शनिवार, मार्च 03, 2018

पारो भाभी



गांवों मे रिश्तों के लिए सम्बोधन होते हैं, चूंकि हम उस वक़्त बचपन के दौर मे थे तो वहीं पारो भाभी पचपन के दौर में थी इसलिए हमें उन्हे भाभी कहने मे झिझक महसूस करते थे जिसके चलते हम लोग उन्हे “ताई” कहकर पुकारते थे । हमने सुना था की पारो ने हम लोगों को गोद मे खिलाया था। वैसे पारो का असली नाम पारो नहीं था , वो तो गाँव वालों ने पारो के गाँव के नाम पर उनका नाम रख दिया था , उनके गाँव का नाम “पार” था इसलिए उनका नाम “पारली” या पारो” पड़ गया। पारो अपने दुखों से इतनी परेशान नहीं होती थी जितना वो दूसरों की दुख की खबर सुनकर परेशान हो जाती थी ।   जैसे ही उन्हे पता चलता की गाँव मे फलां की बहू को या बेटे या बेटी को बुखार है तो पारो भाभी वहाँ उनका दुख बांटने पहुँच जाती। पारो की सहानुभूति में औपचारिकता या दिखावा लेशमात्र का भी नही होता था , सामने वाले के दुख पर उनकी  आँखों से आँसू निकलने लगते थे ।

किसी परिवार का बीमार सदस्य जब तक ठीक नहीं हो जाता पारो बराबर उनके घर जाकर खैरियत लेती रहती थी । इस बीच पारो के अपने घर का काम बाकी पड़ा रहता था।  अपनी उम्र के आखिरी दौर मे पारो भाभी खुद बीमार रहने लगी मगर बावजूद इसके वो पास-पड़ोस की खोज खबर लेती रहती ओर हिम्मत करके वो लोगों के घर पहुँचकर बीमार का हाल-चाल पूछ लेती थी। मगर एक वक़्त ऐसा आया की  उनका चलना फिरना तक मुहाल हो गया  ओर अब वो घर मे कैद हो रह गई थी । दिनभर खटिया मे पड़ी पारो भाभी  गाँव के किसी व्यक्ति के आने की राह देखती रहती ताकि उससे गाँव के हाल पूछ सके , मगर थक-हारकर अपने ही बेटे या बहू से गाँव के हाल चाल पूछने लगती । लंबी बीमारी के बाद एक दिन पारो अपने अंतिम सफर पर निकल पड़ी। गाँव के कुछ लोग औपचारिकता निभाने आ गए थे।   
(सच्ची घटना पर आधारित)



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