परछती के तिमिर
तन्हा से कोने मे 
शिथिल श्लथ    
एक अधूरा सा लम्हा...
है प्रस्फुटन के लिए 
व्याकुल सा... 
जब कभी झुलसाती है 
विरह की उष्णता
तब.. मुझे
पड़ता है  संभालना 
रखकर    
तरबतर, चक्षुजल से,
उस अधूरे लम्हे को...
मेरे ख़्वाबों में लुप्तप्राय –सा  
वो अतीत   
वो नैसर्गिक लावण्य 
वो उद्धत तरुणाई 
स्पर्श को ललचाता    
मृदुल  कटि सौंदर्य ...
सब सोचकर है 
हतोत्साहित लम्हा ।
-विक्रम
 
सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर .
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : मृत्यु के बाद ?
बहुत सुन्दर रचना .....
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत खूब !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना.....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ... जीवन समेटे हुए वो लम्हा जीता रहता है उम्र भर यादों में ...
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