चित्र मे जो आप देख रहे हैं ये मेरे गाँव का एक पुराना कुआं है जो आज से करीब पच्चीस साल पहले बहुत आबाद हुआ करता था । एक जमाना था जब इसपर एक साथ चार रहट चलते थे और लोग अपनी बारी के इंतजार मे इसके चारों और बने चबूतरे पर रातभर बैठे रहते थे।
आज से करीब 20 से 25 साल पहले अस्पृश्यता बहुत ज्यादा थी, जो आज के दौर मे थोड़ा सा कम है। ऊंच-नीच, छुआ-छुत का काफी बोलबाला था। ऊँची जाति के लोग (खासकर ब्राह्मण,बनिये) नीची जाति के लोगों के पास से निकलते हुये निश्चित दूरी बनाकर निकलते थे और किसी चीज के लेन-देन के वक़्त हाथों मे एक निश्चित फासला रखते थे। मगर हँसी तब आती थी जब कोई नीची जाति का आदमी बनिये की दुकान से कुछ खरीदने जाता तो बनिया उसके हाथ से पैसे लेते वक़्त कोई फासला नहीं रखता मगर उसके बदले समान देते वक़्त फासला बना लेता। कभी किसी नीची जाति के किसी सदस्य को किसी ऊँची जाति के घर किसी काम से जाना होता तो वो वहाँ पहुँचकर घर के बाहर ही खड़ा हो जाता , उसको अंदर आने मे झिझक होती थी , हालांकि मैंने कभी सुना नहीं की किसी ऊँची जाति के आदमी ने उसको अंदर आने से मना किया हो , लेकिन लोगों ने अपनी धारणा कुछ ऐसी बना ली थी। ना कभी नीची जाति के लोगों ने आगे बढकर इस अस्पर्शयता की दीवार को लांघने की हिमाकत की और ना ही ऊँची जाति के लोगों ने इस दीवार की गिराने की।
...ऊँची जाति के लोग (खासकर ब्राह्मण,बनिये) नीची जाति के लोगों के पास से निकलते हुये निश्चित दूरी बनाकर निकलते थे और किसी चीज के लेन-देन के वक़्त हाथों मे एक निश्चित फासला रखते थे। मगर हँसी तब आती थी जब कोई नीची जाति का आदमी बनिये की दुकान से कुछ खरीदने जाता तो बनिया उसके हाथ से पैसे लेते वक़्त कोई फासला नहीं रखता मगर उसके बदले समान देते वक़्त फासला बना लेता।
पानी की सतह उन दिनों करीब सौ हाथ पे होती थी, यानि 150 फीट के आस पास। इसके आमने सामने के मुख्य भाग पे पत्थर की बड़ी बड़ी सिलाओं पे दो दो रहट आमने सामने लगे रहते थे । उस वक़्त इसका नाम “चार भूण (रहट) वाला कुआ” था जो आज भी वही है। दाईं तरफ के दोनों रहट ऊंची जाति के लोगों के लिए थे और बायीं तरफ के दोनों रहटों में से एक ज्यादा नीची जाति और दूसरा कम नीची जाति के लिए आवंटित था।
ऐसा ही कुछ कुए से पानी निकालते वक़्त होता , ज्यादा भीड़ होने पे ऊँची जाति के लोग नीची जाति वाले रहट की तरफ खिसकने लगते । चूंकि नीची जाति के लोगों की संख्या कम थी तो वहाँ भीड़ नहीं रहती थी। जब वहाँ नीची जाति के लोग नहीं होते तो ऊँची जाति वाले उस जगह पे थोड़ा पानी छिड़कते और उसके बाद अपने मटके वहाँ रख लेते। लेकिन कभी किसी का ध्यान उस तरफ नहीं गया की आखिरकार पानी तो उसी कुए से आता है जिसमे दोनों जाति के लोगों की रस्सी से बंधे बर्तन (डोल ) डुबकी लगाकर बाहर आते हैं। कभी कभी दोनों जातियों की रस्सियाँ और डोल अंदर आपस मे उलझ जाते और ऊपर आने पर वो अपनी अपनी रस्सियाँ अलग करके फिर से पानी खींचने मे लग जाते ।
ऐसा ही हाल कुए के बगल मे बने मंदिर में था। ऊँची जाति के लोग बड़े मजे से मंदिर के अंदर जाकर भगवान के दर्शन और पुजा-अर्चना कर लेते थे मगर नीची जाति के लोगों के लिए मंदिर की सीढ़ियों के पास ही एक जगह निर्धारित की हुई थी जहां खड़े होकर वो “ऊँची जाति के भगवान” की एक झलक पा लेते और वही से पूजा-अर्चना कर वापिस लोट जाते ।
मतलब उस वक़्त मौकापरस्ती वाली छुआ-छूत थी। अगर समय है तो जात दिखाओ अन्यथा गर्दन नीची करके काम निकाल लो। अब वक़्त ने करवट बदली है , बिजली पानी मे कुछ सरकारी दखलंदाज़ी होने से अब पानी खींचना नहीं पड़ता। आज कभी गाँव जाता हूँ तो देखता हूँ तो वही नीची जाति के लोग जो घर के अंदर आने मे झिझकते थे आज बे-धडक अंदर आ जाते हैं और इशारा पाने पर पास रखी कुर्सी या स्टूल पे धडल्ले से बैठ जाते हैं। हाथ मिलाना,साथ चलना तो आम हो गया। कुए की जगह अब पानी की टंकियाँ बनी है जिसमे नल लगे हैं मगर अब उन नलों का जाति के हिसाब से बंटवारा नहीं किया गया। ये सामाजिक बदलाव की पहल वक़्त ने की है न की किसी जाति विशेष ने।
"विक्रम"
"विक्रम"
समय बहुत कुछ बदलता है , अभी बहुत बदलाव बाकी है !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
समय बहुत कुछ बदलता है , अभी बहुत बदलाव बाकी है !
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आपको !
विक्रम सा सुदर रचना है सा! एक एक छोटी कहानी है जो आप की कहानी को ही बाया कर रही है !
जवाब देंहटाएंएक पंडित जी को बड़ी भूख लगी थी...प्राण निकलने ही वाले थे...ऐसे में वे एक सेवक जाति वाले के द्वार पंहुचे...सेवक ने माना कि भाग जागे हैं,विप्र पधारे हैं,सो उसने आदरपूर्वक पंडित जी को जो कुछ अच्छा बन पड़ा,भोजन कराया...भोजन के बाद सेवक ने पान प्रस्तुत किया...पंडित जी ने पूछा.''कौन जात के हो?'' उसने विनम्रता से कहा,'' जी,मैं सेवक जात से हूँ!''पंडित जी का चेहरा तमतमा गया...वे क्रोध में बोले,''नीच,तू क्या समझता है,मैं तेरे हाथ से पान खाऊंगा?''...बस,यही सत्य है...भूख में कुछ नहीं सूझता...भूख मिटते ही हम फिर से अवगुणों से युक्त इंसान बन जाते हैं...
विक्रम सा सुदर रचना है सा! एक एक छोटी कहानी है जो आप की कहानी को ही बाया कर रही है !
जवाब देंहटाएंएक पंडित जी को बड़ी भूख लगी थी...प्राण निकलने ही वाले थे...ऐसे में वे एक सेवक जाति वाले के द्वार पंहुचे...सेवक ने माना कि भाग जागे हैं,विप्र पधारे हैं,सो उसने आदरपूर्वक पंडित जी को जो कुछ अच्छा बन पड़ा,भोजन कराया...भोजन के बाद सेवक ने पान प्रस्तुत किया...पंडित जी ने पूछा.''कौन जात के हो?'' उसने विनम्रता से कहा,'' जी,मैं सेवक जात से हूँ!''पंडित जी का चेहरा तमतमा गया...वे क्रोध में बोले,''नीच,तू क्या समझता है,मैं तेरे हाथ से पान खाऊंगा?''...बस,यही सत्य है...भूख में कुछ नहीं सूझता...भूख मिटते ही हम फिर से अवगुणों से युक्त इंसान बन जाते हैं...
समय अपने साथ बदलाव भी लाता है और यही बदलाव आज देखने को मिल रहा है जो सुखद अहसास कराता है !!
जवाब देंहटाएंमुद्दा अछूत का था पर आपको किसी जाति ने छुआ तक नहीं निष्पक्ष विचार धन्यवाद !!!!!!!!
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