रविवार, मार्च 31, 2013

डॉ. बकरा



आजकल अख़बार, टीवी और दीवारों पे विज्ञापनों के जरिये रोज रोज छाए रहने वाले डॉ. बकरा का नाम सुनकर मेरे एक दोस्त का दिल उनपे आ गया। दोस्त को कुछ दिनो से सोरियासिस (चर्म रोग) था। उसने डॉ.बकरा के बारे मे कहीं पढ़ा जो कुछ ही दिनो मे गंजे लोगों के सिर पर बालों की फ़सल लहलहाने के दावे करता था और  सोरियासिस का इलाज होम्योपैथिक के जरिये करने का दंभ भर रहा था। एक रोज सुबह सुबह अख़बार लेकर मेरे घर आ धमका और बड़े गर्व से बोला, यार आज मेरा डॉ.बकरा से अपॉइन्ट्मन्ट है इसलिए तुम भी मेरे साथ चलो ताकि तुम्हें भी थोड़ा अनुभव हो की वर्ल्ड क्लास डॉ. कैसे होते हैं।

मैंने उसके हाथ का अख़बार लिया और पढ़ा , मै बोला ,”यार इन इश्तहारों पे मत जाओ , इनका कोई भरोसा नहीं। दोस्त ने मुह बिचकाया और बोला ,”यार तुम रहोगे वही देहाती के देहाती, डॉ.बकरा सिर्फ 250 रुपए लेते हैं, और वो भी परामर्श के तौर पर , ना तुम्हारे इन नुक्कड़ वाले एमबीबीएस की तरह लूटते नहीं
काफी जद्दोजहद के बाद मैं उसके साथ चलने को तैयार हो गया। डॉ. बकरा का क्लीनिक किसी पाँच सितारा होटल के रिसेप्शन सा था। लाल और नीले रंगों का समावेश हर जगह नज़र आ रहा था। 

रिसेप्शनिस्ट के पीछे की दीवार पे अनेकों डाक्टरों के नाम उनकी डिग्री के साथ लिखे हुये थे, वो शायद वहाँ आते होंगे। इंतजार मे बैठे लोगों के सामने की दीवार पर डॉ॰ बकरा की अनेकों तस्वीरें लगी थी जिसमे डॉ. बकरा अनेकों फिल्मी हीरो और हीरोइनों के साथ खड़ा मुस्करा रहा था। कुछ बड़े बड़े नेता लोग के साथ भी डॉ. बकरा अपना चोखटा लिए मुस्करा रहा था। बायीं तरफ की दीवार पे कुछ बड़ेमरीजों (लोगों) से लेकर अप्रीशीऐशन (Appreciation) पत्रों की फोटो कॉपी चिपकाई हुई थी जो मरीजों मे विश्वास पैदा करने का मार्केटिंग का नया तरीका था।  कई बेशकीमती सोफ़ों पे 3,4 लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे और समय बिताने के लिए कुछ अपने मोबाइल और कुछ अपने लैपटाप पे लगे हुये थे। पहली बार किसी डॉ. के क्लीनिक मे लैपटाप पे काम करते हुये मरीज को देखकर आश्चर्य हुआ। ये सब देखकर मैं बहुत प्रभावित हुआ और मुझे हैरानी में देखकर मेरा दोस्त ऐसे मुस्करा रहा था जैसे बच्चे को चिड़ियाघर देखकर खुश होने पर उसके पापा मुस्कराते हैं। कुछ देर पश्चात नीले रंग के कपड़े पहने हुये एक कम्पाउडर नीले रंग के छोटे से सुंदर से बैग मे दवा भरके एक मरीज को देने आया। मरीज ने अपना लैपटाप बंद किया और दवाओं का बैग लेकर बड़े गर्व से बाहर चला गया।  
मेरे दोस्त ने रिस्पेशन पर बैठे एक साहब से कहा की मुझे ये SMS मिला है और डॉ. साहब से मेरा अपोइनमेंट है
आप फ़र्स्ट टाइम आए है सर ?”, रिस्पेशन  पर बैठे व्यक्ति ने विनम्र लहजे में पूछा
हाँ”, दोस्त ने कहा ।
आप ये फॉर्म भर दीजिये”, उसने एक फॉर्म दोस्त की तरफ बढ़ा दिया। दोस्त ने फॉर्म लिया और मेरे पास आकर भरने लगा। भरने के बाद फॉर्म रिसेप्शन पर दे दिया।
कुछ देर के इंतजार के बाद दोस्त का नाम पुकारा गया, मै भी दोस्त के साथ जाने लगा तो रिस्पेसन पर बैठे व्यक्ति ने सिर्फ मरीज को जाने को कहा। में वापिस आकर क्लीनिक का वैभव देखने लगा। पास ही रखे फिल्टर से मैंने ठंडा पानी पिया और दीवार पे लगे टीवी को देखने लगा।
करीब आधे घंटे के बाद दोस्त बाहर आया , उसके चेहरे से लग रहा था की डॉ. ने उसे कोई बड़ी बीमारी बताई थी। रिस्पेशन पर आकार उसने क्रेडिट कार्ड से करीब आठ हज़ार रुपए का पेमेंट किया और बुझे मन से मेरे पास आकार बैठ गया। मैंने पूछा ,”क्या कहा डॉ.बकरा ने
अंदर डॉ. बकरा नहीं कोई लेडी डॉक्टर है , उसने कहा की इलाज लंबा चलेगा
कितना लंबा”, मैंने उसके और करीब होते हुये पूछा ।
कई पैकेज बताए हैं जिनकी अलग अलह कीमत है ,दोस्त ने कहा ।
पैकेज ?” , मैंने आश्चर्य से पूछा।
हाँ , छ: महीने से लेकर पाँच साल तक का”, दोस्त ने उदास होते हुये कहा।
लेकिन उस विज्ञापन मे तो छपा था सिर्फ 250 रुपए लेते हैं फिर ये तुमने आठ हज़ार क्यों दिये ?
मैंने छ: महीने का प्लान लिया है”, दोस्त ने कहा ।
 
प्लान ? , अरे तुम सलाह के लिए आए थे या किसी ट्रैवल प्लान के लिए ?”, मैंने कहा ।
नहीं, वो उस आठ हज़ार रुपए मे छ: महीने का परामर्श , चैकउप ,दवाइयाँ सब देंगे”, दोस्त ने कहा।
चलो फिर ठीक है अगर बीमारी ही ऐसी है जिसको ठीक होने मे ज्यादा समय लगेगा तो छ: महीने दवा दारू का खर्चा तो इतना हो ही जाता ,दोस्त भी मेरे जवाब से कुछ संतुष्ट हुआ और दवाइयाँ मिलने का इंतजार करने लगा।
कुछ देर बाद वही  कम्पाउडर वैसा ही दवाओं का थैला लेकर दोस्त के पास आया और वो छोटा सा बैग उसे देते हुये बोला।
सर , ये तीन दिन की दवा है सुबह शाम लेनी है। तीन दिन के बाद आपको फिर से परामर्श के लिए आना है तब और दवाइयाँ दी जाएंगी।“, कहकर वो चला गया।
उसके जाने के बाद दोस्त ने सोफ़े पर संभलकर बैठते हुये बैग को खोला , मैं भी उत्सुकतावश उस बैग को देखने लगा। उसके अंदर एन छोटा सा नीले रंग का लिफाफा था। लिफाफे को दबाने से लग रहा था उसमे कुछ है। दोस्त ने लिफाफा खोला तो उसमे होम्योपैथिककी चूसने वाली सफ़ेद रंग छोटी छोटी छ: गोलियां थी। दोस्त ने गोलियां उलट-पलट कर देखी। मैं उन आठ हज़ार की छ: गोलियों को देखता रह गया। खैर मैं जैसे तैसे दोस्त को समझा बुझाकर घर ले आया और कहा की सायद तीन दिन बाद और दवाइयाँ देंगे।
 
अगले तीन दिन दोस्त उन गोलियों को चूसता रह, और फिर तीन दिन बाद, मुझे फिर से उसके साथ डॉ.बकरा के भव्य क्लीनिक के दर्शनार्थ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कड़ी धूप के बाद डॉ.बकरा के क्लीनिक के ए.सी की ठंठक से काफी सुकून मिला। ये बात अलग है की उस सुकून के लिए मेरे दोस्त ने आठ हज़ार रुपए दिये थे।
 
कुछ समय के आन्दालोक अनुभव के पश्चात दोस्त का नाम पुकारा गया। वो अंदर गया और उस दिन की तरह आधे घंटे बाद बाहर आया। मुझे मन से मेरे पास आकार बैठ गया। 
क्या कहा डॉ. ने”, मैंने पूछा ।

कहा है इंतजार कीजिये ,काउंटर से दवा मिलेंगी
हम इंतजार करने लगे। कुछ ही समय पश्चात काउंटर से दोस्त का नाम पुकारा गया तो मैं भी दोस्त के साथ बढ़ गया। फिर वही नीला बैग हमारी तरफ बढ़ाया गया, उसे खोला तो उसमे वैसा ही नीले रंग का लिफाफा और उसमे वही छ: नन्ही नन्ही गोलियां थी। दोस्त ने काउंटर के उस तरफ बैठे व्यक्ति से पूछा, डॉ. ने एक Ointment (मरहम) के लिया बोला था
हाँ”, ये लीजिये , इसके 270 रुपए आपको देने होंगे”, दवा देने वाले ने कहा ।
 
क्या !, लेकिन दवाओं के लिए मैंने आठ हज़ार पहले ही जमा करा दिये”, दोस्त ने आश्चर्य से कहा।
सर , वो सिर्फ गोलियों और परामर्श के दिये हैं”, दवा देने वाले ने विनम्र भाव से कहा।
लेकिन ये दवा भी सोरियासिस के लिए है”, दोस्त ने कहा।
जी हाँ, लेकिन ये क्रीम है इसलिए आपको इसके पैसे अलग से देने होंगे
काफी बहस के बाद मैं बकराबन चुके अपने लूटे पिटे दोस्त को घर ले आया। दूसरे दिन उसे एक प्राइवेट क्लीनिक मे दिखाया। डॉ. की फ़ीस और दवाओं के मिलाकर कुल 200 रुपए खर्च हुये। एक महीने के इलाज के बाद मात्र 500 से 600 रुपए खर्च करने के बाद दोस्त की बीमारी लगभग ठीक हो चुकी थी। अलमारी मे पड़ी डॉ. बकरा की दी हुई वो मीठी गोलीयां  आजकल उसके बच्चे चुराकर चूसते रहते हैं।



-“विक्रम”

    

मंगलवार, मार्च 26, 2013

मिट चुकी वो राहगुजर


धुंधला गए वो सभी निशां
मिट चुकी वो राहगुजर

बुढ़ा हो चला अब , वो 
किनारें का  पुराना मकान,
जो था कभी हमारी 
मुलाकातों का निगहबान ।

बिखर गए वो  दीवार-ओ-दर ... मिट चुकी वो राहगुजर...

उग आई उन राहों पे  
नीरस सी तनहाइयाँ
फैली हैं फिज़ाओं में
जुदाई की रुसवाईयां 

क्यों बिछड़ गए तुम हमसफर  ... मिट चुकी वो राहगुजर...

उग आए उस झील मे 
कुछ छोटे कुछ बड़े मकान ।
गोद मे ढलती थी जिसके   
अपनी सुबह अपनी शाम 

कहाँ गई वो सभी लहर  ... मिट चुकी वो राहगुजर...
 
बसी है बरसों बाद भी
तेरी महक फिज़ाओं मे

एक ख्याल गर्म सासों का
और कदम जाते हैं  बहक
 

फिर आता नहीं कुछ भी नज़र ... मिट चुकी वो राहगुजर...

 
- विक्रम


 
 
 
 
 
 

बुधवार, मार्च 13, 2013

फेसबूक से फ्रेंडशिप तक


अक्सर सुनने मे आता है  की फेसबूक या अन्य किसी सोशल साइट्स से कैसे अपराधों को अंजाम दिया जाता है । मगर इसके पीछे सोशल साइट्स का कसूर नहीं बल्कि ये इंसानी दिमाग का फितूर है जो किसी भी चीज को मध्यम बनाकर ऐसे अपराधो को जन्म देता है । में भी फेसबूक पिछले दो तीन साल से इस्तेमाल कर रहा हूँ। इन सालों में बहुत से दोस्त बनाए, कुछ हाय हैलो तक सीमित रहे , कुछ बरसों पुराने दोस्त अक्सर मिल गए , कुछ काफी क्लोज फ्रेंड्स भी बने जिनसे अक्सर बातें होती , फोन नंबर तक भी हमने शेयर किए।  

अभी इसी माह 03 मार्च’2013 को कुछ दोस्तों ने एक सामाजिक समारोह के दौरान मिलने का निश्चय किया। में पहले किसी से आपने सामने नहीं मिला था मगर हर एक की फेसबूक के मध्यम से एक छवि मेरे मानस पटल पर थी। अक्सर होने वाली बातों के दरम्यान उनके वक्तित्व का भी एक रेखाचित्र दिमाग में कहीं अंकित हो चुका था।  

03-मार्च-2013 को  जयपुर के राजपूत सभा भवन” मे  कुँवर आयुवान सिंह हुडील का  स्मृति समारोह मनाया जाना था। और इसी दिन अधिक से अधिक फेसबूक दोस्तों के इकट्ठे होने का प्रोग्राम था तो मेंने भी जाने का प्रोग्राम बनाया , मुझे बंगलोर से जयपुर के लिए निकलना था, सो नए दोस्तों से मिलने की उत्कंठा में सुबह 4 बजे उठकर जल्दी जल्दी से तैयार होकर एयरपोर्ट के लिए निकला। तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार मे निर्धारित समय पर वहाँ पहुँच गया जहां करीब हजारों लोगों का मजमा लगा था। राजपूत समाज के अनेकों स्त्री पुरुष समाज के प्रतिष्ठित लोगों के प्रवचन सुन रहे थे।


अब मुद्दा ये उठा खड़ा हुआ की पहचाने कैसे ? मगर इसका हल भी हर एक के पास था और वो था सभी की फेसबूक प्रोफ़ाइल में असली फोटो का होना। मेरे समारोह मे शामिल होने से पहले ही गेट पर मुझे एक दोस्त (भँवर सिंह राठोड़) ने पहचान लिया। बहुत ही मिलनसार और मृदु स्वभाव के स्वामी। उनसे कुछ ही पलों के वार्तालाप से अपनापन का अहसास  होने लगता है। वो मुझे बाकी के दोस्तों से मिलने ले गए जो भीड़ मे यहाँ वहाँ बैठे हुये थे।
  

सामने ही कुछ कदम की दूरी पर महावीर सिंह राठोर बैठे हुये मिले जिन्हे मैंने दूर से ही पहचान लिया। एक युवा पुलिस ऑफिसर होते हुये भी सामाजिक कार्यक्रमों में अच्छा दखल रखते हैं। इनसे फेसबूक के शुरुवाती दिनों में कुछेक राजपूत सामाज की  बातों को लेकर  मेरी अच्छी ख़ासी बहस हुई थी, यहाँ तक की मैंने इन्हे ब्लॉक तक कर दिया था। मगर धीरे धीरे एक दूसरे को हमने समझने की कोशिश की तो वक़्त के साथ साथ हम बहुत अच्छे दोस्त साबित हुये जिसकी बदौलत मे आज हजारों किलोमीटर का सफर तय कर इनसे मिलने आ गया। बहुत ही सुलझे हूए व्यक्ति। इनसे मिलकर लगता नहीं की आप किसी पुलिस ऑफिसर से मिल रहे हैं। बहुत ही शांत और सौम्य स्वभाव के धनी। अपनी ईमानदारी के चलते नेता लोगों की आँख की किरकिरी बने महावीर सिंह जी अक्सर अखबारों मे जगह पाते रहते हैं। एक अच्छे लेखक और बहुत ही प्यारी से बेटी के पिता महावीर सिंह जी कुल मिलाकर एक शानदार इंसान हैं और मुझे फ़क्र है की ये मेरे फेसबूक फ्रेंड हैं।

 उम्मेद सिंह “करीरी” , एक होनहार और कर्मठ युवा हैं, जो समाज के नाम पर या दलगत राजनीति करने वालों को उनकी औकात याद दिलाते हैं। समाज के नाम पर बिजनेस करने वालों के घोर विरोधी रहे उम्मेद सिंह जी अक्सर अपने विरोध का बिगुल बजाते नजर आते हैं। समाज हित के लिए सदा सजग रहते हैं। जमीन से जुड़ा व्यक्तित्त्व हर किसी को इनका मुरीद बना सकता है। पिछले दिनो इन्होने एक बहुत ही गरीब परिवार जिसमे एक अपंग बेटा और उसकी माँ थे , उनकी फेसबूक के माध्यम से काफी आर्थिक सहायता की। अक्सर ऐसे ही सामाजिक कार्यक्रमों मे उलझे रहने से उम्मेद सिंह जी को  आत्म संतुष्टि मिलती है।




शिखा सिंह चौहान , एक हंसमुख और खुले विचारों की महिला। लड़की होना कभी उसके आड़े नहीं आया, परिवार से स्वतन्त्रता मिली तो अपनी राहें खुद तय की। एक सफल गृहणी और दो प्यारी सी बच्चियों की माँ होने की जिम्मेदारियों के साथ साथ सामाजिक कार्यक्रमों में भी अपनी मौजूदगी दर्ज करवाती हैं। शिखा भी उसी सुबह दिल्ली से फ्लाइट द्वारा जयपुर पहुंची थी। शिखा के सामने कोई भी अंजान ज्यादा देर तक अंजान बना नहीं रह सकता, वो बहुत जल्दी घुलमिल जाती है। जब बोलने लगती है तो बस शिखा ही बोलती है बाकी चुप ही हो जाते हैं।


 वीरेंद्र सिंह शेखावत, हरफनमौला,बिंदास जैसे शब्द सायद इन्ही के लिए बने थे। बहुत खुशमिजाज़ व्यक्तित्व। “टेंशन लेने का नहीं देने का” जैसे संवाद इनपे खूब जमते हैं। मदद के लिए हर वक्त तैयार रहने वाले वीरेंद्र सिंह जी दोस्तों मे अपना एक ख़ास मुकाम रखते हैं। हंसी-मज़ाक के साथ माहौल को अपने हक मे करने का हुनर इन्हे खूब आता है। ज़िंदगी का लुत्फ़ पूरे जोश से उठाते हैं, इसी वजह से मायूसीयां इनसे फ़ासला बनाकर ही रहती है।

 राजवीर चौहान, बहुत मिलनसार और सौम्य  स्वभाव के राजवीर जी को पहचान ने मे मुझे थोड़ी दिक्कत हुई क्योंकि इनकी पहले प्रोफ़ाइल मे लगी फोटो के क्लोजउप वाला फोटो नहीं था। लेकिन मैंने इनकी आवाज से इन्हे तुरंत पहचान लिया। मेरी और राजवीर जी की अक्सर फोन पे काफी बातें होती थी मगर हमे मिले थे पहली बार। खुले दिलोदिमाग वाला इनका व्यक्तित्व  हर किसी को आकर्षित करने वाला है। जमीन से जुड़े एक मिलनसार व्यक्ति हैं।



 बलबीर राठोर , राहुल सिंह शेखावत काफी युवा है। इस उम्र मे भी सामाजिक गतिविधियों मे बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। अपने बड़ो का आदर करना इनके संस्कारों मे शुमार हैं , और वही असामाजिक हरकतों और तत्वों से निपटना बखूबी आता है। इनसे मिलकर काफी अच्छा लगा। ऐसे युवा ही भविष्य मे समाज को सदा शीर्ष रखेंगे।

   

बाकी के सदस्यों का परिचय अगले अंक मे ।

 शाम को सभी सदस्यों के लिए शानदार दावत का इंतजाम भी महावीर सिंह जी ने किया।














 


 







·         1. कुँवर आयुवान सिंह के बारें मे अधिक जानकारी के लिए श्री रतन  सिंह शेखावत के ब्लॉग (http://www.gyandarpan.com/2011/10/blog-post_16.html ) पर विजिट करें।

नुकीले शब्द

कम्युनल-सेकुलर,  सहिष्णुता-असहिष्णुता  जैसे शब्द बार बार इस्तेमाल से  घिस-घिसकर  नुकीले ओर पैने हो गए हैं ,  उन्हे शब्दकोशों से खींचकर  किसी...

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