रविवार, जनवरी 08, 2017

तलाश

शाम होने लगी थी।

दिनभर में उन बूढ़े हो चुके सरकारी क्वाटरों के कई चक्कर लगाने के बाद, अधेड़ उम्र का वो शख्स, पास के पार्क मे बने एक सीमेंट के बेंच पर बैठ कर सुस्ताने लगा । पंक्तियों में बने उन दोमंजिला क्वाटरों की पहली और दूसरी पंक्ति के बीच से गुजरते हुये उसकी नजरें, दूसरी पंक्ति के  भूतल पर बने उस आखिरी मकान पर आकर ठहर जाती थी । उसकी बैचेन निगाहें उस मकान के हर खिड़की और दरवाजे से अंदर तक झाँककर निराश लौट आती थी।  एक जगह ठहरकर कुछ देर वो पहली पंक्ति के पहले माले पर बने क्वाटर की उस खिड़की को भी निहारने लगता जिस से दूसरी पंक्ति के भूतल पर बने मकान के मुख्य द्वार के साथ साथ आँगन भी नज़र आ रहा था । जहां से वो एक दूसरे को अपलक निहारते रहते थे ।

 उसे एक भी  चेहरा जाना पहचाना नहीं लग रहा था। वो संकोचवश मकान को ज्यादा देर तक निहार भी नहीं सकता था । लोग क्या सोचेंगे ? कोई उसे गलत ना समझ बैठे। एक  झिझक उसके पैर रोक देती । झिझक ! हाँ वही झिझक जिसने वर्षों पहले भी उसकी जुबान पर ताले लगा दिये थे । कुछ भी नहीं बोल पाया था वो उसे।  बस आँखों ही आँखों में बातें करते रहे और मुस्कराते रहे वो दोनों और इसी तरह एक साल उनके दरमियाँ से गुजर गया । दोनों एक दूसरे की आवाज सुनने को तरस कर रह गए थे। दोनों मे से किसी की भी हिम्मत नहीं हुई की कुछ कहकर इज़हार कर सके।
सालभर चले इस सिलसिले का अंत एक अंतहीन जुदाई के साथ हुआ।

आज तीस साल बाद जिंदगी के झंझावतों से निकलकर वह उसकी तलाश मे इधर दौड़ा चला आया। इस लंबे अंतराल के दौरान यहाँ काफी तब्दीलियाँ आ चुकी थी । बहुत कुछ बदल चुका था । वह दिनभर पुरानी यादों के टुकड़े समेटता रहा । पिछले तीस सालों से सीने मे ठाठें मारता सैलाब आँखों से बह निकला था । शारीरिक और मानसिक रूप से थका हुआ शरीर सीमेंट की उस सख्त बैंच पर फैल गया।  
सुबह हो गई थी ।

नगरपालिका की गाड़ी लाश को लेकर सरकारी अस्पताल जा चुकी थी ।

“विक्रम”

  

  

 

1 टिप्पणी:

  1. काश ... समय रहते कुछ हो पाता ...
    कई बार जीवन आसान हो सकता है पर ये झिझक ...

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