भूले बिसरे, जीर्ण लम्हों पर,
यादों की एक खंडित छत ,
बूढ़ी दीवारों से लिपटी ,
वादों के पैबंद लगी
खस्ताहाल कुछ शामें....
सीलनभरे और अलसाए
मौसमों के टुकड़े, जो
बिखरे पड़े हैं....दूर तक
उन पुराने रास्तों पर....
गुजरा था वक़्त का एक सैलाब ,
जिन रास्तों पर .....।
वो उदास दोपहरी ,
अक्सर दीवार के टूटे हिस्सों से ,
भीतर झांककर चली जाती है ।
और रातों मे स्याह अंधेरे
चले आते हैं, सराय समझकर….
उनमें से कुछ....
बुझे हुये से,
पड़े रहते हैं कोनों मे दिनभर....."विक्रम"
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-10-2016) के चर्चा मंच "आ गयी दीपावली" {चर्चा अंक- 2511} पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंदीपावली से जुड़े पंच पर्वों की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर , दीप पर्व मुबारक !
जवाब देंहटाएंये यादें अक्सर ऐसी ही होती हैं ...
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