सोमवार, जनवरी 09, 2017

शेखावत कछवाहा

(क्षत्रिय राजवंशों का इतिहास )
 
अयोध्या नरेश मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र के जेष्ठ राजकुमार कुश के वंशधर कुशवाहा (कछवाहा) हैं। नरवर के सोढ़देव के पुत्र दूलहराय ने विक्रम की 12 वी. शती में दौसा पर आधिपत्य स्थापित कर राजस्थान में कछवाहा राज्य की आधारशिला स्थापित की। दूलहराय के पुत्र काकिल ने मीणों के अन्य स्थानों को हस्तगत कर आमेर को अपनी राजधानी बनाया। उदयकर्ण आमेर के बारवें अधिपति हुए।
 
कछवाहों के राजा उदयकर्ण कालीन राजनीतिक स्थिति और प्रभुत्व का राव जैतसी बीकानेर के समकालीन एक अज्ञात कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है ।
कछवाहा ऊतर भड़ किंवाड़, चढ़िया गिरन्दे चक्कि चाढ़ी ।
पुठी हथ मग्गई लग्गि पाईं, रइत कीध चाउन्ड राइ ॥
 
राजा उदयकर्ण (वि. 1423-1445) के आठ पुत्रों मे राव बाला एक पुत्र थे। इन्हें अपने पैतृक राज्य से बरवाड़ा सहित 12 ग्राम समूह का भू-भाग मिला यह आमेर नरेश को यथा आवश्यकता कर रूप में घोड़े देते रहे। राव बाला के 12 पुत्र हुए, जिनमें बड़े पुत्र मोकल बरबाड़ा की गद्दी पर बैठे। उनके अन्य भाइयों में खींवराज, गोविन्ददास तथा नाथा की संतति अपने पितामह के नाम पर बालापोता, खरथजी के करणावत मोकाजी के मोकावत, भीलाजी के भीलावत,झामावत,ढुंगरसी के जीतावत,बींजराज के बींजावत और सांगा के सांगाणी नामों से प्रसिद्ध हुए।
 
वृद्धावस्था के निकट जाने पर भी जब राव मोकल के पुत्र नहीं हुआ तो वे तीर्थाटन के लिए वृंदावन गए। वृन्दावन में उनकी चैतन्य महाप्रभु के दादा गुरू माधवेन्द्र गुसांई से भेंट हुई। गुसांईजी ने राव मोकल को पुत्र प्राप्ति का वरदान देते हुए अपने पूर्वज महाराजा दिलीप का उदाहरण देते हुए गोपीनाथ का इस्ट और गोचारण की आज्ञा दी
 
 
 (मंगल कुल प्रकाश काव्य) राव मोकल माधवेन्द्र गुसांईजी के आशीर्वचन को सन्नद्ध स्वीकार कर नाण लौट आए और दृढ़ निष्ठा के साथ गोपालन में लग गये। और कृष्ण भक्ति में तल्लीन रहने लगे। संयोगवश उसी काल में भ्रमणशील मुस्लिम दरवेश शेख बुरहान से वन में राव मोकल की भेंट हुई। दरवेश ने भी उनकी मनोव्यथा पहिचान कर पुत्र प्राप्ति का वचन दिया। राव मोकल की अनन्य भक्ति और दृढ़ाभिलाषी फलवती हुई और वि.सं. 1490 विजयदशमी के पावन पर्व पर शेखावत शाखा के प्रवर्तक प्रतापधनी राजकुमार शेखा संस्कृत (नाम शेषमल्ल) का जन्म हुआ-
समै विक्रमी वेद नाखित्र स्वामी,निबे साल आसोज को मास नामी।
भयो जन्म शेखा समै बल्लिहरी, विजैदशमी तिथि हिमांस ॥
 राव शेखा जब 12 वर्ष की आयु में थे तब ही संवत 1502 में इनके पिता राव मोकल का स्वर्गवास हो गया। राव शेखा ने अपने काका खींवराज के संरक्षण में साहसपूर्वक अपने राज्य की सुरक्षा और समृद्धि की और 16 वर्ष की वय प्राप्त होते राज्य का सम्पूर्ण संचालन भार ग्रहण कर लिया ।
इधर तो राव शेखा ने अपना राज्यकार्य संभाला और उधर 1200 सौ पन्नी पठानों का एक दल जीवन-निर्वाहार्थ दिल्ली की ओर जाता हुआ, अमरसर के पास राव शेखा के बीहड (संरक्षित वन्य भूमि) में आकर ठहरा। राव शेखा ने यह सूचना प्राप्त होने पर उनके मुखिया से भेंट की और उसे निम्न शर्तों के साथ बारह ग्राम जीवन-यापन के लिए जागीर में देकर अपने पास रख लिया। पठानों और शेखा में निम्न शर्त तय हुई थी जिनके प्रतीक और दोनों समाजों में सम्मान की भावना आज भी कतिपय अंशों में प्रचलन में है:-
 
1. पठान और शेखा के वंशधर युद्धकाल में एक ही रसोवड़े में बना भोजन करेंगे।
2. पठान हिन्दुओं के पूज्य गाय, बैल तथा मोर का न शिकार करेंगे और न मांस सेवन करेंगे।
3. शेखा के वंशधर मुसलमानों के अभक्ष्य सूअर को न मारेंगे और न खायेंगे।
4. जल के प्रमुख स्रोत कुओं पर मरवे जो मीनार की आकृति के होते हैं, बनायेंगे जिससे मुसलमान
    उन्हें मस्जिद की आकृति मानकर कुओं को दूषित नहीं करेंगे।
5. शेखा के वंशधरों के ध्वज पीत वर्णीय और उस पर लपेटा नीले वर्ण का होगा।
6. पानी भरने वाला सिका मुसलमान होगा और वह अपनी कमर पर लाल रंग के वस्त्र का
    कमरबंधा बांधकर पानी भरकर लायेगा। लाल रंग हनुमान के लंगोटे का प्रतीक है।
7. झटके के स्थान पर हलाल का माँस ही रसोवड़ों में काम में लिया जायेगा।
8. शेखा की संतति वाले सद्य जात शिशु के गले में बद्धी (चर्म की रस्सी) पहिनायेंगे। और हाथों के
   नीले मणिके और नीले धागे के पुणछे (डोरे) बांधेगे।
9. स्त्रियों पर कोई भी न कुदृष्टि डालेगा और न अपहरण अत्याचार करेगा।
10.  मन्दिर और मस्जिदों की मर्यादा और धार्मिक संस्थाओं पर आघात नहीं किया जायेगा।
 
 
     (श्री सौभाग्यसिंह शेखावत को मौखिक परम्परा से प्राप्त जानकारी के आधार पर)
 
 
इस प्रकार जो शर्त दोनों में तय हुई थी उनका शेखावत समाज में बहुलतः अद्यावधि पालन होता है।
 
 
राज्य संचालन भार ग्रहण कर राव शेखा ने अपने पड़ौसी नागरलाल के उत्पथगामी सांखलों (परमारों की शाखा) का दमन कर उस पर अपना अधिकार किया। तदनन्तर सांखलों के सहयोगी मेड तथा बैराट क्षेत्र के यादवों को पराजित किया और नाण से समीप ही उत्तर में अमरा धायभाई की ढाणी के स्थान पर अमरसर नामक गांव बसाकर वहाँ भूमि पर किला बनाया तथा अपना मुख्यावास किया। अमरसर की स्थापना तथा दुर्ग निर्माण वि.सं. 1517 में माना  जाता है। (नैणसी)
 
 
राव शेखा स्वाभिमानी, साहसी और स्वाधीन प्रवृत्ति के थे। उनके पितामह राव बाला के समय में आमेर नरेशों को जो घोड़े भेंट करने की परम्परा बन गई थी, बन्द कर दी गई।
 
 
आमेर नरेश राजा चन्द्रसेन ने राव शेखा द्वारा घोड़े न देने को अपने अधिकार का हनन माना और राव शेखा और राजा चन्द्रसेन में तीव्र मनमुटाव और पारस्परिक कलह उत्पन्न हो गई। तब राजा चन्द्रसेन ने राव शेखा का दमन करने के लिए हमले किए-दोनों में कई लड़ाइयाँ हुई ।
 
 
अन्त में राव शेखा और राजा चन्द्रसेन दोनों बन्धु राज्यों में कूकस नदी के दक्षिणी तट पर युद्धार्थ मोर्चे जम गये। इस आसन्न भयंकर युद्ध संकट से दोनों राज्यों को विनाश से बचाने के लिए राव नरूजी । (अलवर राज्य वालों के पूर्वज) ने तटस्थ भाव से मध्यस्थता कर इस विनाशलीला को परस्पर बातचीत से समाप्त कर अमरसर और आमेर राज्यों में पुनः सौहार्द और मेलमिलाप स्थापित किया। फलतः राजा चन्द्रसेन और राव शेखा में भविष्य में आनाक्रमण संधि होकर कूकस नदी के तटों को ही आमेर और अमरसर राज्यों की सीमा रेखा निश्चित की गई और राव शेखा को आमेर से स्वतन्त्र शासक के रूप में मान्य किया गया। साथ ही बाह्य शत्रु द्वारा आमेर पर आक्रमण होने पर राव शेखा द्वारा आमेर की सैन्य सहायता करना निश्चितकिया गया। इस प्रकार उदीयमान दोनों स्वतन्त्र शासकों में परस्पर मनमुटाव समाप्त होकर भ्रातृत्व का पुनः बीजारोपण हुआ।
 
 
इसी अवधि में बागड़ क्षेत्र के नवाब इख्तियारखाँ ने अकारण अनीतिपूर्वक अपमानित करते हुए एक कछवाहा राजपूत को मार डाला। इस पर राव शेखा ने बागड़ी पर आक्रमण कर उसके दुष्कृत का फल चाखाया
 
 
जब मालवा के सुल्तान नासीरुद्दीन के शाहजादे ने आमेर पर आक्रमण किया। राव शेखा ने इस अवसर ससैन्य आमेर की सेना के साथ भाडोरेज (दौसा) स्थान पर आक्रांता से युद्ध लड़ा और उसे पराजित किया। इस प्रकार आमेर तथा अमरसर के गौरव की रक्षा की।
 
 
इधर हरियाणा प्रदेश के और शेखा के मनोमालिन्य चल रहा था। राव शेखा की उदयमान शक्ति से वे शक्ति परीक्षण में जुटे हुए थे। राव शेखा ने उनकी मनोइच्छा के पूर्व ही उन पर चढ़ाई कर चरखी, दादरी, भिवानी आदि को विजय किया। इस विजय से राव शेखा की धाक, वर्चस्व और साहस का सब ओर प्रभाव जम गया। उसके प्रभाव और प्रभुत्व का जयनाद हिसार और दिल्ली के सुल्तानों के कर्ण गाहरों में गूंजने लगा। प्रतीत होता है कि इन विजयों में उन्हें पर्याप्त धन और यश प्राप्त हुआ और उक्त द्रव्य से उन्होंने अपनी प्रजा की सुरक्षा और अभयता के लिए अमरसर के पहाड़ों में शिखरगढ़ नामक दुर्ग का निर्माण करवाया।
 
'शेखावाटी प्रकाश' नामक इतिहास में उल्लेख है कि दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने शेखा पर आक्रमण किया था। संभव है कि राव शेखा के वर्धमान राजनैतिक प्रभाव से सशक होकर बहलोल लोदी ने अपनी एक सैन्य टुकड़ी शेखा पर भेजी होगी, परन्तु इस आक्रमण में सुल्तान सफल मनोरथ नहीं हुआ।
 
 
तत्कालीन गौड़ावाटी में गौड़ क्षत्रियों के झंथर, धाटना, मारोठ आदि छोटे-छोटे कई ठिकाने थे। जातीय संगठन के बल पर वे शासक-धर्म के विपरीत आचरण करने में संकोच नहीं करते थे। गौड़ावटी के झुंथर स्थान का शासक कौलराज अपने नाम पर कौलोलाव नाम का एक तालाब खुदवा रहा था। उसने यह आदेस प्रसारित कर रखा था कि इस मार्ग से जाने वाला प्रत्येक पथिक तालाब से निश्चित संख्या में मिट्टी के टोकरे बाहर निकाल कर ही गन्तव्य स्थान पर जा सकता है। देववशात् उक्त समयावधि में एक कछवाहा राजपूत तीन चार सैनिक साथियों के साथ अपने ससुराल मारवाड़ से सपत्नीक ढूंढ़ाड़ की ओर आ रहा था। कौलराज के सैनिकों ने तालाब सम्बन्धी राजाज्ञा उसे सुनाई। इस पर उस राजपूत और साथियों ने इसे जन कल्याण मानकर सहर्ष अपने भाग की मिट्टी डाल दी और वहाँ से आगे जान लगे। तब गौड़ों ने कहा कि तुम्हारी पत्नी से भी मिट्टी डलवाकर आगे जाओ। इस पर उस राजपूत और उसके सहगामियों ने पत्नी के ऐवज की मिट्टी भी निकालने की कही, पर गौड़ इस पर अड़ गए कि यह स्त्री स्वयं वैली (रथिका) से उतर कर मिट्टी डाले। इस पर कछवाहा और गौड़ों में ठन गई और वह कछवाहा सरदार दो तीन गौड़ों को मार कर काम आया। तदनुपरांत उसके साथी  जाट और नाई ने उसका अन्तिम संस्कार किया और उसकी पत्नी को लेकर अमरसर आये। उस क्षत्रिय बाला ने अपने पति की मृत्यु और गौड़ों की दुनीति की करुण कथा राव शेखा को सुनाई ।
 
 
कही मारतां बी अकेलो न पेखो।  सदा पूठ पैं मो तपे राव
इणी कारणे आपकी सरण आई , भुजां वैर की लाज थारे भुलाई।
 
गौड़ों के इस कुकृत्य ने राव शेखा के तन बदन में क्रोधाग्नि धधका दी। वह तत्क्षण उठकर झंथर पर चढ़ दौड़े और कौलराज को मार कर उसका सिर काट कर अमरसर ले आए। कौलराज के रक्त से अपने सजातीय कछवाहा का तर्पण किया। और उसकी विधवा पत्नी को शांति प्रदान की। इस घटना से गौड़ावाटी के गौड़ों में हलचल मच गई और फलस्वरूप राव शेखा और गौड़ों में ग्यारह युद्ध हुए। दोनों पक्ष के हजारों सैनिक मारे गये। ग्यारहवाँ और गौड़ों से अन्तिम युद्ध घाटवा स्थान पर हुआ जिसकी लौकिक स्मृति पांच सौ से अधिक वर्षों के बाद भी जन मुखों पर इस प्रकार जीवित है
गौड़ बुलावे घाटवे , चढ़ आवो शेखाह ।।
लसकर थारा मारणा, देखन री अभलेखाह ॥
 इस युद्ध में राव शेखा के जयेष्ठ पुत्र दुर्गादास और द्वितीय पुत्र पूर्णमल मारे गये। अनेक शूरवीर सैनिक धराशायी हुए। शेखावतों की विजय हुई और घावों से लथपथ राव शेखा भी दूसरे दिन वि.सं. 1545 को रलावता ग्राम की सीमा में जीण माता के पास वीरगति को प्राप्त हुए।
 
 रलावता और मोहनपुरा ग्रामों की सीमा पर उस वीरधीर युग पुरुष राव शेखा की स्मृति में एक छत्री बनी हुई है।
 
राव शेखा के पांच रानियां और 12 पुत्र और एक पुत्री राधवकुंवरि नाम की थी । राधवकुंवरि का परिणय मेड़ता के शासक राव दूदा के साथ हुआ था। राव शेखा के ज्येष्ठ कुमार दुर्गादास थे और उनकी संतति ही शेखावतों में पितृ-परम्परा से टीकाई (राजपट्टतिलकायत) थे। दुर्गादास की माता टाक राजपूत कुल थी। इसलिए दुर्गादास के वंशज टकनेत शेखावत कहलाते हैं। शेखा की मरजी के अनुसार छोटे होते हुए भी कुमार रायमल को राजगद्दी पर अभिषिक्त किया गया। अन्य पुत्रों के नाम क्रमश: रतनसिंह, भरतसिंह, त्रिलोकसिंह, अभयसिंह, अचलदास, पूर्णमल, प्रतापमल, कुम्भकरण, रणमल और भारमल था। इनसे शेखा के वंशधरों की विभिन्न शाखाओं का प्रादुर्भाव हुआ।
 
 
जहाँ राव शेखा महान् वीर, नीति निपुण, प्रजावत्सल, जातीय गौरव के रक्षक और कुशल संगठक थे, वहां वह हिन्दू मुस्लिम एक्य के प्रतीक, पुरुष और नारी समाज की मान प्रतिष्ठा के आदर्श संरक्षक भी थे। उसने पठानों से संधि कर एक ऐसा अद्वितीय कार्य किया जिससे शेखावाटी में कभी हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष नहीं हुआ। यदि यह संधि शेखा नहीं करते तो कहा नहीं जा सकता कि विगत पाँच सौ वर्षों के दीर्घकाल में लक्षाधिक हिन्दू और मुसलमानों के  जन, धन और प्रतिष्ठा की कितनी होलिकाएँ जल चुकी होती।
 
 
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि राव शेखा के 12 पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र दुर्गादास थे। अपनी माता टाँकणजी के जातीय सम्बोधन के कारण दुर्गादास के वंशज टकनेत कहलाते हैं।
टकणेतों में अलखा अपने समसामयिकों में परम ईश्वर भक्त और आदर्श व्यक्ति माने जाते थे। वह राजा गिरधरदास और उनके पुत्र राजा द्वारिकादास खंडेला के प्रधान थे। अब टकणेत सीकर और झुन्झनू जिलों में है।
 
रतनाजी-राव शेखा के द्वितीय पुत्र की संतति के रतनावत (शेखावत) संज्ञा से प्रसिद्ध है।
राव शेखा ने जब हरियाणा पर आक्रमण किया था, उन युद्धों में रतना ने बड़ी वीरता प्रदर्शित की थी, इसलिए शेखा ने हरियाणा में विजित इलाका रतना को दे दिया था, हरियाणा के इस इलाके में रतनावत शेखावत अच्छी संख्या में वर्तमान हैं।
 
 
राजस्थान में ये जयपुर जिले में हैं। तिलोकसी-यह राव शेखा का पुत्र था और इसकी संतान मिलकपुर ग्राम वासी संबोधन से मिलकपुरिया शेखावत कहलाते हैं।
 
 
आभाजी-आभा के पुत्र पौत्र भी मिलकपुर ग्राम में रहने के कारण मिलकपुरिया शेखावत कहलाते हैं। आभा का वंशधर उदयमान बादशाही मनसबदार था।
 
 
अचलाजी-इनके वंशज भी मिलकपुर ग्राम में निवास के कारण मिलकपुरिया सम्बोधन से जाने जाते हैं। वि.सं. 1590 के हिंदाल के युद्ध में अचलदास का पुत्र रामचन्द्र मारा गया था ।
 
अचलदासोतोंमें बिलवा के मुलकपुरियों ने वि.सं. 1872 के कुं. बख्तावर सिंह जी खेतड़ी के बाघोर के युद्ध में अपूर्व पराक्रम दिखाया था। वे गोलों और गोलियों की वर्षा में भी अग्रसर होकर बाघोर दुर्ग के प्रवेश कपाट को ध्वंस कर दुर्ग पर अधिकार करने में सफल हुए थे। इस शौर्य प्रदर्शन के उपलक्ष में खेतड़ी की ओर से बाढ़ाकी ढाणी गांव जागीर में दिया गया था ।
 
कुम्भाजी-यह भी राव शेखा के पुत्र थे और दीर्घकाल तक खेजडोली ग्राम में निवास करने के कारण खेजडोलिया शेखावत कहे जाने लगे। इनमें सातल के पुत्र बहुसंख्यक हैं। यह अपने को 'सातोलपोता' भी कहते हैं।
 
राजा मानसिंह आमेर और राव मनोहर दास मनोहरपुर की सीमा विवाद की लड़ाई में कुम्भा का पौत्र ईश्वरदास जयमलोत मनोहरदास की सेना का सेनापति था। इसके पुत्र पृथ्वीराज ने कटार के प्रहार से खूंखार सिंह को मार गिराया था। इसका पौत्र अजीतसिंह छोटेशाही मनसबदारों में था।
शेखा के पुत्र रिडमलजी और भारमलजी के वंशज भी खेजडोलिया कहलाते हैं।
भारमल का आठवां वंशधर कुशलसिंह वि.सं. 1847 जेष्ठ वदि2 को नवाब इस्माइलबेग, ताहरबेग के साथ लड़ाई में नीम का थाना के पास मारा गया था।
खेजड़ोलिया शेखावतों में बड़े वीर पुरुष हुए हैं।
 
रावरायमल-यह राव शेखा के छोटे और प्रतापी पुत्र थे। राव शेखा के उत्तराधिकार के रूप में सं. 1545 को अमरसर मे यह उनके सिंहासनारूढ़ हुए। इस अवसर पर आमेर के राजा चन्द्रसेन और अलवर नरेशों के पूर्वज राव नरू ने भी अमरसर आकर तिलक समारोह में भाग लिया था। गोड़ावाटी के युद्ध-क्षेत्रों में राव शेखा के मारे जाने से आमेर राजवंश की राजावत, शेखावत, कुंभावत और नरूका शाखाओं में गौड़ों को दण्डित कर प्रतिशोध लेने के लिए क्रोधाग्नि धधक रही थी। उधर गौड़ भी भावी भय से आतंकित थे।  इस भय से  मुक्ति प्राप्त करने का क्षात्र परम्परानुसार गौड़ों के सामने एक ही विकल्प था कि वे अपनी कन्या का रायमल  से पाणिग्रहण कर आसन्न संकट त्राण प्राप्त करें। अन्त में गौड़ों के प्रमुख मारोठ के शासक राव रणमल ने अपनी पुत्री का राव रायमल से विवाह कर झुंथर के 51 गांव दहेज में देकर इस विग्रह का अन्त किया ।
इस प्रकार से गौड़ों और कछवाहों में मैत्री, सौहार्द और अबैर का सम्बन्ध स्थापित हो गया ।
 
 
राव रायमल परम साहसी और दृढ़ संकल्प का धनी था। उसने अपने पिता द्वारा विजित 360 ग्राम समूह के अमरसर राज्य की रक्षा ही नहीं की अपितु उसके विस्तार के लिए कुशल सेना का भी गठन किया। दिल्ली के भावी सुल्तान शेरशाह सूर (पठान) का पिता हसनखाँ पठान राव रायमल की सैनिक सेवा में था और दिल्ली के भावी सुल्तान शेरशाह का जन्म भी उसके पिता को प्रदत्त जागीर के सिमला नामक ग्राम में हुआ था।
 
 
राव रायमल के उदयमान प्रभाव रवि से संत्रस्त होकर मेवात के राज्याधिकारी पठान हिंदाल ने वि.सं. 1550-59 के मध्य अमरसर पर आक्रमण किया। इस संकटापन्न वेला पर राव रायमल की सहायतार्थ भैराणा केशासक नरू और आमेर के राजा चन्द्रसेन के पुत्र कुंभा (कुंभकरण) भी अपनी-अपनी सेना लेकर अमरसर आ गए। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। हिंदाल पराजित होकर भाग गया, परन्तु आमेर का सेनानायक कुमार कुंभकरण चन्द्रसेन वीरगति को प्राप्त हुआ। इस विजय से रायमल की कीर्ति सर्वत्र फैल गई और प्रतिवेशी निर्वाण और तोमर क्षत्रिय स्वमेय रायमल के पक्षधर बन गए।
 
भारतीय स्वतन्त्रता के लिए लड़े गए वि.सं. 1590 के खानवा के महाराणा संग्रामसिंह और मुगल बादशाह बाबर के युद्ध में रायमल ने ससैन्य महाराणा के पक्ष में युद्ध किया था।
 
 
मुगल शहंशाह हुमायूं ने मेवात का राज्यपाल अपने भाई मिर्जा हिंदाल को नियत किया था। कछवाहों और मुगलों में तब प्रबल विरोध चल रहा था। फलतः हिंदाल ने अमरसर के कछवाहों का दमन करने के लिए अमरसर के समीपस्थ अनेसरी गांव के मैदान में हिंदाल ने आक्रमण किया। उभयपक्षों में प्रचण्ड संग्राम हुआ। राव रायमल की सहायतार्थ आए हुए आमेर पति राजा पूर्णमल, रायमल के भाई भारमल, अभयमल का पुत्र रामदास, हरिसिंह देवीदास का पुत्र, हरवन का पुत्र सूरजमल, दूदा का पुत्र कीता (कीर्तिपाल) (तीनों कुन्डल के कछवाहा) आहड़ काबा, तंवरावाटी का राव डुंगरसी लाखावत तोमर, दादरी का रूपदेव, सैकड़ों कर्णावत और पठान वीर खेत रहे। युद्ध का परिणाम राव रायमल के प्रतिकूल रहा।
 
राव रायमल ने राव मालदेव द्वारा मारोठ के गौड़ों पर आक्रमण करने पर गौड़ों की सहायता की और अन्त में दोनो में सन्धि करवायी। महाराणा संग्रामसिंह मेवाड़ के सांभर के नमक कर में से अपना कर भाग लिया, पीसांगण के सांगा परमार को परास्त किया और राज्यच्युत मेड़ता के राव वीरमदेव को डेढ़ वर्ष तक नराणा में शरणागत रखकर क्षत्रिय धर्म का उज्ज्वल आदर्श स्थापित किया
 
 
बड़वों की बही के वृतांतानुसार राव रायमल ने अपने जीवन काल में 41 युद्धों में भाग लिया था। अन्त में वि.सं. 1594 में 88 वर्ष की दीर्घायु प्राप्त कर स्वर्गवासी हुए।
 
 
राव रायमल अपने युग में राजस्थान के प्रभावशाली राजाओं में अग्रणी थे। वे जैसे वीर, नीतिज्ञ और पराक्रमी थे वैसे ही सुदक्ष प्रशासक, स्वातंत्र्य प्रिय और प्रजावत्सल राजा थे।
 
 
राव रायमल के सूरजमल, तेजसिंह, सहसमल, जगमाल,सिंहमल और सुरतान नामक पुत्र थे। अग्रिम पंक्तियों में राव सूरजमल के भाईयों पर सक्षिप्त प्रकाश डालने के बाद राव सूरजमल  की उपलब्धियों पर विचार करेंगे।
 
 
तेजसिंह-तेजसिंह के पुत्र पोत्रादि तेजसिंह के शेखावत कहलाते हैं और इनके अधिकार क्षेत्र में बाल का क्षेत्र (अलवर जिले का वानसूर क्षेत्र) था। तेजसिंह आमेर के राजा रतनसिंह, भीमसिंहोत के प्रधान थे। इनके शक्तिसिंह, मानसिंह और रामसिंह तीन पुत्र थे। शक्तिसिंह और मानसिंह का ननिहाल तंवरों के था। इनकी जागीर में पाथरड़ी सहित पाँच ग्राम थे। यह महात्मा संजानाथ के भक्त थे। उनके आशीर्वाद से चौहानों के कुल नगा (नीमराना के चौहानों के भाईयों) के राज्य पर अधिकार कर लिया। शक्तिसिंह का एक पुत्र राघवदास नीम्बाहेड़ा (मारवाड़) में चला गया और महेशदास के ज्ञानपुरा, चैनपुरा, कुण्डली, वाली, चौपड़ा आदि गांव रहे। -
 
तेजसिंह के पुत्र मानसिंह के नारायणदास और नृसिंहदास हुए। नारायणदास ने अपने नाम पर नारायणपुरा बसाया। नृसिंहदास के अधिकार में खरबड़ी, चतुरपुरा, पृथ्वीपुरा, करागा, भैलसाना तथा पापरड़ी का ठिकाना रहा।
 
 
नारायणदासके बलभद्र पुत्र थे। बलभद्र बड़ा वीर और नीतिवान था। वह भदौरगढ़ क्षेत्र (संभवत: भदावर) में रहा। बादशाह शाहजहाँ ने 7 फरवरी 1628 ई. में उसे 1000 जात 600 सवार का मनसब दिया था। 3 अक्टूबर 1629 में नवाब खानजहाँ लोदी के विरुद्ध भेजी गई सेना में उसकी भी नियुक्ति हुई थी। इस सेना में 16 हिन्दू मुस्लिम मनसबदार थे। बलभद्र खानजहाँ के विरुद्ध के युद्ध में मारा गया। इसके शासन काल के कई पुण्यार्थ पट्टे तथा दानपत्र उपलब्ध हैं। इसका पौत्र करणीदास या कान्हादास शाहजहाँ के समय में 500 जात 200 सवार  का मनसबदार था ।
 
 
सहसमल-यह राव रायमल का तृतीय पुत्र था। इन्हें शाहीवाड़ का ठिकाना मिला था। इनकी सन्तान सहसमल का शेखावत संज्ञा से सम्बोधित किये जाते हैं। सहसमल के एक पुत्र कर्मसिंह था। सहसमल की पुत्री मदालसादेवी का विवाह आमेट (मेवाड़) के इतिहास प्रसिद्ध रावत पता चूंडावत के साथ हुआ था। सं. 1624 के चित्तौड़ के तृतीय साके तथा जौहर में वह यमराज की जिव्हा सदृश्य प्रज्ज्वलित अग्नि ज्वाला में भस्मीभूत हुई थी। इस प्रकार अमरसर राज्य और मेवाड़ राज्य को गौरवान्वित किया था।
 
 
कर्मसिंह के दुर्जनशालर और रामचन्द्र दो पुत्र थे।
 
 
दुर्जनशाल का भाई रामचन्द्र अपने समय के उद्भट वीरों में था। सम्राट अकबर द्वारा नवाब रहीम खानखाना के नेतृत्व में दक्षिणी भारत पर प्रेषित सैनिक अभियान में रामचन्द्र खानखाना की सेना में नियत हुआ था। खानखाना शत्रु परआक्रमण करने में हीलहवाला करता रहा, पर रामचन्द्र अपने साथियों सहित शत्रु-सेना पर टूट पड़ा और भयंकर मारकाट कर वीरगति को प्राप्त हुआ। रामचन्द्र के उस भयानक आक्रमण का एक समसामयिक कवि ने बड़ी ओजपूर्ण भाषा में चित्रण किया है. …शेष अगले भाग में
 
(लेखक - देवी सिंह मंडावा )
 

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