बरसों बाद भी महफूज़ रखा है
तेरे शहर ने बीते लमहात को
उधर उस राहगुज़र
के दोनों किनारों पर साथ-साथ चलते हुये
हम आज भी
अक्सर नजर आते हैं
एक दूसरे को अक्सर
कनखियों से देखना , फिर
नजरों का टकराना ....और कनखियों से देखना , फिर
मसलसल देखते जाना.....
बहानों की आड़ मे
मिलने के कवायत और मिलने पर रोकती
समाज की रवायत
चलो फिर गुलजार करें
दिल के दरीचे को, जो खिज़ा की आंधीयों से
जमींदोज़ हुये पड़े है
क्यों न हम फिर से
जगाएँ उस अहसासात कोआज तुम कुछ हवा तो दो,
मेरे जज्बाती खयालात को
/विक्रम/
बहानों की आड़ मे
जवाब देंहटाएंमिलने के कवायत
और मिलने पर रोकती
समाज की रवायत
बहुत सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति .नारी खड़ी बाज़ार में -बेच रही है देह ! संवैधानिक मर्यादा का पालन करें कैग
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर!!!
अनु
चलो फिर गुलजार करें
जवाब देंहटाएंउस दरीचे को, जो
खिज़ा की आंधीयों मे
जमींदोज़ हुआ पड़ा है
kyaa baat hai ....!!
चलो फिर गुलजार करें
जवाब देंहटाएंउस दरीचे को, जो
खिज़ा की आंधीयों मे
जमींदोज़ हुआ पड़ा है ......bahut khubsurat abhiwayakti.....
सार्थक और सभी हुयी पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत ही लाजवाब रचना.
जवाब देंहटाएंरामराम.
भाई विक्रम जी अच्छी कविता |
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब रचना.
जवाब देंहटाएंआपकी ये बहुत उम्दा रचना ..भाव पूर्ण रचना .. बहुत खूब अच्छी रचना इस के लिए आपको बहुत - बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंमेरी नई रचना
खुशबू
प्रेमविरह