शक्ति, शौर्य, साहस और स्वतंत्रता का दूसरा नाम ही राजस्थान है, और फिर राव जोधा तो इन गुणों का पर्याय ही था। प्रारम्भ से अंत तक उसके हर कदम पर संघर्ष देखने को मिलता है। यह भी एक सत्य है कि जोधा ने संघर्ष की हर चुनौती का साहस के साथ सामना किया, अपने भीतर के जुझारूपन को दर्शाया। उसके इन्हीं गुणों के कारण वह मरुभूमि पर एक सशक्त राज्य की नींव डालने में सफल रहा। कहने को उससे पूर्व भी उसके पूर्वज राजा थे लेकिन वह मजबूती नहीं थी जो जोधा ने स्थापित की। यह जोधा की कुशलता ही थी कि न केवल अपने बिखरे हुए व पल-पल लड़खड़ाते राज्य को संगठित किया बल्कि अपने बड़े पुत्र बीका को भी एक नये राज्य की स्थापना के लिए प्रेरित किया। अगर यह कहा जाए तो कोई अतिथ्योति नहीं होगी कि जोधपुर और बीकानेर राज्य का वास्तविक जनक राव जोधा ही था। उसने न केवल छोटे-बड़े सामंतों को ही एक सूत्र में बांधा बल्कि उन्हें अपने अद्भुत राज-कौशल से मजबूत भी किया और कुशल संचालन के लिए प्रेरित किया।
ऐसे संघर्षवान किंतु प्रतापी राव जोधा का जन्म वि.सं. 1472, अप्रैल-1, 1416 ई. में हुआ। जोधा बाल्यावस्था से ही पिता रणमल के साथ रहने के कारण युद्ध एवं कूटनीति में तरूणावस्था तक बहुत कुछ अनुभव ले चुका था। उसे पिता का मेवाड़ में रहना अच्छा नहीं लगता था लेकिन पिता से विशेष स्नेह को देखते हुए कुछ कहना ठीक नहीं समझा। मेवाड़ के सरदार महाराणा कुंभा के निरंतर कान भर रहे थे, यहाँ तक कहने लग गये थे कि किसी भी दिन रणमल मेवाड़ पर अधिकार कर लेगा, अत: उसको मेवाड़ से दूर करना आवश्यक है।
आखिर में हुआ भी यही कि रणमल को धोखे से मरवा दिया गया। यह बात 1438 ई. की है। जोधा भी उस समय चित्तौड़गढ़ की तलहटी में स्थित अपने निवास में ही था कि एक डोम ने दुर्ग की दीवार पर चढ़कर जोर से चिलाते हुए कहा कि ;
चूंडा अजमल आविया, मॉडू हूँ धक आग।
जोधा रणमल मारिया, भाग सके तो भाग।ज्यों ही जोधा ने सुना तुरंत अपने सात सौ समर्थक साथियों के साथ चित्तौड़ से प्रस्थान कर गया किंतु चूडा ने भी ससैन्य उसका पीछा किया। अनेक जगह आमना-सामना हुआ। कपासन के पास तो भयंक र संघर्ष हुआ। जोधा के कई सैनिक हताहत हुए। मारवाड़ की सीमा में प्रवेश करते समय जोधा के पास केवल सात साथी थे। उधर पीछा करते हुए चूंडा ने मंडोवर पर अपना अधिकार कर लिया और अपने पुत्रों को वहाँ का दायित्व सौंपकर स्वयं चित्तौड़ आ गया।
मंडोवर पर अधिकार हो जाने के कारण जोधा इधर-उधर भटकते हुए काहूनी गाँव जाकर अपना वास बनाया। यहाँ रहते हुए राव जोधा ने अपने साथी सैनिकों की संख्या बढानी शुरू की और मंडोवर पर कई आक्रमण किये किंतु सफल नहीं हुआ। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार उन्हीं दिनों एक दिन मंडोवर से भागता हुआ भूख-प्यास से व्यथित जोधा रास्ते के एक जाट के घर ठहरा। जाट की पत्नी ने घर आये अतिथि से भोजन की मनुहार की तो जोधा ने कहा जो तैयार हो ले आओ, बहुत भूख लगी है। घर में बाजरे की गर्म घाट तैयार थी। थाली भरकर जोधा के सम्मुख लाकर जैसे ही रखी, उसने खाने के लिए थाली के बीच में अंगुलियां डाली तो गर्म होने के कारण अंगुलियों के पौर जल गये। इस पर सामने बैठी जाटनी से नहीं रहा गया और बोल पड़ी-'मुझे तो तू जोधा के जैसा ही निर्बुद्धि दिखाई देता है।”
इस पर जब जोधा ने पूछा-'बाई जोधा निर्बुद्धि कैसे है?' तब जाटनी ने कहा-'निर्बुद्धि नहीं तो और क्या, वह भी तेरी तरह आसपास की जमीन पर तो अधिकार करता नहीं और केन्द्र में स्थित मंडोर पर रोज-रोज धावे बोलता है अब बेटे, तुम ही बताओ बीच में डालने पर तुम्हारे हाथ जले कि नहीं, यही अगर तुम आसपास की घाट लेते तो कुछ नहीं होता।”
कहते हैं कि कभी भी किसी से भी सीखा जा सकता है। यही बात राव जोधा के साथ भी हुयी। जाटनी की सीख को मन में उतारली और उसने मंडोवर लेने से पहले अपने आसपास के क्षेत्रों पर ध्यान दिया और विभिन्न राजपूत सरदारों से मेलजोल बढ़ाना शुरू किया। इससे जोधा को स्थिति में धीरे-धीरे सुधार होने लगा।
इसी बीच मेवाड़ के महाराणा कुंभा भी जोधा के प्रति कुछ उदार हुए। यह परिवर्तन कुंभा की दादी हंसा के कहने पर हुआ। कुंभा ने अपनी दादी से स्पष्ट कहा कि मेवाड़ के सरदारों के गुस्से को देखते हुए प्रत्यक्ष तो वह इधर-उधर भटकते जोधा की मदद नहीं कर सकता है किंतु अगर वह मंडोर पर अधिकार करता है तो कोई आपत्ति नहीं होगी। इस पर हंसा ने कुंभा की बात अपने विश्वस्त सेवक चारण डूला के माध्यम से जोधा तक पहुँचादी।
इस संदेश से राव जोधा के प्रयास और तेज हो गये। घुड़सवारों की संख्या पर्यात नहीं थी। इस निमित सेत्रावा के रावत लूणा, हरबू सांखला व रामदेव तंवर से उसने सहयोग मांगा। सौभाग्य से सभी ने जोधा को समर्थन देना स्वीकार लिया। स्मरण रहे कि हरबू अथवा हरभू सांखला व रामदेव (बाबा रामदेव) तंवर मारवाड़ क्षेत्र में सिद्ध पुरुष के रूप में पूजे जाते थे और जन-सामान्य पर उनका खासा प्रभाव भी था। जोधा ने किंचित् भी देर करना उचित नहीं समझा और मंडोवर पर चढ़ाई कर दी। मंडोवर से पूर्व जोधा ने महाराणा के चौकड़ी थाने पर आक्रमण किया जिसमें महाराणा के कई प्रमुख (दूदा, बीसलदेव आदि) सरदार मारे गये। इससे मंडोवर की ओर बढ़ना सरल हो गया। रास्ते के कोसाणे को भी जीत लिया अंतत: सन् 1453 ई. का वह शुभ दिन आ ही गया जब पन्द्रह वर्षों के बाद जोधा का स्वप्न पूरा हुआ और मंडोवर पर राठौड़ी ध्वज फहरा उठा।
इस विजय-अभियान के साथ कुछ भ्रान्तियों ने भी जन्म ले लिया। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार जोधा द्वारा मंडोवर पर अधिकार कर लेने के बाद कुंभा ने उस पर चढ़ाई की और कुंभा की हार हो गई तथा चित्तौड़ आकर दुर्ग के किंवाड़ जला दिये। अधिकांश इतिहासकर इससे सहमत नहीं है। प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा का तो कहना है कि कुंभा अपने युग का प्रबलतम हिन्दू राजा था, उसी के मौन संकेत पर जोधा ने मंडोवर पर अधिकार किया, ऐसी स्थिति में राव जोधा ने कुंभा को अपमानजनक पराजित किया हो, उचित नहीं लगता है। ओझा की तो मान्यता है कि कुंभा ने मारवाड़ पर दूसरी बार चढ़ाई की ही नहीं। एक अन्य प्रसिद्ध इतिहासवेता डॉ. गोपीनाथ शर्मा का भी ऐसा ही मानना है।
राजपूती व्यवहार एवं मर्यादाओं की दृष्टि से भी यही लगता है कि जोधा ने मंडोवर पर विजय प्राप्त की और महाराणा कुंभा ने अपनी दादी हंसा के कहे अनुसार अनदेखी की हो। राव जोधा के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर भी यदि दृष्टिपात करें तो वे अपने मौन सहयोगी के साथ अपमानजनक व्यवहार करने वाले नहीं हो सकते थे। कई प्रसंगों में जोधा राजपूती मान-मर्यादाओं की पालना करने वाले व्यक्तित्व के धनी थे। जो अगर ऐसा होता तो अपनी पुत्री श्रृंगार देवी का सम्बन्ध कुंभा के पुत्र रायमल के साथ क्यों करते ? और क्यों ही अपने समय के सर्वशक्तिमान कुंभा ही अपने पुत्र का सम्बन्ध जोधा की पुत्री से करते ? हाँ, एक बात अवश्य प्रतीत होती है कि दोनों ही चूंकि पूर्व में सम्बन्धी थे, अत: एक दूसरे के साथ मिलकर चलने को सहमत हो गये हों। क्योंकि मेवाड़ के सामने मालवा-गुजरात के मुस्लिम शासकों की सदैव रहने वाली चुनौती थी तो मारवाड़ को भी उत्तरपश्चिमी सीमा से नित्य प्रति का खतरा था। ऐसे में दोनों का हित एक बनकर रहने में ही था।
मंडोवर विजय के बाद राव जोधा एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना में जुट गया। इस श्रृंखला में मंडोवर के निकट ही 'चिड़िया ट्रंक' पहाड़ी पर एक दुर्ग के निर्माण की नींव मई 12, 1459 ई. को रखी और दुर्ग के नीचे अपने नाम पर जोधपुर नगर बसाकर उसे राजधानी बनाई। नई राजधानी के साथ उसका साम्राज्य-प्रसार का कार्य भी अविराम गति से चलता रहा। मेड़ता, फलोदी, पोकरण, भ्राद्राजून, सोजत, जैतारण, शिव, सिवाना, एवं गोड़वाड़ के कुछ हिस्से तथा नागौर को अपने राज्य में मिलाया। यही नहीं जोधा के ही ज्येष्ठ पुत्र बीका ने भी पिता के कहने पर ही जांगलू प्रदेश में अपना प्रभाव बढ़ाने में लगा था। सच तो यह है कि लगभग सम्पूर्ण मारवाड़ पर राठौड़ वंशीय जोधा एवं उसके पुत्र का परचम लहराने लगा था।
जोधा के अपने अन्तिम दिनों में मिली सफलताओं के बाद चारों तरफ उसका राजनीतिक स्तर बढ़ गया था, अब उसके पास राज्य नहीं, साम्राज्य था। इस साम्राज्य के निर्माण में उसके सगे-सम्बन्धियों एवं अन्यान्य जिन समर्थकों का भी समर्थन मिला, उन्हें वह नहीं भूला और सबके प्रति यथा-योग सम्मान दर्शाया। उसकी इसी दूर दृष्टि एवं मानवोचित कृत्य का लाभ मिला और वह अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने में सफल रहा तथा उसके बाद भी आने वाले राठौड़ राजाओं ने इसी मार्ग का अनुसरण किया।
राव जोधा का 73 वर्ष की उम्र में संवत् 1545 के वैशाख मास की सुदी 5, 6 अप्रेल 1489 ई. को जोधपुर में स्वर्गवास हुआ। समाहार के रूप में आज हम यही कहेंगे कि वह वीर, साहसी व असीम धैर्यवान व्यक्तित्व का धनी था। सन् 1931 में प्रकाशित 'मारवाड़ का मूल इतिहास' पुस्तिका में राव जोधा के लिए लिखा कि-'उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी, सदा अपनी भूमि प्राप्त करने का उद्यम करते रहे।" ओझाजी के मत में 'राव जोधा को ही जोधपुर का पहला प्रतापी राजा कह दें तो कोई अतिश्योति नहीं होगी।' ऐसा ही विचार डॉ. गोपीनाथ शर्मा का भी है कि-'जोधा के नेतृत्व ने राठौड़ों के राजनीतिक सम्मान के स्तर को काफी उन्नत किया था। डॉ. जमनेशकुमार ओझा ने एक लेख में ठीक ही लिखा है कि-'उसके व्यक्तित्व में राजनीतिक एवं सैनिक गुणों का सुन्दर समन्वय था।" अंत में मारवाड़ के इतिहास के पुरोधा पं. विश्वरेश्वरनाथ रेउ के अनुसार राव जोधा साहसी और वीर के साथ-साथ उद्योगी, दानी और बुद्धिमान नरेश भी था।
(लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )
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