रविवार, मई 22, 2011

आमंत्रण




मैने सहस्त्रो आमन्त्रण भेजे तुम्हे
आखिर कब आओगे ?

पिछली बारिश में , भीगते हुए राह देखता रहा
बारिस आई और गई , और मन तरसता रहा
रातभर झींगुरों के ताने और कीटो की चिकोटी
अपने दिल को तुम्हारा समझ कही खरी खोटी

पोष की सर्द रातों में रातभर आँखे बिछाई मैने
तब तेरे इन्तजार में ढेरों नींद गँवाई मैने
पत्थर बन चूका हूँ सर्द हवा के थपेड़ों से
और अब ओस बन लटक रह हूँ पेड़ो से

गर्मी की तपती दुपहरी में भी तेरा रस्ता देखा है
मगर हरबार की तरह निष्ठुर को हँसता देखा है
हर मोसम में जला है दिल तेरे इन्तजार में
विश्वास उठ रहा है अब यार-ये-इकरार में
मगर .....
आमन्त्रण भेजता रहूँगा .....मरते दम तक ....
क्योंकि....अब भी....
सवाल वही है ...
आखिर कब आओगे ?


"विक्रम"

शनिवार, मई 21, 2011

दो शब्द






तुम से कुछ कह ना पाने का गम ,
जीवन के हर मोड़ पे कचोटता है मुझे ..
क्योंकि ... वो वक़्त हमारा नहीं था

जिन्दगी की दोड़ में जिन्दगी को ही पिछे छोड़ दिया मेने
ना जाने किस डर से तेरा दामन तनहा छोड़ दिया !

कुछ ला ना सका सिवा तेरी यादो के , चुरा के तुमसे
आज तन्हाइयों में उन्हें ही मरहम बना लेता हूँ !

कभी अकेले में उन्ही यादो के आलिंगन में रोते हैं
बस उस दरमियाँ हम कुछ और नजदीक होते हैं !

ना जाने कितना दखल है मेरा, तेरे ख्वाबों में
तुम तो मेरे खाव्बों को अपनी जागीर समझ बैठी !

यूँ तो तुम्हारा मेरे दिल की अँधेरी गहराइयों तक हक है
मगर अक्सर तुम और गहराइयों में उतर जाती हो , उफ !

चलो हम ऐसे ही रहें इस सूखे से जीवन में मगर ...
कल हम होंगे अपने सपनो के साथ एक साथ ..

और कहेगें एक दूजे से , वो सब कुछ जो ...हम
तब ना कह सके थे , किसी डर से हम.. क्योंकि तब
वक्त ने शब्द छीन लिए थे हमसे , मगर .... कल ...
कल हम वक़्त के हलक से वो शब्द निकाल लेंगे ..क्योंकि
तब वक़्त हमारा होगा ...


"विक्रम"

नुकीले शब्द

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