गुरुवार, जनवरी 26, 2017

राव शेखाजी

राजस्थान में शूर-वीरों की कभी कोई कमी नहीं रही। यही कारण था कि राजस्थान के इतिहास के जनक जेम्स कर्नल टॉड को यह कहना पड़ा कि इस प्रदेश का शायद ही कोई ग्राम हो जहाँ एक भी वीर नहीं हुआ हो। बात सही भी लगती है। इस अध्याय में जिस वीर शेखा का वृतांत ले रहे हैं वो किसी बड़े राज्य का स्वामी नहीं बल्कि उसका एक बहुत ही छोटे ठिकाने में जन्म हुआ था। आज भले ही वह क्षेत्र एक बड़े नाम 'शेखावटी' से जाना जाता है। जिसमें राजस्थान को दो जिले सीकर व झुंझनु आते हैं। यह शेखावटी इसी वीर शेखा के नाम पर है। 

 शेखा का सम्बन्ध यूं तो जयपुर राजघराने के कछवाह वंश से है लेकिन उनके पिता राव मोकल के पास मात्र 24 गाँवों की जागीर थी। राव मोकल के घर आंगन में शेखा का जन्म सम्वत् 1490 में हुआ था। इनके जन्म की भी अपनी एक रोचक कहानी है जो इस प्रकार है

राव मोकल बहुत ही धार्मिक वृति के पुरुष थे। मोकल के वृद्धावस्था तक कोई सन्तान नहीं हुई फिर भी संतोषी प्रवृति के होने के कारण किसी से कोई शिकायत नहीं थी। बस, साधु-संतों की सेवा-सुश्रा में लगे रहते थे। मोकल को एक दिन किसी महात्मा ने उन्हें वृंदावन जाने की सलाह दी और उसी के अनुसार महाराव मोकल वृंदावन गये। वहां उन्हें गऊ सेवा में एक विशिष्ट आनन्द की अनुभूति हुई। यहीं उन्हें किसी ने गोपीनाथजी की भक्ति करने के लिए कहा। मोकल अपनी वृद्धावस्था में गऊ सेवा और भगवान गोपीनाथजी की सेवा-आराधना में ऐसे लीन हुए कि उन्हें दिन कहाँ बीतता, पता ही नहीं लगता।

 
एक दिन महाराज मोकल गायों के एक झुंड के साथ अपनी जागीर अमरसर के बाहर पेड़ के नीचे बैठे थे, तभी फकीर शेख बुरहान चिश्ती से भेंट हुई। फकीर ने मोकल को एक प्रतापी पुत्र पैदा होने की दुआ दी तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ कि इस वृद्धावस्था में यह कैसे सम्भव है,  मगर फकीर की बात सही हो गई और निरबान रानी की कोख से बच्चे ने जन्म लिया। मोकल ने भी उस संत फकीर शेख बुरहान चिश्ती के प्रति आभार प्रकट करने हेतु उस प्रतापी पुत्र का नाम शेखा रखT|

 
फकीर के कहे अनुसार शेखा निश्चित ही प्रतापी पुरुष थे। इन्होंने अपने पिता की 24 गाँवों की छोटी सी जागीर को 360 गाँवों की एक महत्वपूर्ण जागीर का रूप दे दिया। सच तो यह है कि शेखा किसी जागीर के मालिक नहीं थे बल्कि वे एक स्वतंत्र रियासत के मुखिया हो गये थे।

 
दूरदृष्टा-राव शेखा ने अपने जीवन काल में करीब बावन युद्ध लड़े। इनमें कुछ तो अपने ही भाइयों आम्बेर के कछवाहों के साथ भी लड़े। शेखा की दिन दूनी-रात चौगूनी सफलता को नहीं पचा पाए, जिसके कारण उनके न चाहते हुए भी उन्हें संघर्ष को मजबूर होना पड़ा था। सौभाग्य से उन्हें हर युद्ध में सफलता प्राप्त हुई। एक बार आम्बेर नरेश ने नाराज होकर बरवाड़ा पर आक्रमण कर दिया तो राव शेखा ने इस क्षेत्र में रहने वाले पन्नी पठानों को अपनी तरफ करके उस आक्रमण को भी विफल कर दिया।

 
इस सफलता के पीछे राव शेखा की दूरदृष्टि थी। शेखा ने समझ लिया था कि क्षेत्र में पन्नी पठानों का बाहुल्य है और उनको बिना विश्वास में लिए शासन करना सम्भव नहीं है, तो उन्होंने पन्त्री पठानों के 12 कबीलों को 12 ग्राम जागीर में दिये ताकि हमेशा शान्ति बन रहे। इस निमित्त कुछ नियम बनाये ताकि हिन्दुमुस्लिम दोनों ही में कभी कोई विरोध पैदा न हो और सभी भाई-भाई बनकर रहें। राव शेखा ने अपने पीले झंडे के नीचे चौ-तरफा नीली पट्टी लगवाई क्योंकि पठानों का झंडा नीले रंग का था। इसी तरह से दोनों धर्मों में पवित्र माने जाने वाले पशुपक्षियों के वध एवं उनके मांस-भक्षण पर सहमति बनाली, जैसे पठान गाय-बेल का मांस नहीं खायेंगे और हिन्दु सुअर का मांस भोजन में नहीं लेंगे।

 
मर्यादा पुरुष-राजपूती संस्कृति के अनुरूप शेखा एक मर्यादाशील पुरुष थे तथा अन्य से भी मर्यादोचित व्यवहार की अपेक्षा रखते थे, फिर वे चाहे कोई भी हो। जीवन पर्यन्त उन्होंने मर्यादाओं की रक्षा की। इतिहास गवाह है कि एक स्त्री की मान मर्यादा के पालनार्थ उन्होंने अपने ही ससुराल झूथरी के गौड़ों से झगड़ा मोल लिया जिसके परिणामस्वरूप घाटवे का युद्ध हुआ और उसमें उन्हें अपने प्राणों की आहुति भी देनी पड़ी थी।

घटना कुछ इस प्रकार से थी। झूथरी ठिकाने का राव मोलराज गौड़ अहंकारी स्वभाव का था। उसने अपने गाँव के पास से जाने वाले रास्ते पर एक तालाब खुदवाना आरम्भ किया और यह नियम बनाया कि रास्ते से गुजरने वाले प्रत्येक राहगीर को एक तगारी मिट्टी खोदकर बाहर की ओर डालनी होगी।

एक कछवाह राजपूत अपनी पत्नी के साथ गुजर रहा था। पत्नी रथ में थी, वह स्वयं घोड़े पर था, साथ में एक आदमी और था। इन सबको भी मिट्टी डालने को विवश किया। कछवाह राजपूत व उसके साथ के आदमी ने तो मिट्टी डालदी परन्तु वहाँ के लोग स्त्री से भी मिट्टी डलवाने के लिए जबरदस्ती रथ से उतारने लगे तो पति ने समझाया-बुझाया पर जब नहीं माने और बदसूलकी पर उतर आये तो उसने गौड़ों के एक आदमी को तलवार से काट दिया। इस पर वहाँ एकत्रित गौड़ों ने भी स्त्री के पति को मौत के घाट उतार दिया। पत्नी ने अपने आदमी का अन्तिम संस्कार करने के बाद वहाँ से एक मुट्ठी मिट्टी अपनी साड़ी के पलू में बांधकर लाई और सारी घटना से शेखा को अवगत कराया। शेखा ने सारा वृतांत जानकर गौड़ों को तुरन्त दंड देने का मन बना लिया और झूथरी पर चढ़ाई करदी। जमकर संघर्ष हुआ और गौड़ सरदार का सिर काटकर ले आये और उस विधवा महिला के पास भिजवा दिया। बाद में शेखा ने वह सिर अपने अमरसर गढ़ के मुख्य द्वार भी टांगा ताकि कभी और कोई ऐसी हरकत नहीं करें।

 
न्याय तो हो गया लेकिन गौड़ों ने इसे अपना घोर अपमान समझा और पूरी शक्ति के साथ घाटवा के मैदान में शेखा को ललकारा। शेखा ने भी उनकी चुनौती को स्वीकारा। दोनों ओर से घमासान मचा। शेखा को 16 घाव लगे लेकिन वे निरन्तर लड़ते रहे। गौड उनके आगे नहीं ठहर सके किंतु इस युद्ध के बाद बैशाख शुक्ला 3 (आखा तीज) संवत् 1545 में वे अपनी राजपूती मान-मर्यादा की बेदी पर स्वर्ग सिधार गये।

 
संक्षेप में शेखा निडर एवं आत्म स्वाभिमानी था। शौर्य व साहस की प्रतिमूर्ति था, धर्म-कर्म और पुण्य के मार्ग का अनुयायी था। सम्भवत: शेखा के इन्हीं पुण्यात्मकता के कारण उनके नाम से प्रसिद्ध शेखावटी अचंल आज विश्वस्तर पर नाम को रोशन कर रहा। शेखा के बाद आठ पुत्रों की संतानें शेखावत कहलाई और इन्हीं में से एक खांप ने देश को उपराष्ट्रपति (भैरोसिंह शेखावत) दिया तो एक खांप की पुत्रवधु आज देश की राष्ट्रपति है। ऐसे ही विश्व का सबसे धनी व्यक्ति भी इसी शेखावटी क्षेत्र की देन है। अत: स्वयं शेखा अपने समय में राजपूताने के एक ख्यातिनाम वीर पुरुष थे और आज भी उनका नाम सर्वत्र सम्मानीय है। इतिहासकार सर यदूनाथ सरकार ने भी लिखा है की जयपुर राजवंश में शेखावत सबसे बहादुर शाखा है।

 

(पुस्तक - "राजस्थान के सूरमा" )

 

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