बुधवार, दिसंबर 25, 2013

याद आता है ....

हल्की गर्मियों की
शीतल अंधेरी भोर में
माँ का आँगन में
मेरे सिरहाने बैठना ,
अपनी मथनी बांधना ,
और दही से
मक्खन निकालना...... याद आता है

मंथन के  संगीत का
मेरे कानों मे
देर तक बजना  ,
आरोह अवरोह  
के दरम्यान  
मंथन की लय का
बनना बिगड़ना
और फिर छाछ पे
मक्खन का छाना...... याद आता है ।

मक्खन आने की
सुगबुगाहट पर ,     
माँ के पास बैठकर    
बिलोने मे झांकना
और फिर माँ का
मुस्करा कर,
ठंडी- ठंडी
मक्खन की डलियाँ
मेरे मुंह मे रखना ....... याद आता है ।


"विक्रम"


शनिवार, दिसंबर 21, 2013

तन्हा सा लम्हा

परछती के तिमिर
तन्हा से कोने मे
शिथिल श्लथ    
एक अधूरा सा लम्हा...
है प्रस्फुटन के लिए
व्याकुल सा...
 
जब कभी झुलसाती है
विरह की उष्णता
तब.. मुझे
पड़ता है  संभालना
रखकर    
तरबतर, चक्षुजल से,
उस अधूरे लम्हे को...
 
मेरे ख़्वाबों में लुप्तप्राय –सा  
वो अतीत   
वो नैसर्गिक लावण्य
वो उद्धत तरुणाई
स्पर्श को ललचाता    
मृदुल  कटि सौंदर्य ...
सब सोचकर है
हतोत्साहित लम्हा ।
 
-विक्रम

रविवार, नवंबर 24, 2013

वक़्त


वक़्त आज भी उस खिड़की 
पे सहमा सा खड़ा है

भुला कर अपनी
  
गतिशीलता की प्रवर्ती

जिसके दम पर
 
दौड़ा करता था... सरपट
 
और...

फिसलता रहता था मुट्ठी 
में बंद रेत की मानिंद ।


शामें भी उदासियाँ ओढ़े
,
बैठी रहती है उस राहगुजर के
 
दोनों तरफ
, जिनके दरमियाँ  
मसलसल गुजरती
  रहती  हैं 
स्तब्ध
, तन्हा ,व्याकुल  रातें

अलसाई-सी भौर
 
भी अब
रहती है ऊँघी
, बेसुध,अनमनी-सी

वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
   
जो बेचैन
,बेसब्र सा रहता था 
धूप से नहाई दोपहरी मे ।


 
- “विक्रम”

रविवार, अक्तूबर 20, 2013

मुसाफ़िर


ट्रेन से उतरते ही विजय को एक भिखारी औरत ने कोहनी से धक्का दिया, और फिर उसके पीछे पीछे मजदूर से दिखने वाले  एक  शख्स ने धक्का देने वाली भिखारी औरत को ज़ोर से धक्का मारा जिस से वो मुँह के बल गिरी। विजय उस शख्स को कुछ कह पाता उस से पहले ही वह विजय का सामान उठाते हुये बोल पड़ा ,”कहाँ जाना है साहब ? बस अड्डे या धर्मशाला ? आइये तांगा बाहर खड़ा है  
स्टेशन पर ज्यादा भीड़ नहीं थी, उतरने वाले मुसाफिरों मे  विजय और इक्का दुक्का पैसेंजर ही थे। यहाँ दिनभर मे दो तीन ट्रेन ही आती थी। सुंदरगढ़ एक पहाड़ी स्टेशन था जहां सिर्फ गर्मियों मे ही सैलानी आते थे इसलिए  सर्दियों मे प्राय सन्नाटा ही पसरा रहता था।       
“लेकिन तुमने उसे इतने ज़ोर से धक्का क्यों मारा ?”, विजय ने मुँह के बल गिरी उस भिखारी औरत की तरफ इशारा करते हुये गुस्से में धक्का देने वाले शख्स से पूछा। विजय ने एक पल उस मैले-कुचेले कपड़े पहने  औरत की तरफ  देखा और बाद में कुछ सोचते हुये उस शख्स  के पीछे पीछे चल पड़ा जो उसका सामान उठाए बाहर की तरफ जा रहा था।
गिरने वाली भिखारी औरत ने अपनी फटी हुई गंदी सी शॉल को संभाला  और  उन दोनों की तरफ देखते हुये बड़बड़ाने लगी ।
विजय पलट पलट कर उस भिखारी औरत की तरफ  देखता जा  रहा था  जो लगातार उसी  तरफ देखकर कुछ बड़बड़ाए जा रही थी।
तांगा धर्मशाला के सामने रुक गया, विजय ने तांगे वाले को पैसे देते हुये पूछा ,”कौन थी वो भिखारी औरत ?”
“अरे साहब वो पगली है , स्टेशन पर हर आने वाली मुसाफिर के ऐसे ही पीछे पड़ी रहती है । “
“हूँ”
विजय ने धर्मशाला मे अपने लिए कमरा लिया और अपना सामान कमरे मे रखकर अंधेरा होने से पहले शहर मे घूमने का इरादा कर धर्मशाला से बाहर आ गया । आज पच्चीस साल के लंबे अंतराल के बाद भी सुंदरगढ़ मे कोई खास तब्दीली नहीं आई थी। सड़के आज भी वैसी ही टूटी-फूटी और बाजार मे सड़क के किनारे वही पहले की तरह सामान बेचने वालों रेहड़ी और ठेले वालों की भीड़ । हाँ कुछ बड़ी दुकाने और मॉल जरूर बन गए हैं । विजय टहलता हुआ शोरगुल से दूर एक कॉलेज के सामने जाकर खड़ा हो गया। वर्षों पहले इसी कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। बाहर से देखने पर लगता था कॉलेज मे अंदर की तरफ काफी निर्माण हो चुका है। कॉलेज का गेट भी पहले की अपेक्षा बहुत बड़ा बना दिया। कॉलेज के सामने खाली पड़ी जमीन पे अब काफी दुकाने खुल गई थी ।  कुछ देर घूमकर विजय धर्मशाला की तरफ चल पड़ा। रास्ते में उस रेस्टोरेस्ट के सामने ठिठक क रुक गया और फिर कुछ सोचकर अंदर चला गया। विजय अपनी उसी जानी पहचानी टेबल की तरफ बढ़ गया जहां कभी मधु के साथ  बैठकर हसीं सपने बुने थे । रेस्टोरेन्ट के काउंटर पर पच्चीस छब्बीस साल का एक नौजवान बैठा था। विजय की नजरें काउंटर के आस पास  मदन नामक उस शक्स को ढूंढ रही थी जो उन दिनों रेस्टोरेन्ट का मालिक हुआ करता था । उन दिनों मदन की उम्र भी लगभग उस नौजवान जितनी ही रही होगी , यानि उन दिनों विजय और मदन लगभग हमउम्र थे इसलिए  विजय की उस से अच्छी जान पहचान थी। विजय , मदन और मधु अक्सर बैठकर बातें करते थे। चाय पीकर काउंटर पर पैसे देते वक्त विजय ने काउंटर के उस तरफ बैठे नौजवान  से मदन के बारे मे पूछा ।
“यहाँ पहले मदन पारिक जी बैठा करते थे “, विजय ने पूछा ।
“जी... , हाँ  अंकल वो मेरे पापा है ,दोपहर तक वो काउंटर संभालते हैं और उसके बाद में  , आप कैसे जानते हैं पापा को ? पहले कभी देखा नहीं आपको ?”
“हाँ, वो पहले में अक्सर यहाँ आता था , बहुत साल पहले ... लगभग पच्चीस साल पहले की बात है..“
  “ओहो.... बहुत लंबा अरसा हो गया अंकल फिर तो आपको पापा से मिले, अब आप एक दूसरे को पहचान भी पाओगे ?”, नौजवान ने हँसकर पूछा ।
“सायद”, विजय ने मुस्करा कर कहा और फिर कभी आने का वादा कर धर्मशाला की तरफ चल दिया ।
विजय रातभर मधु के बारे मे सोचता रहा । पच्चीस साल पहले का वो दृश्य उसकी आंखो के सामने किसी चलचित्र की भांति तैरने  लगा । उस वक़्त ज़ुदा होने से पहले मधु उस से लिपट कर बहुत रोई थी। उसने ये कहकर मधु को सांत्वना दी की वो आगे की पढ़ाई के लिए भी यहीं दाखिला लेगा और दो महीने के भीतर ही  वापिस आयेगा । मधु उसे विदा करने स्टेशन पर साथ आई थी । उस दिन  मधु का खिला खिला चेहरा बिलकुल बुझ-सा गया था। गाड़ी छूटने के साथ ही मधु की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। विजय का हाथ थामे वो कुछ देर ट्रेन के साथ चलती रही, फिर ट्रेन के रफ्तार पकड़ने पर विजय ने उसके हाथ को चूमा  और अपना ख्याल रखने का वादा कर हाथ छुड़ा लिया । मधु का हाथ अब भी हवा मे था , वो देर तक ट्रेन के दरवाजे पर खड़ी विजय को निहारती रही जो खुद भी अपने आँसू पोंछ रहा था और मधु की तरफ हाथ हिला रहा था । वक़्त के क्रूर चेहरे पर  क्रूरता और गहरा गई थी ।

विजय उसके बाद फिर पलटकर अपने उन पनपते ख्वाबों को पूरा करने फिर ना आ सका। पारिवारिक कारणों से उसने अपने ख्वाब वक़्त के हाथों तबाह होने के लिए छोड़ दिये। मगर इतने लंबे अरसे बाद भी विजय उस बिछोह का दर्द भुला नहीं पाया था और आज उस दर्द से निजात पाने फिर से वहीं आ गया था जहां से ज़िंदगी के मायने  उसके लिए बदल गये थे ।
अगले चार से पाँच दिन मधु के मिलने की सभी संभावित जगहों को छान मारा मगर कोई सफलता नहीं मिली। मधु से मिलकर वो अपने किए की माफी मांगना चाहता था । मधु का परिवार अब उस घर मे नहीं था जहां वो उन दिनों रहते थे। मधु के मिलने की उम्मीद तो उसे पहले भी कम ही थी। वो जानता था की इतने दिनों तक भला कैसे कोई किसी के इंतज़ार मे बैठा रह सकता था। मगर उसका दिल ना जाने क्यों मधु के मिलने की आस पाले बैठा था। आखिरकार थक हारकर विजय ने वापिस गाँव जाने का इरादा किया और वापिस जाने से पहले एक बार मदन से मिलने का निश्चय किया।   
 दूसरे दिन सुबह वापिस अपने गाँव चलने की तैयारी में अपना सूटकेस उठाया और स्टेशन की तरफ चल पड़ा। रास्ते मे मदन के रेस्टोरेन्ट मे पहुँच मदन के बारे मे पूछा तो उसके बेटे  ने कहा ,”अंकल पापा आज नहीं आए। रविवार को में ही पूरा दिन रेस्टोरेन्ट  संभालता हूँ। आप कल इसी वक़्त आइये उस वक़्त पापा आपको जरूर मिलेंगे । “
“ओहो ...नहीं, कल तो में नहीं आ पाऊँगा , में आज वापिस जा रहा हूँ, एक काम करो बेटे , मुझे अपने पापा का मोबाइल नंबर दो में उनसे फुर्सत मे बात कर लूँगा। “ , मदन के बेटे से मदन के मोबाइल नंबर लेकर विजय स्टेशन की तरफ चल पड़ा। रास्ते भर वो सोचता रहा की काश उन दिनों मे भी मोबाइल होता तो आज मे मधु को यूँ न खोता ।
स्टेशन पर पहुँचने के बाद उस स्थान को देखकर ठिठक गया जहां मधु उस से बिछुड़ गई थी। वो आस पास देखकर उस जगह का सही अंदाजा लगाने लगा । स्टेशन पहले की अपेक्षा  काफी बड़ा बना दिया गया था। तभी ट्रेन ने प्लेटफार्म पर आने का संकेत दिया तो विजय  ने चौंककर उस तरफ देखा और अपना सूटकेस संभाले फिर से उस शहर से विदा लेने भारी  कदमों से ट्रेन की तरफ बढ़ गया । कुछ देर बाद ट्रेन पटरियों पर रेंगने लगी । विजय ट्रेन के दरवाजे पे आकर खड़ा हो गया और पीछे छूटते प्लेटफार्म को देखकर बरसों पहले जुदाई के उस मज़र को याद कर फफक कर रो पड़ा ।
गाँव पहुँच एक दिन विजय को मदन की याद आई तो उसने बात करने लिए उसका नंबर डायल किया। दूसरी तरफ से आवाज आने पर विजय ने पूछा।
“क्या में मदन पारिक जी से बात कर सकता हूँ ?”
“जी, हाँ बोलिए , में ही मदन पारिक हूँ”, दूसरी तरफ से आवाज आई ।
“मदन !, में .... में विजय ... विजय राज़दान ..... पहचाना ?” दूसरी तरफ से कोई उत्तर नहीं मिलने पर विजय ने दुबारा कहा ।
“ मैं विजय राज़दान .... आज से करीब पच्चीस साल पहले आपके रेस्टोरेन्ट मे था .... मधु और में अक्सर आपके रेस्टोरेन्ट मे आते थे ,आप मैं और मधु  तीनों अक्सर बैठकर बातें करते थे । “
“हाँ... हाँ ...विजय  .. अरे  ! तुम कहाँ हो , कहाँ गायब हो गए थे, और मेरा नंबर कैसे मिला तुम्हें ?”
“ में तुम्हारे रेस्टोरेन्ट मे गया था, तुम से मुलाक़ात तो हो नहीं पाई तुम्हारे बेटे से तुम्हारा नंबर लिया, और कैसे हो यार ? बहुत साल हो गए मिले हुये। “ , विजय ने खुश होते हुये पूछा ।
“हाँ में ठीक हूँ , लेकिन तुम कहाँ गायब हो गए थे ? आए क्यों नहीं ?,मधु की खबर मिली ?”
“मेरे वहाँ वापिस ना आने का कारण तो मुझे खुद भी नहीं पता .... की में क्यों नहीं वहाँ वापिस जा सका , मधु को बहुत ढूंढा , उस से माफी मांगना चाहता था मगर कोई नामोनिशान नहीं मिला उसका। क्या तुम्हें उसकी कोई खबर है ?, विजय ने मायूसी के साथ पूछा ।
“हाँ, तुम्हारे जाने के कुछ साल बाद तक वो तुम्हारे बारे मे पूछने आती थी। मगर पिछले बीस सालों से तो वो ......”, कहते कहते दूसरी तरफ से मदन ने बात बीच मे ही छोड़ दी ।
“क्या ...क्या पिछले बीस साल से ...  कहाँ है वो , उसने शादी कर अपने घर तो बसाया लिया होगा ना ….. खुश तो है ना वो.... अपने पति और बच्चो के साथ....? हमारा मिलन तो सायद हम दोनों की किस्मत मे नहीं था “, कहते कहते विजय की आवाज भर्रा गई ।
“नहीं विजय ... कैसी शादी कैसा घर ....वो तो पिछले बीस सालों से तुम्हारे आने की राह में पागल होकर  स्टेशन पे भिखारी सा जीवन जी रही है । “
- विक्रम
 

रविवार, सितंबर 15, 2013

गुमशुदा हमसफर

 मुद्दतों पहले
रख छोड़ा था कहीं
एक लम्हे को मैंने,
वक़्त के
धागे से  बांध कर ।

धागे का  दूसरा छोर
दिल के किसी कोने में  
ना जाने क्यों  
ताउम्र रह गया
कहीं उलझकर ।

अक्सर वही लम्हा
पाकर तन्हा  मुझे
ले जाता है कहीं
दूर  धुंधले-से
रास्तों पे खींचकर ।

देखकर मैं, उन
धुंधले  मगर
पहचाने से रास्तों को,
तलाशता हूँ देर तक
वो गुमशुदा हमसफर....

-विक्रम

 


 

 

 
 


 
 

रविवार, जुलाई 28, 2013

- यादों का ज्वार-भाटा–

जब दिल के
समुन्द्र मे
तेरी यादों का ज्वार-भाटा
ठांठे मारने लगता है।  
तब में,
कागज की कस्ती और
कलम की पतवार लेकर
निकल पड़ता हूँ
समझाने
उन उफनती
लहरों को,
जो बिखर जाना
चाहती है,
तोड़कर
दिल की
मेड़ को ....
 
-विक्रम

मंगलवार, जुलाई 09, 2013

मास्टर जी (व्यंग)


जब किसी स्कूल के प्रांगण में छोटे बच्चो को मस्ती करते देखता हूँ तो मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं। उन दिनो  हम स्कूल के अंदर नहीं गेट के बाहर या फिर स्कूल के रास्ते के बीच में मस्ती करते थे। उन दिनों हमारे मास्टर जी को किसी कानून का डर नहीं होता था इसलिए स्कूल के अंदर मस्ती करने पर वो हमारी मस्ती जल्द ही उतार देते थे। लेकिन बाहर भी हमे ऐसा करते हुए कोई अध्यापक देख लेते तो, उस वक़्त तो वो कुछ नहीं बोलते थे। मगर क्लास मे होम-वर्क पूरा नहीं होने पर या किसी अन्य कारण मे हमारी धुलाई ये कहते हुए करते थे की, "आजकल बहुत उछल-कूद मचा रखी है तुम लोगों ने, बड़ी चर्बी चढ़ी है तुम सब पे।" इसी तरह पिटते-पिटते हम कुछ बड़े हुये तो हमारी पिटाई का तरीका भी कुछ बड़ा हो गया, क्योंकि कान उमेठना ,चांटा मारना तो अब गुदगुदी-सी फिलिंग देते थे।  

 अब कान पकड़ कर मुर्गा बनाना, शर्ट को पीठ से उठाकर ढीले हाथ से थप्पड़ मारना, सावधान की मुद्रा मे खड़ा कर के गाल पे अचानक घात लगाकर चांटा मारना और उस चांटे से बचने की कोशिश की तो बोनस के तौर पे दो चार चांटे और मिलते थे। कुछ अध्यापक तो थर्ड डिग्री के मास्टर थे।  वो हथेली पे डंडा नहीं मारते थे बल्कि हथेली को उल्टी करवाकर पीछे की तरफ उभरी हुई हड्डियों पे मारते थे और उसके बाद छात्र के चेहरे को गौर से देखते हुए प्रहार से उत्पन्न दर्द की अनुभूति का अंदाज़ा लगाते थे।  अगर दर्द उनकी उम्मीद पे खरा नहीं उतरता था तो ये क्रम तब तक दोहराया जाता जब दर्द खुद शरीर से बाहर आकर चिल्ला चिल्ला के नहीं कह देता की बस!
 

कुछ उम्रदराज अध्यापक गीली बेंत या लकड़ी का उपयोग करते थे, क्योंकि उनके शरीर मे उतनी ऊर्जा नहीं रह गई  थी की वो हम जैसे 25,30 छात्रों  को थप्पड़ से सुधार सकें। वो बेंत हमसे ही किसी पेड़ से तुड़वाते थे और फिर तोड़कर लाई गई लकड़ियों में से अपनी पसंद की लकड़ी छाँटते थे। इसके बाद वो हमे एक लाइन मे खड़ा करवाकर और सबको कहते की अपनी अपनी दोनों हथेलियाँ सामने रखो। सभी लड़को के हाथ प्रसाद लेने की मुद्रा मे हो जाने पर  लाइन के एक सिरे से दूसरे सिरे तक गीली बेंत से हमारी हथेलियों पे हारमोनियम बजाते हुये दूसरे सिरे तक चले जाते। मुझ जैसे शातिर ऐसे मे सुर चुराने की कोशिश करते और अपनी हथेली पीछे खींच लेते। मगर लय बिगड़ने पर तुरंत पकड़ मे आ जाता और फिर मुझे लाइन मेँ अलग से छाँटकर बड़ी तन्मयता से मुझपर तबला वादन का अभ्यास किया जाता।  इस तरह की इकलौती पिटाई मे बाकी छात्र अपना दर्द भूल मेरी पिटाई का लुत्फ उठाते थे

 
मगर हम भी ना जाने उस वक़्त किस मिट्टी के बने थे की पहले पीरियड मे पिटने के बावजूद दूसरे पीरियड मे भी पिटने के लिए बिलकुल तैयार रहते थे। लेकिन ये समझ नहीं आता की उन दिनों हम लोग पढ़ाई मे कमजोर थे, या हमारे अध्यापक कुछ ज्यादा ही पीटने के शौकीन थे, या फिर हमे ही पिटाई का चस्का लग गया था। सबसे शर्मनाक हालात तब पैदा होते जब कोई एक मार खाता था, क्योंकि पिटाई के बाद पूरी क्लास फिर उसका जमकर मज़ाक उड़ाती थी। मगर ये खुशी भी बहुत अल्प होती थी और कुछ समय बाद वो हंसने वाले लड़के गीली बेंत से अपनी कठोर त्वचा को मुलायम करवाते नजर आते थे। मगर इतनी धुनाई के बाद भी हमारे मास्टर जी ने, आज के टीचर की तरह हमे अपाहिज नहीं किया। उनकी पिटाई आज भी हमारा मार्गदर्शन करती है।  

 
- विक्रम
   

   

 

रविवार, जून 30, 2013

- दीवारें –

गाँव से उस दिन काकी की मौत की खबर सुनकर बहुत अफसोस हुआ। मेरा उनसे माँ बेटे का सा रिश्ता बन गया था। बचपन मे में रोजाना काकी के घर उनके दोनों बड़े बेटों मोहन और सोहन के साथ खेला करता था। उनके दो और बेटे थे जो उस वक्त बहुत छोटे थे।

काकी मुझे भी अपने बच्चो की भांति प्यार करती थी और में काकी के निश्चल और ममता से सरोबर प्यार मे डूबकर घर जाना ही भूल जाता था। माँ मुझे अक्सर उनके घर से जबर्दस्ती खींच कर घर ले आती थी मगर में फिर से कोई बहाना बनाकर भाग आता था।

में रात मे अक्सर काकी के घर मे ही मोहन और सोहन के साथ सो जाता था। घर काफी बड़ा था लेकिन हम लोग गर्मियों मे घर के बाहर के खुले अहाते मे सोते थे। रातभर खुले आसमान के नीचे खुली हवा मे सोना किसी जन्नत से कम ना होता था। हम सुबहा देर तक सोये रहते। मोहन और सोहन अक्सर उठ जाते थे मगर में सोया रहता। फिर सुबह माँ आती और काकी से बोलती की तुम इसको क्यों उठती, तो काकी कहती सोने दो बच्चा है ,अपने आप उठ जाएगा अभी। लेकिन काकी के मना करने पर माँ मुझे उठाकर घर ले जाती।

वक़्त गुजरता रहा और वक़्त के साथ साथ हम लोग भी बड़े हो गए, मेरी सरकारी नौकरी लगने के बाद हम लोग गाँव से शहर मे ही आकर बस गए, और फिर धीरे धीरे  गाँव में आना जाना भी एक तरह से ख़तम हो गया।

लगभग आठ साल पहले मोहन और सोहन की शादी मे और उसके चार साल बाद बाद उनके दोनों छोटे भाइयों की शादी मे हम लोग गाँव गए थे। काफी सालों बाद काकी से मिला तो काकी देखते ही रो पड़ी और मुझे अपने पास बैठाकर माँ ,बाबूजी और बाकी सदस्यों का हाल पूछती रही और साथ ही मोहन और सोहन की बहूओं को आदेश पे आदेश दिये जा रही थी की लड़के के लिए दूध लेकर आओ, मिठाई लेकर आओ , और हाँ दूध मे मलाई जरुर डालके लाना इसको बहुत पसंद है, कहते हुये काकी हँसकर मेरे सिर पर अपने झुर्रीदार हाथ फिराती।

उसके बाद जब पिछले साल किसी काम से गाँव जाना हुआ तो काकी से मिलने की ललक को नहीं रोक पाया और काकी के घर की तरफ चल पड़ा। उस वक्त काकी से मिले लगभग चार साल हो गए थे। काकी का घर काफी बदला हुआ सा लगा। खुले अहाते के चारों तरफ ऊंची चारदीवारी बना दी गई दी। पहले जहां अहाते मे घुसने का एक ही रास्ता था अब वहाँ चारदीवारी मे अलग अलग चार दरवाजे नजर आ रहे थे। में सोच विचारकर एक दरवाजे मे घुस गया। वहाँ बचपन का दोस्त मोहन बैठा था, उस से मिलने के बाद मैंने पूछा, “काकी कहाँ है  ?” जवाब मे मोहन ने एक तरफ इशारा करके कहा की वहाँ अजय के घर मे हैं। मैं उसका जवाब सुनकर भौचक्का सा रह गया। मोहन से काफी बात करने के बाद पता चला की वो चारों भाई अलग अलग हो गए हैं और अब काकी छोटे बेटे अजय के साथ बगल वाले घर मे रहती है।

में बड़े दुखी मन से मोहन के घर से बाहर आया। मैंने अपने चारों तरफ नजर घुमाकर वो अहाता तलाशने की कोशिश की जहां हमारा बचपन गुजरा था। मगर अब वहाँ सिर्फ दीवारें ही दीवारें नज़र आ रही थी। बाहर आकर चारदीवारी से एक दूसरे घर मे घुसा जो मोहन के अनुसार अजय का था। घर मे घुसते ही  चूल्हे के सामने काकी को बैठा पाया। उनके पास जाकर उनके पैर छूए और पास मे ही जमीन पर बैठ गया। जाड़े का मौसम था सो चूल्हे के सामने बैठकर काकी से बात करके मैं फिर से बचपन में खो जाना चाहता था। मुझे पहचानकर काकी बहुत खुश हुई थी  इस बात का अंदाजा मुझे तब लगा जब चुपके से उन्होने आँचल से खुशी से छलक़ते आँसू पोंछ लिए थे। काकी काफी बूढ़ी लग रही थी। उनके चेहरे से थकान साफ झलक रही थी। वहीं बैठे बैठे काकी ने मेरे लिए चाय बनाई और चाय पीने के दौरान मुझसे परिवार के हालचाल लेती रही।

काकी के साथ काफी वक़्त बिताने के बाद मैंने उनसे विदा लेनी चाही और जवाब मे उन्होने सदा की भांति सिर पर हाथ फिराते हुये कहाँ था, “जब भी गाँव आओ मिलने जरूर आना बेटे, मेरा तो अब कोई भरोसा नहीं कब ऊपर से बुलावा आ जाए , ये कहकर वो हंस पड़ी थी।
 
 -विक्रम
 

बुधवार, जून 19, 2013

- तेरी यादें –

 

सांझ के ढलते ही
मुझे पाकर तन्हा ,
सताने बेपन्हा
यूं दबे पांव ,
तेरी यादों का चले आना
तुम्ही कहो ये कोई बात है ?
 
बैठकर पहलू मे, मेरे
कांधे से लिपटकर, 
रातभर सिसक कर ,
देती हैं मुझे उलाहने पे उलाहना
तुम्ही कहो ये कोई बात है ?
 
अरुणोदय आँखों में, कुछ
ख्वाबों को छोड़कर,  
कुहासे को ओढ़कर 
तेरी यादों का चुपके से चले जाना
तुम्ही कहो ये कोई बात है ?


 


-विक्रम   

 

बुधवार, जून 05, 2013

चेन्नई का सापड़

सन 2003 मे मैं कंपनी के काम से पहली बार दक्षिण भारत (मद्रास चैन्नई) आया था। उस दिन ट्रेन अपने निर्धारित समय से करीब 2 घंटे लेट  थी। रात के करीब 10 बजे थे तो मैंने सोचा पहले खाना खाया जाए फिर कोई होटल तलाशता हूँ स्टेशन से बाहर आकर  सामने ही कुछ दूरी पर एक  रेस्टोरेन्ट मे चला गया। अंदर ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी बस  दो चार लोग ही बैठे थे । मैंने एक खाली टेबल देखा और अपने समान को पास रखकर वेटर का ऑर्डर लेने के लिए इंतजार करने लगा। तभी एक लड़का आया उसने केले का बड़ा सा पत्ता सामने टेबल पर बिछा दिया और एक प्लास्टिक का छोटा सा पानी का गिलाश भी रख दिया। में कुछ  कह पाता तब तक एक और वेटर आया और उस पत्ते के ऊपर चारों चारों तरफ 4, 5 कोई सब्जी जैसी सामग्री प्रसाद स्वरूप जल्दी जल्दी रखी और जैसे आया था वैसे ही जल्दी से चला भी गया । मेरे संभलने से पहले  एक और वेटर आया और उसने एक बड़े से स्टील के प्याले को अपने हाथ मे पकड़ी चावल से भरी बाल्टी मे डाला और चावल से लबालब भरकर उसे केले के पत्ते के बीचों बीच पलट दिया।
मैं मुँह खोल पता उस से पहले एक और वेटर आया और उसने एक जग जैसा कोई बर्तन अपने हाथ मे पकड़ी बाल्टी मे डुबोया और उसमे से सब्जी का ढेर सारा रस्सा  (सांभर) चावलों पे पलट दिया जिस से पत्ते पर बाढ़ जैसे हालत पैदा हो गए।  मैं जैसे तैसे करके सांभर के बहाव को चावल का बांध बनाकर रोकने की कोशिश करने लगा  मैंने आस पास नजर घुमाकर देखा की कहीं कोई मुझे इस हालात से दो चार होते हुये देख तो नहीं रहा। पास मे बैठे दो चार लोग जो अपने रंग-रूप की वजह से पक्के मद्रासी लग रहे  थे वो  कलाई तक अपने हाथ को चावलों के ढेर मे घुसेड़ कर खाने का लुत्फ उठा रहे थे। मैंने बड़े दीन भाव से वेटर की तरफ देखा जो पहले से मेरी तरफ बड़े कौतूहल से देखे जा रहा था। मैंने मिन्नत सी करते हुये चम्मच मांगी तो उसने मुझे ऐसे घूरा जैसे मैंने उस से पैसे मांग लिए हों। वो इंकार मे गर्दन हिलाकर एक और को चला गया।
गाँव मे छोटे थे तब बड़े बूढ़े कहते थे की राजपूत लोग पत्ते (पत्तल) पे खाना नहीं खाते। लेकिन जहां बर्तन के नाम पे चम्मच तक नहीं हो वहाँ समझौता करने के सिवा कोई चारा नहीं रहता। मैंने कभी ऐसे चावल नहीं खाये थे। हमारे इधर (राजस्थान मे ) साल मे सायद 2 या 3 बार किसी त्यौहार पर ही चावल बनते हैं और वो भी घी और खांड (चीनी) के साथ खाये जाते हैं।
खैर हर तरफ से मायूस होकर मैंने सामने पड़े ढेर मे स्वाद तलाशना शुरू किया। चावल को सभी सब्जी जैसे दिखने वाले पदार्थों के साथ अलग अलग मिलाकर खाने में कुछ खाने जैसा टेस्ट  परखने की कोशिश की। मगर काफी जद्दोजहद के बाद कुछ समझ नहीं आया तो आस पास बैठे लोगों को देखने लगा जो बड़ी तल्लीनता से चावल के ढेर को समेट रहे थे। मैं उनके खाने के तरीके की ऐसे नकल करने लगा जैसे परीक्षा हाल मे परीक्षार्थी करता है। काफी माथापच्ची के बाद पेट मे कुछ उतारने मे कामयाब रहा। मगर तभी सोचने लगा की  इस पत्ता रूपी प्लेट को भी कहीं खाना तो नहीं है ?  मगर तभी सामने देखा एक महाशय अपना खाना खत्म कर चुके थे और उन्होने अपने पत्ते को एक तह मे मोड़ा और टेबल पर रखकर खड़ा हो गया। मैंने भी  तुरंत उसकी देखा देखी अपने पत्ते को फ़ोल्ड किया मगर तभी पास आकर एक  वेटर बोल पड़ा। सापड़ नल्ला एल्लुवा ?’( खाना अच्छा नहीं क्या ?)। मेरी समझ नहीं आया तो उसने टूटी फूटी हिन्दी मे दोहराया। मैंने कहाँ , “अच्छा था। फिर उसने कहा की अगर खाना अच्छा लगे तो पत्ते को अपनी तरफ फ़ोल्ड करते हैं और अच्छा ना लगे तो दूसरी तरफ फ़ोल्ड करते हैं।
इस से पहले की कुछ और गलती हो जाए मैंने जल्दी से काउंटर पर  पेमेंट पूछा था पता चला खाने का बिल था सिर्फ 12 रुपए। मैंने भुगतान किया और होटल तलाशने निकल पड़ा।       
 

नुकीले शब्द

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