेगें…….
ये ज़रूरी तो नहीं जो मिल न सकें उसे छोड़ दिया जाये

खुदा ने जान बुझ के नहीं लिखा उसे मेरी किस्मत में….
के सारे जहाँ की खुशियाँ एक ही शख्स को कैसे दे दूँ

जो भी बिछड़े हैं कब मिले हैं फ़राज़
फ़िर भी तू इंतज़ार कर शायद



तो ये तय है के अब उम्र भर नहीं मिलना
तो फिर ये उम्र ही क्यूँ गर तुझसे नहीं मिलना

थक गया हूँ तेरी नौकरी से ऐ जिन्दगी
मुनासिब होगा मेरा हिसाब कर दे

अब वहां यादों का बिखरा हुआ मलबा ही तो है
जिस जगह इश्क़ ने बुनियाद ऐ मकाँ रखी थी


दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के 
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

बिखरा वजूद , टूटे ख्वाब , सुलगती तनहाइयाँ .
कितने हँसीं तोहफे दे जाती है अधूरी मोहब्बत .


ज़िन्दगी तनहा सफ़र की रात है
अपने अपने हौसले की बात है


मैं तेरी याद में उलझा मुक़दमे की तरहा
मगर तू मुझसे दूर रहा फैसलों की तरहा.

 मुहब्बत हो चुकी पूरी
चलो अब ज़ख्म गिनते हैं

 उसके साथ जीने का इक मौका दे दे ऐ खुदा
तेरे साथ तो हम मरने के बाद भी रह लेंगे


मुद्दतें गुजरी तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं


"जिस घड़ी चाहे उलझ जायें ख्यालों से मेरे.
इतनी हिम्मत तेरी यादों के सिवा किस की है"


फरियाद कररही हैं तरसती हुई निगाहें
देखे हुए किसी को बहुत दिन गुज़र गए.

तुझ से अब कोई वास्ता नहीं है लेकिन,
तेरे हिस्से का वक़्त आज भी तनहा गुज़रता है.

 

 

रविवार, नवंबर 13, 2016

भक्तगण कृपया ध्यान दें !


अगर आप अपने आपको निष्पक्ष मानते हैं, तो आपको अपने विरोधी द्वारा किए गए अच्छे काम की भी तारीफ करनी चाहिए।  मगर साथ ही  खराब  काम करने पर “अपने” की आलोचना से भी मुँह नहीं मोड़ना चाहिए वरना लोग आपको “भक्त” कहने लगेंगे। भक्तों के इस दोहरे रवैये से “भगवान” की इमेज खराब होती है । “भगवान” भक्तों की बदौलत है , ना की “भक्त” भगवान की बदौलत। इसलिए तारीफ वहीं करें जहां उचित हो, और जहां उचित ना हो वहाँ बगलें ना झाँकें बल्कि विरोध के सुर निकालें , नहीं तो लोग आपके माथे पर “भक्त” का लेबल चिपका कर निकल लेंगे ।

“भगवान” की ही नहीं खुद (भक्त) की भी स्व-समीक्षा (Self-Review) जरूरी है । अगर कोई सही काम करने पर भी “आपके भगवान” को गाली देता है तो उस नादान को माफ कर देना चाहिए । वैसे  भगवान भी की  गाली सुनने की लिमिट सौ गाली तक है , तो इस लिहाज से “भक्तों” को कमोबेश 50 के आंकड़े तक को धीरज रखना चाहिए । तदुपरान्त  हो सकता है विरोधी को आपकी चुप्पी खामोश कर दे। वरना कभी कभी इस “अंध-भक्ति” के चलते  कुछ भक्त” लोग आपस मे टकरा जाते हैं, क्योंकि कुछ अंधे होते हैं और कुछ आँखों (दिमाग) वाले।  


इसलिए , हे भक्त ! विचलित ना हो, अगर तुम्हें “भगवान” में सम्पूर्ण आस्था और विश्वास है तो इस माहौल को उसके हाल पर छोड़ दे , खराब मत कर । 
"विक्रम"

शुक्रवार, अक्तूबर 28, 2016

यादों का मकान

भूले बिसरे, जीर्ण लम्हों पर,
यादों की एक खंडित छत ,
बूढ़ी दीवारों से लिपटी ,
वादों के पैबंद लगी
खस्ताहाल कुछ शामें....
सीलनभरे  और अलसाए
मौसमों के टुकड़े, जो
बिखरे पड़े हैं....दूर तक
उन पुराने रास्तों पर....
गुजरा था वक़्त का एक सैलाब ,
जिन रास्तों पर .....।
वो उदास दोपहरी ,
अक्सर दीवार के टूटे हिस्सों से ,
भीतर झांककर चली जाती है ।
और रातों मे स्याह अंधेरे
चले आते हैं, सराय समझकर….
उनमें से कुछ....
बुझे हुये से,
पड़े रहते हैं कोनों मे दिनभर.....

  
"विक्रम"

धन तेरस

न तेरस से जुड़ी एक दूसरी कथा है कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन देवताओं के कार्य में बाधा डालने के कारण भगवान विष्णु ने असुरों के गुरू शुक्राचार्य की एक आंख फोड़ दी थी। कथा के अनुसार, देवताओं को राजा बलि के भय से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया और राजा बलि के यज्ञ स्थल पर पहुंच गये।

शुक्राचार्य ने वामन रूप में भी भगवान विष्णु को पहचान लिया और राजा बलि से आग्रह किया कि वामन कुछ भी मांगे उन्हें इंकार कर देना। वामन साक्षात भगवान विष्णु हैं। वो देवताओं की सहायता के लिए तुमसे सब कुछ छीनने आये हैं।

बलि ने शुक्राचार्य की बात नहीं मानी। वामन भगवान द्वारा मांगी गयी तीन पग भूमि, दान करने के लिए कमण्डल से जल लेकर संकल्प लेने लगे। बलि को दान करने से रोकने के लिए शुक्राचार्य राजा बलि के कमण्डल में लघु रूप धारण करके प्रवेश कर गये।

इससे कमण्डल से जल निकलने का मार्ग बंद हो गया। वामन भगवान शुक्रचार्य की चाल को समझ गये। भगवान वामन ने अपने हाथ में रखे हुए कुशा को कमण्डल में ऐसे रखा कि शुक्राचार्य की एक आंख फूट गयी। शुक्राचार्य छटपटाकर कमण्डल से निकल आये। बलि ने संकल्प लेकर तीन पग भूमि दान कर दिया।


इसके बाद भगवान वामन ने अपने एक पैर से संपूर्ण पृथ्वी को नाप लिया और दूसरे पग से अंतरिक्ष को। तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं होने पर बलि ने अपना सिर वामन भगवान के चरणों में रख दिया। बलि दान में अपना सब कुछ गंवा बैठा। इस तरह बलि के भय से देवताओं को मुक्ति मिली और बलि ने जो धन-संपत्ति देवताओं से छीन ली थी उससे कई गुणा धन-संपत्ति देवताओं को मिल गयी। इस उपलक्ष्य में भी धनतेरस का त्योहार मनाया जाता है।

( एक अन्य कहानी कुछ इस तरह से भी है ) 

पुराने जमाने में एक राजा हुए थे राजा हिम। उनके यहां एक पुत्र हुआ, तो उसकी जन्म-कुंडली बनाई गई। ज्योतिषियों ने कहा कि राजकुमार अपनी शादी के चौथे दिन सांप के काटने से मर जाएगा। इस पर राजा चिंतित रहने लगे। जब राजकुमार की उम्र 16 साल की हुई, तो उसकी शादी एक सुंदर, सुशील और समझदार राजकुमारी से कर दी गई। राजकुमारी मां लक्ष्मी की बड़ी भक्त थीं। राजकुमारी को भी अपने पति पर आने वाली विपत्ति के विषय में पता चल गया। 

राजकुमारी काफी दृढ़ इच्छाशक्ति वाली थीं। उसने चौथे दिन का इंतजार पूरी तैयारी के साथ किया। जिस रास्ते से सांप के आने की आशंका थी, वहां सोने-चांदी के सिक्के और हीरे-जवाहरात आदि बिछा दिए गए। पूरे घर को रोशनी से जगमगा दिया गया। कोई भी कोना खाली नहीं छोड़ा गया यानी सांप के आने के लिए कमरे में कोई रास्ता अंधेरा नहीं छोड़ा गया। इतना ही नहीं, राजकुमारी ने अपने पति को जगाए रखने के लिए उसे पहले कहानी सुनाई और फिर गीत गाने लगी।

इसी दौरान जब मृत्यु के देवता यमराज ने सांप का रूप धारण करके कमरे में प्रवेश करने की कोशिश की, तो रोशनी की वजह से उनकी आंखें चुंधिया गईं। इस कारण सांप दूसरा रास्ता खोजने लगा और रेंगते हुए उस जगह पहुंच गया, जहां सोने तथा चांदी के सिक्के रखे हुए थे। डसने का मौका न मिलता देख, विषधर भी वहीं कुंडली लगाकर बैठ गया और राजकुमारी के गाने सुनने लगा। इसी बीच सूर्य देव ने दस्तक दी, यानी सुबह हो गई। यम देवता वापस जा चुके थे। इस तरह राजकुमारी ने अपनी पति को मौत के पंजे में पहुंचने से पहले ही छुड़ा लिया। यह घटना जिस दिन घटी थी, वह धनतेरस का दिन था, इसलिए इस दिन को यमदीपदानभी कहते हैं। भक्तजन इसी कारण धनतेरस की पूरी रात रोशनी करते हैं। 

हमीरदेव चौहान

हमीरदेव चौहान को राजस्थान एवं राजस्थान के बाहर 'हमीर हठ' वाले हमीर के नाम जाना जाता है। निश्चित ही यह वीर स्वतंत्रता-प्रिय शासक था। शौर्य एवं पराक्रम का प्रतीक था। राजस्थान जिस त्याग एवं बलिदानी परम्परा के लिए विख्यात है, हमीर ने उसे आगे बढ़ाया और इतिहास में वह पृष्ठ जोड़ा जो अन्यत्र पढ़ने व देखने में नहीं आता है।
महाकवि चंदबरदाई ने भारतवर्ष के अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पराभव को आकस्मिक ही नहीं माना बल्कि उसे नियति की एक क्रूर संरचना माना है और यह भी स्पष्ट किया कि उसे पराजित कर में का सामथ्र्य उस समय किसी के पास नहीं था। चंदवरदाई ने अपने निम्नलिखित दोहे में स्पष्ट करते हुए लिखा है
दिन पलट्यो, पलटी घड़ी, पलटी हथ्थ कबाण।
पीथल ऐही वार सू, दिन पलट्यो चहुंआण।

उत्त दोहे के मर्म को यदि उस समय के विस्तृत अध्ययन के साथ देखें तो कोई भी इतिहासकार चंदवरदाई की बात से असहमत नहीं होगा, चूंकि पृथ्वीराज की छवि ही एक सर्व शक्तिमान शासक की थी। यही नहीं, इससे पूर्व में भी चौहानों का इतिहास अत्यन्त ही गौरवशाली रहा है और अजमेर के चौहानों का इंका तो उस समय पूरे भारत में बजता था। यह तो मात्र एक संयोग और देव योग था कि किंचित् उस भूल (दुश्मन को प्राण दान देना) का, जिसे भूल न कहकर | अब तक हम भारतीय गर्व करते रहे हैं, दुश्मन ने लाभ उठा लिया और हम पर विजय प्राप्त कर ली। खैर, जो भी हुआ वह इतिहास के पन्नों पर अंकित हो गय लेकिन पृथ्वीराज के पराभव के बाद भी चौहान व अन्य राजपूत शासक अपनी उसी गौरवशाली परम्परा का अनुसरण करते रहे।

पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज ने तराईन के युद्ध अर्थातू 1192 ई के बाद 1194 में रणथम्भोर के पर्वतीय अंचल में अपना एक पृथक राज्य स्थापित का लिया और आगे के शासक राज्य को सुसंगठित करने में लगे रहे। और हमीर के बीच के समय में रणथम्भोर की कीर्ति पताका दूर-दूर तक फहराती दिखलाई दी। चूंकि चौहानों का क्षेत्र दिल्ली के भी समीप था, अत: वह बहुत शीघ्र ही उनका आँखों में आ गया। हमीर द्वारा भीमरसपुर, मदालकीर्ति दुर्ग, घाना नगर उजैन (मालवा) आदि कई प्रमुख स्थानों पर अधिकार कर लेने के उपरांत रणथम्भौर दिल्ली के सुल्तानों को और भी अधिक खटकने लग गया। कारण भी स्पष्ट था, हमीर ने न केवल उजैन पर विजय प्राप्त की वरन् क्षिप्रा के तट पर बने महाकालेश्वर मंदिर का, जिसे इल्तुतमिश ने धूल-धुसरित किया था, जीर्णोद्धार करवाकर अपने ईष्ट देव शंकर भगवान (महाकाल) की पूजा-अर्चना जो की थी। यह भला दिल्ली के मुस्लिम शासकों को स्वीकार कैसे हो सकता था उनका भयभीत होना स्वाभाविक था |

अंतत:, उस समय दिल्ली की गद्दी पर बैठा जलालुद्दीन सन् 1290में हमीर की बढ़ती शान को कुचलने के लिए एक विशाल सेना लेकर रणथम्भोर की ओर कूच कर ही गया। इससे पूर्व भी सन् 1209 में कुतुबुद्दीन एबक और बाद में सन् 1226 में इल्तुतमिश के आक्रमण का रणथम्भोर शिकार हो चुका था किंतु अधिक दिनों तक इसको अपने अधिकार में नहीं रख सके थे। यही हस्र जलालुद्दीन खिलजी का भी हुआ और यहाँ पहुँचकर भी वह इसे हस्तगत नहीं कर पाया। हमीर एवं वीर राजपूतों के आगे वह नहीं ठहर पाया तथा दिली की ओर भागने पर विवश हो गया।

1296 ई. में जलालुद्दीन का भतीजा अलाउद्दीन दिल्ली के तख्त पर बैठा। यह नया सुल्तान बहुत ही महत्वाकांक्षी और कट्टर धर्माध था। गद्दी पर बैठते ही उसने सन् 1300 में बयाना के प्रांतपति उलुग खां और कड़ा के प्रांतपति नुसरत खां को रणथम्भौर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। 'हमीर काव्य' के अनुसार शाही सेना में 80,000 घुड़सवार और विशाल पैदल सेना थी। बादशाह के निर्देशानुसार उलुग खां ने हमीर के पास एक संदेश भेजा कि उसके स्वामी   (अलाउद्दीन) के हृदय में राय (हमीर) के प्रति कोई द्वेष नहीं है और यदि राय | शरणागतों (मंगोल महिमाशाह एवं अन्य मुगल अमीरों) को मौत के घाट उतार दे या उन्हें सौंप दे, तो शाही सेना दिल्ली लौट जायेगी। हमीर से यह भी कहा गया कि वह पत्र में निहित अनुदेशों पर अमल करने से इंकार करता है तो वह आगे के परिणामों का सामना करने के लिए तैयार रहे। स्वाभिमानी हमीर ने इसे एक चुनौती समझा और शरणागत आये महिमा मंगोल एवं मुगलों को लौटाना अपनी आन, बान और शान के विरुद्ध एवं अपमान तुल्य समझ तत्काल दूत को इन्कारी का पत्र थमा दिया। हमीर के दिये उत्तर को काव्य में इस तरह दर्शाया कि ;
धड़ नच्चे लोहू बहे, परि बोलै सिर बोल।
कटि कटि तन रन में परै, तो नहीं देहूँ मंगोल।

यहीं से 'हमीर की हमीर हठ' जैसे सर्व लोकप्रिय और सर्वमान्य धारणा का जनता-जनार्दण में चलन हुआ। आज भी उनके सम्बन्ध में अधोलिखित काव्य की दो पंक्तियाँ लोगों के मुँह पर अमिट है कि  सिंह गमन, सत्पुरुष वचन, कदली फले इकबार। तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार। बस अब क्या था, दोनों और से युद्ध की तैयारियां शुरू हो गई और बादशाह या के दोनों प्रांतपति रणथम्भौर पर चढ़ आये। हमीर भी पूर्णतया तैयार था। ज्यों ही युद्ध प्रारम्भ हुआ, राजपूती सेना ने ऐसा हमला बोला कि गुजरात में तहलका मचाने वाले उलुगखां और नुसरत खाँ के पाँव ही उखड़ गये। और नुसरत खाँ तो इस युद्ध में ढेर ही हो गया। खिलजी सेना उल्टे पांव दिल्ली की ओर भागी।

अलाउद्दीन के शब्दकोश में पराजय जैसा शब्द नहीं था। हम्मीर के हाथों पराजय का मुँह देखना पड़ा, उसने तो सपने में भी कल्पना नहीं की थी। उसने पुन: रणथम्भोर को इस पराजय को विजय में बदलने के लिए जोरों से तैयारियां करना शुरू कर दिया और वह जुलाई 1301ई. हमीर को चुनौती देने आ डटा। इस बार उसके मस्तिष्क में सैनिक कार्यवाही के साथ छल-कपट व कूटनीतिक चालें भी चलने की सोच कर आया था। कुछ दिनों तक दोनों और से छुटपुट कार्यवाहियां होती रही किंतु जब अलाउद्दीन ने देखा कि राजपूत पूरी तैयारी से है और उन्हें झुकाना असम्भव है तो उसने छल-कपट का सहारा लिया। हमीर के दो मंत्रियों रणमल और रतनपाल (खिलजी वंश का इतिहास, डॉ. किशोरी शरण लाल)

शनिवार, जुलाई 23, 2016

ज़ख्म




पाल रखें हैं कुछ ज़ख्म मैंने ,
होता है रूहानी एहसाह कुरेदने पर जिनके ।
कभी दरमियाँ मायूसियों के जब-- मैं उनकी कुछ, 
परतें हटा देता हूँ तो ,
रिसने लगता है लहू ,आंसुओं की माफिक..
सोचता हूँ कभी , उतरकर इनमें, 
इनकी गहराई नापूँ !
 
"विक्रम"
 

मंगलवार, जुलाई 19, 2016

हाइकु


( पहली बार "हाइकु" लिखने की कोशिश  )

वोट मांगते
खींसे निपोरकर
निर्लज नेता

 
हवाई किले 
पंचवर्षीय नीति
खट्टे अंगूर

 
भूखी जनता
सरकारी अमला
ऐशों-आराम

 
सुरसा मुँह
गरीबी उन्मूलन
असाध्य रोग

 
विक्रम”


 

 

 

 

 

 

 

 

 

शनिवार, जून 25, 2016

कुछ पंजाबी

बेजाँ बेदर्दा इस दिल विचों तेरी हर एक याद भुला देणी
मे अपणे सब अरमाना ननुं आज आ'पे ही तीली ला देणी...

मेरे अथरू, मेरीया अंखा तेनु की
कित्थे लावां, कित्थे रख्खा तेनु की
 ( अर्थ- मेरे आँसू , मेरी आँखें ,तुम्हें क्या कहाँ लाऊं कहा रखूँ , तुम्हें क्या )

मेँ हाल वेख ल्ये हीरा दे
सब धोखे ने तकदीराँ दे
तू जद पुछ्दा प्याराँ लै
दिल हामी भरदा ऐ
तेनु प्यार ता करदी आ
वे दिल टूटणु डरदा ऐ ...

"सानु हंसके हसाण वाळे टूर गए हूण हंसिया नी जाँदा
टूटी ज़िंदगी ते चरखे दी माल वे तंद्द कतिया नी जाँदा...."
 
थोड़ा वक़्त लगु पर भूल ज्यांगे जवें तूँ सानु भूल गई
हाल चाल ता ठीक जैया पर पैला वरगा नहीं...

तूँ भुल्ल जावण दी गल करदी, भुल जाणा केड़ा सौखा हे....
बिछड़ के जीणा नि झलिए, सौ बार मरण तों औखा हे....
सानु पता असा ने डूब जाणा, चल फेर वी तरके वैखांगे
तेन्नु दिलों भुलाया नहीं जाणा, चल कोशिश करके वैखांगे

( हमे पता है की हम डूब जाएंगे, मगर चल फेर भी तैर के देखेंगे,
तुम्हें दिल से भुलाया नहीं जा सकता , मगर चलो फिर कोशिश करके देखेंगे)

बैठया सूतया याद कोई तड़फौन्दी रहंदी ए...
इक कुड़ी मेनू अजे वी चेते ओंदी रहंदी ए...

लंघदे हां जदों हूण शहर विचों तेरे,
बीती हुई जिंदगी पुराणी चेते आ जांदी"

 

 

 

 

 

रविवार, जून 19, 2016

अव्यक्त शब्द


मैं, उम्रभर
तुम्हारे उन अव्यक्त
और अस्पष्टाक्षर शब्दों
के अर्थ तलाशने को ,
शब्द-मीमांसाओं के अंतर-जाल
भेदता रहा .....
कपोल-कल्पनाओं की
आड़ लेकर तलाशता रहा
कुछ समानार्थी शब्द !
शब्दों के उन झंझावातों ने
मतांध बना दिया मुझे ।
उल्लासोन्माद की पराकाष्ठाएं
लांघकर ,
जानना चाहता हूँ अभिप्राय,
तुम्हारे उन
अव्यक्त शब्दों का ....


"विक्रम"
 

नुकीले शब्द

कम्युनल-सेकुलर,  सहिष्णुता-असहिष्णुता  जैसे शब्द बार बार इस्तेमाल से  घिस-घिसकर  नुकीले ओर पैने हो गए हैं ,  उन्हे शब्दकोशों से खींचकर  किसी...

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