बुधवार, अगस्त 15, 2018

रिश्तों का आरक्षण


मकानो के मालिक
ओर उनके
किराएदार ,
कुछ उसी तरह
सिर्फ मालिक भर हूँ,
में अपने इस दिल का ,
बिना किराए के   
किरायेदार
बसते हैं इसमें,रिश्तों का
आरक्षण लेकर,
कुछ मियादी
तो कुछ
बेमियादी रिश्तों
की लीज़ लिए
बैठे हैं......
-विक्रम




रविवार, जुलाई 22, 2018

भाभी


भाभी जब घर मैं ब्याहकर आई थी उस वक्त मै करीब 4,5 साल का रहा होऊंगा। बड़े भाई आर्मी में थे, इसलिए भाभी अधिकतर समय हम लोगों के साथ परिवार में ही रही । दो-चार बार भाभी, भाई के साथ भी गई तो उस वक़्त मैं भी उनके साथ रहता था। भाभी के पहले 2 बच्चे जन्म के कुछ महीनों बाद ही चल बसे थे इसलिए उनका मुझ में बच्चे सा स्नेह था। 

मुझे आज भी याद है उन दिनों मैं ,भाभी ओर भाई बिहार के “गया” शहर में रहते थे उस वक्त मेरी उम्र 10,11 साल रही होगी। । मैंने भाभी को कभी “भाभी” नहीं कहा , न जाने क्यों। वो मुझसे काफी बड़ी थी ये संकोच था या ना जाने क्या कारण रहा होगा। एक दिन ऐसे ही खेलते खेलते दौरे मैंने भाभी को “मम्मी” कह दिया तो वो बहुत भावुक हो गई , बोली एक बार फिर बोलो। मेरे साथ खेलने वाले बच्चे जब अपनी घर में अपनी मम्मी को “मम्मी” पुकारते थे तो उस दिन मैंने भी बोल दिया।

उन दिनों का एक ओर किस्सा याद आता है । एक बार मैंने किसी बच्चे को पीट दिया था।  वो शायद आर्मी के किसी ऑफिसर का रहा होगा। घर आया तो भाई ने मुझे डांटा ओर थप्पड़ भी लगा दिया। मैने रोते हुये  अपने आपको बाथरूम में बंद कर लिया ओर देर तक रोता रहा ओर अंदर से ही रोते रोते भाई को कहता रहा की गाँव चलना माँ को बोलूँगा की मुझे मारा। कुछ देर भाभी ने बाथरूम का दरवाजा बजाया ओर कहा की बाहर आ जाओ कोई नहीं मारेगा... देखो तुम्हारे भाई भी रोने लगे हैं ..... मैं भाभी की आड़ लेकर बाहर आया तो देखा भाई भी रो रहे थे। उस दिन भाई ने मुझे पहली ओर आखिरी बार डांटा था , उस दिन के बाद कभी नहीं।

चार साल पहले भाभी हम लोगों को छोड़कर भगवान के पास चली गई। वो स्वभाव से बहुत हँसमुख थी , जिस महिला सी उन्होने दो मिनिट बात कर ली तो वो उनकी पक्की सहेली हो जाती थी। भाभी करीब सालभर से बीमार सी चल रही थी मगर उन्होने कभी किसी को एहसास नहीं होने दिया की वो बीमार हैं। उनकी हालत दिन-ब-दिन खराब होती रही ओर वो अस्पताल ना जाने के बहाने करती रही। दरअसल भाभी की नानी , माँ ओर भाभी की 3 छोटी बहनें देखते देखते ही क़ैसर  की शिकार हो चुकी थी, तो शायद भाभी को भी ऐसा ही कुछ डर लग रहा था की उनको भी क़ैसर है । मगर उनको क़ैसर नहीं था।  

धीरे धीरे उनका शरीर इतना कमजोर हो चुका था की वो पहचान में नहीं आ रही थी। एक बार व्हाट्सएप पर उनका फोटो देखा तो उनकी हालत का पता चला । मैं उन दिनों बंगलोर में था , घर पर बोला की उनको जबर्दस्ती अस्पताल लेकर जाओ। उसके बाद उनको अस्पताल लेकर गए जांच ए पता चला शुगर 400 को पार कर चुका था शरीर के काफी Internal organ damage हो चुके थे । दिल्ली के आर्मी हॉस्पिटल में 3,4 महीनों के इलाज के बाद अचानक वो अपने पीछे 3 बेटे 3 बहुएँ ओर 5,6 पौते-पोतीयां है छोड़कर इस दुनियाँ से चल बसी। मौत के आखिरी दिनों में ना मैं उनके पास था ओर ना भाई , क्योंकि भाई भी उन दिनों अपनी किडनी की बीमारी के लिए पुना गए हुये थे ओर मैं 10,15 दिन उनको देखने छुट्टी आने वाला था।
“राह देखा करेगा सदियो तक
छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा.....”
-विक्रम


    


सोमवार, जून 11, 2018

रिश्ता


अतीत के आले में
एक बेनाम-सा रिश्ता 
छुपाकर अपनों से
सहेज के रखा है वर्षों से...
मैं ताउम्र उसके लिए 
तलाशता रहा एक 
उपयुक्त सा सम्बोधन
ताकि पुकार सकूँ उसे...
मगर चाहकर भी,
आवंटित ना कर सका 
कोई सार्थक सा नाम,
और बस बैठाता रहा 
तारतम्य नामांकित 
और बेनाम-से 
रिश्तों के 
दरमियाँ 
उम्रभर..!

"विक्रम"


रविवार, मई 27, 2018

बंदा ये बिंदास है !!




 आज से करीब 5,6 साल पहले फेसबूक पर एक शख्स के साथ एक सामाजिक मुद्दे को लेकर बहुत खिंचतान हुई। कई दिनों तक हम दोनों के बीच काफी कहासुनी होती रही। मुद्दा हालांकि एक कम्यूनिटी से संबन्धित था ओर हम दोनों उसी कम्यूनिटी के थे । मगर एक दूसरे के विचारों से सहमत नहीं होने से बड़ी गंदी वाली बहस हो गई थी । कुछ दिन बोलचाल बंद हुई , एक दूसरे को ब्लॉक किया । मगर दोनों ही एक ऐसे स्टेट ओर बिरादरी से ताल्लुक रखते थे जहां जानवर तक को आदर से पुकारा जाता है, ओर इसी के चलते हमारी बहस का स्तर गिरा नहीं था।

 
बाद मे हम दोनों ने एक दूसरे से बात की, एक दूसरे को समझा ओर मुद्दे को सुलझा हम दोस्त बन गए । ओर मजे की बात देखिये मुझे सालभर बाद पता चला को वो साहब पुलिस इंस्पेक्टर थे । खैर जब इतनी गर्मागर्मी हुई तो जाहीर है दोस्ती भी होनी ही थी । उसके बाद हम 3,4 बार काफी सारे FB फ्रेंड्स के साथ मिले हैं , अक्सर गेट-टुगेदर होता रहता है ।

इनकी खासियत है समय मिलने पर खूब सारे दोस्त ओर खूब सारी मस्ती करना। हालांकि ऐसी नौकरी मे इतने सारे दोस्तों के लिए समय निकालना काफी मुश्किल होता है , मगर ये अपने दोस्तों के लिए समय निकाल ही लेते हैं। ये एक ज़िंदादिल , बेफ़िकरे ओर बिंदास इंसान हैं ।

यायावरतखल्लुस के साथ बेहतरीन कवितायें भी लिखते हैं, तरन्नुम के साथ इनकी कवितायें सुनने का मजा ही कुछ ओर है, अक्सर कवि-सम्मेलनों के लिए वक़्त निकाल लेते हैं। राजपूतों के इतिहास पर भी बहुत अच्छी पकड़ है इनकी। जिस शहर मे रहते हैं वहाँ से जब इनका तबादला होता है तो वहाँ के लोग इनका ट्रान्सफर रुकवाने ओर अपराधी ट्रान्सफर करवाने के लिए पूरा ज़ोर लगा देते हैं । अक्सर चर्चा मे रहने वाले इन शख्स का नाम है महावीर सिंह राठौड़ है !, आजकल सीकर शहर के कोतवाल हैं ।

बशीर बद्र साहब का एक शेर याद आता है की ;
"दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुँजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जायें तो शर्मिन्दा न हों "
                               

रविवार, मार्च 11, 2018

मुलाक़ात

अचानक किसी ने ज़ीने में लगे  बिजली का स्विच ऑन किया तो छत पर दूर तक रोशनी फ़ेल गई।  किसी के आने आहट सुनकर राहुल ने पीछे पलट कर देखा तो एक युवती जिसने कमर से ट्राई कलर का दुपट्टा बांध रखा था , रस्सी से सुख चुके कपड़े उतार कर इकट्ठा कर रही थी। राहुल की तरह उसकी पीठ होने से वो उसका चेहरा नहीं देख पा रहा था । दो दिन पहले ही वह किराए के इस मकान मे रहने आया था। उसे शहर के एक अच्छे कॉलेज मे दाखिला मिल गया था।  सूर्यास्त के समय अचानक बिजली गुल होने पर राहुल गर्मी से निजात पाने ऊपर छत पर जाकर टहलने चला आया था। विशाल छत पर घूमते हुये वो अक्सर मुड़ कर लड़की का चेहरा देखने को कोशिश कर रहा था।  अचानक लड़की पलटी , उसे महसूस हुआ की कोई उसे कनखियों से देख रहा है।

नज़रें मिली.... लड़की ने घूरने वाले अंदाज से राहुल को देखा.... राहुल को लगा जैसे किसी ने उसे चोरी करते हुये पकड़ लिया हो । उसने सकपका कर नजरे फेर ली। लड़की कपड़े लेकर नीचे जा चुकी थी, साथ ही ज़ीने की बत्ती भी बंद हो गई ।  दूर पेड़ों के झुरमुटों से निकलकर चाँद छत पर चाँदनी फैलाने आ गया था ।

दूसरे दिन राहुल फिर उसी वक़्त छत पर पहुँच गया, कल के अनुभव ने उसे बैचेन कर रखा था। कपड़े आज भी सूख रहे थे। कुछ देर बाद फिर वही आहट पाकर उसने मुड़कर देखा । वही लड़की थी , उसने आज भी वही ट्राई कलर का दुपट्टा कमर से बांध रखा था ओर चुपचाप कपड़े समेट रही थी।

कुछ देर पश्चात लड़की पलटी.... नज़रें मिली …… राहुल की धड़कने बढ़ने लगी ..... मगर राहुल ने आज हिम्मत करके अपनी नज़रें नहीं हटाई । कुछ देर पश्चात ,लड़की हल्के से मुस्कराई ,कपड़े उठाए ओर सीढ़ियाँ उतरकर नीचे चली गई। राहुल भी मुस्कराकर देर तक उसके बारे मे सोचता रहा। युवा दिल ख्वाबों में काफी दूर निकल चुका था।

सिलसिला चलता रहा, लेकिन अभी तक कोई बातचीत नहीं हो पाई थी। रोज की तरह आज भी राहुल तय समय पर छत पर पहुँच गया , उसने सोच लिया था की आज उससे बातों का सिलसिला शुरू करूंगा।
आज छत पर कपड़े नहीं थे ,बस उसका ट्राई कलर का दुपट्टा सूख रहा था। राहुल इंतज़ार करने लगा । वो नहीं आई। अंधेरा हो चुका था । राहुल थक हारकर नीचे आ गया। उसने बगल वाले मकान के बंद दरवाजे की तरफ देखा जिसमे वो लड़की रहती है ।

दूसरे दिन फिर राहुल इंतज़ार करता रहा मगर वो नहीं आई ,उसका दुपट्टा उड़कर अलगनी से नीचे गिर गया था ,उसने पास जाकर धड़कते दिल से दुपट्टे को उठाया ओर प्यार से वापिस अलगनी पर टांग दिया। ।
चार पाँच दिन बाद भी वो अपना दुपट्टा लेने नहीं आई तो राहुल खुद उसका दुपट्टा लेकर नीचे आया ओर बगल वाले मकान का दरवाजा खटखटाया।

एक अधेड़ सी औरत  ने दरवाजा खोला । राहुल की नज़रें घर के अंदर तक गई ओर फिर वापिस महिला के चेहरे पर टिक गई। उसने हाथ आगे बढ़ाकर दुपट्टा महिला की तरफ बढ़ाते हुये कहा ,”आंटी.... ये दुपट्टा आपकी बेटी का .... चार पाँच दिन से छत पर नीचे पड़ा हुआ था। महिला ने दुपट्टा ले लिया , वो कुछ नहीं बोली। राहुल को कोई जवाब नहीं  मिला  तो वो मुड़कर वापिस लौटने लगा।
“बेटे....”, महिला ने पीछे से पुकारा ।
“जी... जी आंटी “, राहुल ने वापिस मुड़ते हुये कहा ।
“इधर आओ...”
“जी...”
“वो तुम्हें भी दिखाई दी थी बेटे  ....?, महिला ने पूछा।
“जी... मेरा मतलब मैंने उन्हे छत से कपड़े लाते हुये देखा था तो ....सोचा वो भूल गई होंगी ,इसलिए देने आया  था”, राहुल ने हकलाते हुये सफाई दी।
“अंदर आओ बेटे”, महिला ने घर के अंदर जाते हुये कहा। राहुल पीछे पीछे ड्राइंग रूम मे सोफ़े पर बैठ गया। महिला भी साइड के सोफ़े पर  बैठ गई।
“बेटे .... ओर मेरी बेटी थी “, महिला ने उदास स्वर मे कहा ।
“थी..... मतलब ?”
“हाँ बेटे, आज से दो  साल पहले वो एक हादसे में हमें छोड़कर चली गई थी।  उसने उस दिन यही ट्राई कलर वाला दुपट्टा पहन रखा था , जिसे हमने संभाल कर उसके कमरे मे उसकी बाकी यादों के साथ सहेज कर रखा हुआ है..... ।“, महिला ने रोते हुये कहा ।
राहुल के कानों मे सीटियाँ बज रही थी, वो बोझिल कदमों से अपने मकान की तरफ बढ़ गया।
 -विक्रम





शनिवार, मार्च 03, 2018

पारो भाभी



गांवों मे रिश्तों के लिए सम्बोधन होते हैं, चूंकि हम उस वक़्त बचपन के दौर मे थे तो वहीं पारो भाभी पचपन के दौर में थी इसलिए हमें उन्हे भाभी कहने मे झिझक महसूस करते थे जिसके चलते हम लोग उन्हे “ताई” कहकर पुकारते थे । हमने सुना था की पारो ने हम लोगों को गोद मे खिलाया था। वैसे पारो का असली नाम पारो नहीं था , वो तो गाँव वालों ने पारो के गाँव के नाम पर उनका नाम रख दिया था , उनके गाँव का नाम “पार” था इसलिए उनका नाम “पारली” या पारो” पड़ गया। पारो अपने दुखों से इतनी परेशान नहीं होती थी जितना वो दूसरों की दुख की खबर सुनकर परेशान हो जाती थी ।   जैसे ही उन्हे पता चलता की गाँव मे फलां की बहू को या बेटे या बेटी को बुखार है तो पारो भाभी वहाँ उनका दुख बांटने पहुँच जाती। पारो की सहानुभूति में औपचारिकता या दिखावा लेशमात्र का भी नही होता था , सामने वाले के दुख पर उनकी  आँखों से आँसू निकलने लगते थे ।

किसी परिवार का बीमार सदस्य जब तक ठीक नहीं हो जाता पारो बराबर उनके घर जाकर खैरियत लेती रहती थी । इस बीच पारो के अपने घर का काम बाकी पड़ा रहता था।  अपनी उम्र के आखिरी दौर मे पारो भाभी खुद बीमार रहने लगी मगर बावजूद इसके वो पास-पड़ोस की खोज खबर लेती रहती ओर हिम्मत करके वो लोगों के घर पहुँचकर बीमार का हाल-चाल पूछ लेती थी। मगर एक वक़्त ऐसा आया की  उनका चलना फिरना तक मुहाल हो गया  ओर अब वो घर मे कैद हो रह गई थी । दिनभर खटिया मे पड़ी पारो भाभी  गाँव के किसी व्यक्ति के आने की राह देखती रहती ताकि उससे गाँव के हाल पूछ सके , मगर थक-हारकर अपने ही बेटे या बहू से गाँव के हाल चाल पूछने लगती । लंबी बीमारी के बाद एक दिन पारो अपने अंतिम सफर पर निकल पड़ी। गाँव के कुछ लोग औपचारिकता निभाने आ गए थे।   
(सच्ची घटना पर आधारित)



रविवार, जनवरी 07, 2018

अनुबंधित यादें

मुंडेर  के दोनों ओर
 धूप में फैला दिया है
तुम्हारी अचैतन्य ओर   
सीलनभरी यादों को  ,
ज़हन मे क्रमबद्ध
अभिलिखित है वो  
सिलसिले,जो
आतुर है पुनरारंभ को ।
मासूम से बच्चे की मानिंद
हुलस कर, आ लगती हैं  
गले,कुछ उनींदी यादें ।  
जन्म-जन्मांतर तक
अनुबंधित है
तुम्हारी

यादें.....

"विक्रम"

नुकीले शब्द

कम्युनल-सेकुलर,  सहिष्णुता-असहिष्णुता  जैसे शब्द बार बार इस्तेमाल से  घिस-घिसकर  नुकीले ओर पैने हो गए हैं ,  उन्हे शब्दकोशों से खींचकर  किसी...

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