गुरुवार, जनवरी 26, 2017

राव कांधल

दुनिया में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरों के लिए जन्म लेते हैं और पूरी जिन्दगी ही दूसरों के लिए जीते हैं। इनमें कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो दूसरों के लिए बलिदान भी हो जाते हैं। राजस्थान में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है। यही कारण है कि यहाँ की माटी को लोग चंदन मानकर आदर भाव से माथे पर लगाते हैं। मेरे मत में इतिहास में अब तक राजस्थान के जितने भी बलिदानियों के नाम प्रकाश में आये हैं, वह बहुत कम है, चूंकि तलवारों की झंकारों पर खेलने वालों को कहाँ समय था कि वे अपना इतिहास लिखवाते। टॉड ने लिखा है कि शौर्य एवं बलिदान की पूजा-स्थली के रूप में सम्पूर्ण यूरोप में मात्र एक थर्मापोली है, जबकि राजस्थान में तो पग-पग पर कई थर्मापोलियां हैं।

 
टॉड का कथन सही है। यहाँ के सूरमाओं ने हर युग में और हर जगह अपने बलिदान से इतिहास रचा है। क्या राजा और क्या सामान्य व्यक्ति, सभी यहाँ की शौर्य-गाथाओं के पात्र रहे हैं। अब बात करते हैं वीर-धीर एवं पराक्रम के पर्याय रावत कांधलजी की तो स्पष्ट है कि वे राजस्थान के किसी बड़े राज्य अथवा बड़े भूभाग के मालिक नहीं थे लेकिन उनके साहस, शौर्य एवं स्वाभिमान की बात करें तो लगता है कि उन जैसा और नहीं। कांधल अपने पिता रणमल की तरह बचपन से ही सुन्दर और सुदृढ़ शरीर के तेजस्वी बालक थे। शिक्षा-दीक्षा

 
राव रणमल ने बचपन से ही बीका ,जोधा व अन्य पुत्रों के साथ ही कांधल का पालन-पोषण किया था। इनकी कुछ विशिष्टताओं के कारण पिता की इनसे कुछ विशेष ही अपेक्षाएं थी। इसी कारण उनको विधिवत शिक्षण, घुड़सवारी, आखेट, अस्त्र-शस्त्र-संचालन, तलवार, कटार, भाला आदि अन्यान्य शस्त्रों को उपयोग में लेना, रणभूमि में लड़ना, सैन्य संचालन करना, मान-मर्यादाओं और परम्पराओं पर चलने की शिक्षा सुचारू रूप से दी गई। संयोग से कांधल की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा मारवाड़ व मेवाड़ दोनों ही प्रदेश के शूर-वीर बालकों के साथ हुई। इससे पहाड़ों व मरुभूमि दोनों ही जगहों का उन्हें अनुभव हो गया, जिसका लाभ उन्हें आगे बहुत मिला और वे आगे चलकर एक महान् वीर एवं कुशल योद्धा के रूप में उभरे। उनके इसी तेजस्वीता का परिणाम था कि रणमल ने अपने अस्तबल का सबसे अच्छा 'जेठो घोड़ा' कांधल को ही दिया था। स्मरण रहे कि तेज घोड़ा अच्छे योद्धा को ही दिया जाता था, यह एक महान् सम्मान समझा जाता था, जो कांधल को अपने पिता से मिला। कांधल का रण-कौशल एवं विजयी अभियान

 
इससे पूर्व की कांधल युवावस्था में प्रवेश करें, उसे तलवारों से खेलना पड़ गया, चूंकि जब मेवाड़ के महाराणा मोकल की जो रिश्ते में फूफा लगते थे, हत्या हुई। पिता रणमल एवं स्वयं उसे हत्यारों से निपटने में अपने कौशल का परिचय देना पड़ा। यही नहीं कमजोर होते मेवाड़ की सुरक्षा के लिए मांडू एवं गुजरात के सुल्तानों के साथ दो-दो हाथ करना पड़ा। इन युद्धों में सैन्य-संचालन और व्यूह रचना में उसने पूर्ण दक्षता प्राप्त करली और पिता व भाई जोधा की आशा के केन्द्र बन गये।

 
मेवाड़-मारवाड़ में द्वेष उत्पन्न हो जाने के बाद जब मेवाड़ के कतिपय सरदारों के कान भरने से पिता रणमल की हत्या हो गई तो राठौड़ों को तत्काल मेवाड़ छोड़ना पड़ा। बात यहाँ ही समाप्त नहीं हुई बल्कि मेवाड़ की सेना जोधा व कांघल आदि सभी भाईयों के पीछे हाथ धोकर पड़ गई। एक भाई मंडला उनके हाथ लग गया। जब कांधल को इस बात का पता लगा तो फिर क्या था, विपरीत परिस्थितयों में भी कुछेक वीरों के साथ चित्तौड़ जाकर राणा के अदम्य साहसी वीरों के रहते अपनी तलवार के बल पर भाई मंडला को कैद से छुड़ा लाए। निश्चित ही यह कांधल के अद्वितीय योद्धा होने तथा अतुल्य साहस एवं शौर्य का अनुपम उदाहरण है। इस विकट घड़ी में कांधल को राणा की सेना से अनेकानेक जगह संघर्ष करनापडा।

 
ऐसे ही कांधल ने अपने पिता के खोये हुए राज को प्राप्त करने के निमित्त भी चौकड़ी, मंडोर, मेड़ता, अजमेर, भैरूंदा आदि स्थानों पर युद्ध किये। चौकड़ी के  युद्ध में जब जोधा महाराणा के सुभट योद्धाओं से घिर गये थे तो कांधल ने अपने युद्ध कौशल का श्रेष्ठ परिचय देते हुए जोधा को मात्र मुक्त ही नहीं करवाया बल्कि दुश्मनों को मौत के घाट भी-उतार दिया था। यह इतिहास में पुन: भ्रातृ-स्नेह का एक उज्ज्वलतम उदाहरण है।

 
ऐसा लगता है कि पिता की मृत्यु के पश्चात कांधल के भाग्य में विश्राम लिखा ही नहीं था। बड़ी मुश्किल से मंडोर पर विजय प्राप्त की थी किंतु अभी वहाँ जमे भी नहीं कि नरबद और गुजरात के यवन शासक ने उस पर अधिकार कर लिया। कांधल भला यह कैसे सहन करता, उसने फिर मारवाड़ के छोटे-बड़े राजपूत सरदारों को एकत्रित किया और मंडोर को अधिकार में ले लिया।

 
यह एक सत्य है कि बीकानेर राज्य का नवोदय तो कांधल की तलवार की देन ही था। बीका को प्रारम्भ से ही उनके पराक्रम व सूझबूझ पर पूरा भरोसा था। यही कारण है कि अपने प्रत्येक महत्वपूर्ण निर्णय में कांधल को आगे रखा। दिली के सुल्तान बहलोल लोदी के सेनापति सारंग खां को जिस कुशलता के साथ कांधल ने धूल चटाई वह अविस्मरणीय है राव बीका की हर सफलता में चाहे वह जाटों के दमन में हो अथवा भाटियों की चुनौतियों का जवाब देने में हो, कांधल के शौर्य और बहुबल का ही कमाल था। कांधल ने राव जोधा व राव बीका दोनों की यशो-कीर्ति बढ़ाने में भरपूर सहयोग दिया। राजस्थान के पश्चिम में जैसलमेर, जालौर और पूर्व में हरियाणा के हांसी, हिसार, धमौरा, भट्टू और फतियाबाद, दक्षिण में मेवाड़ की सीमा पर गोड़वाड़ और उत्तर में भटनेर तक अनेक युद्ध क्षेत्रों में कांधल ने खून और पसीना बहाया था। निरन्तर 62 वर्ष तक शक्ति एवं शौर्य के प्रतीक के रूप में मृत्यु का व्रत धारण कर शेरों की तरह कांधल लड़ा और एक वीर राजपूत की तरह ही युद्ध भूमि में वीर गति को प्राप्त हुआ। अद्भुत व्यक्तित्व' के धनी  

 
राजस्थान के रण-बांकुरों की पंक्ति में तो कांधल प्रथम पंक्ति के हकदार है ही, किंतु जब कभी श्रेष्ठ मानवीय गुणों से परिपूर्ण महान् व्यक्तियों का स्मरण किया जायेगा, तब मध्यकालीन इतिहास में उनका स्मरण किये बिना नहीं रहा जायेगा। कांधल ने एक ऐसे काल में जन्म लिया था जब भाई-भाई राज के लिए खून का प्यासा बना हुआ था तो पुत्र पिता का खून कर राजसिंहासन लेने में तनिक भी संकोच नहीं कर रहा था। ऐसे में कांधल तो सचमुच ही एक अलग से महामानव थे, जो अपने भाई को अपनी तलवार के बल पर एक राज्य उपहार में देने के लिए उत्सुक दिखलाई दिये और दिया भी सही। ऐसे ही अपने पिता के खोये राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए कांधल ने कितनी-कितनी लड़ाइयां लड़ी और क्या-क्या नहीं किया ? इतिहास गवाह है कि 73 वर्ष की आयु में भी वह निरन्तर संघर्ष रत रहा। तलवार से खेलना और युद्ध भूमि में जूझना शायद उनकी नियति थी।

 
कांधल के व्यक्तित्व की एक यह भी खूबी थी कि वे जहाँ भी रहे, जिसके साथ भी रहे, उसका मान बढ़ाया। अपने निकट सम्बन्धी स्वाभिमानी सिसोदिया (मेवाड़) के स्वभिमान को ऊँचा रखने में कांधल का महान् योगदान रहा। महाराणा मोकल, लाखा और कुंभा के प्रताप को कांधल ने अपने पराक्रम एवं कौशल से निरन्तर बढ़ाया। यह बात तो कांधल के यौवनावस्था की है। बाद में अपने भाइयों की यशो-गाथा को अपने रक्त एवं पसीने से सींचकर आज के जोधपुर और बीकानेर राज्यों की कीर्ति-पताका फहराई। लोक देवता के रूप में  कांधल के व्यक्तित्व की एक विशेषता यह भी थी कि उन्होंने प्रजा के सुख-चैन का सदैव ध्यान रखा। जब भी उनके पास आतंकियों और लुटेरों का समाचार आया वे तत्काल उनके विरुद्ध संघर्ष को तैयार हो गये। ये लुटेरे या आतंकी चाहे मुसलमान थे या हिन्दु, इन्होंने कभी जातिगत भेद किये बिना उनके विरुद्ध उठ खड़े हुए। यही तो कारण है कि मारवाड़ की जनता आज भी उनके बलिदान दिवस (पौष पंचमी) पर उनको देवता के रूप में पूजकर भगवान अंशुमाली के अस्त होते ही साहिबा के पवित्र सरोवर पर उनकी रानी देवड़ीजी के थड़े से दीपमाला बनाकर अंधियारे में उजाला भरती है और उनके नाम की जय-जयकार से आकाश को गुंजा देती है। प्रजा द्वारा यही उनका महान् सम्मान है। ऐसा क्यों हुआ? तो स्पष्ट है कि प्रजा के मन में उनके साहस एवं वीरता के अनुपम उदाहरण जो उन्होंने प्रस्तुत किये मरणोपरांत आज पांच सौ वर्ष बाद भी जीवन्त है और सम्भवत: आगे भी सदैव जीवन्त ही रहेंगे। त्याग एवं भ्रातृ-प्रेम के प्रतीक


अगर आज मारवाड़ कांधल की पूजा करे या जय-जयकार करे तो यह सब कुछ यूं ही नहीं हुआ। इसके पीछे कांधल का अतुल्य त्याग एवं बलिदान है। पिता की आज्ञानुसार अपनी तलवार से भाई बीका के लिए द्रोणपुर व अन्य कई क्षेत्रों पर विजय प्राप्त कर सारे क्षेत्र बीका को देकर उसे स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया। अपने बाहुबल से अर्जित राज्य को अपने और अपने बाल-बच्चों के लिए न रखकर बीका को सौंप दिया और जन्म भर उसको राजा मानते रहना, सो भी एक हंसी में की गई प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए, कांधल से त्यागवीर के द्वारा ही सम्भव था। 
सुविख्य इतिहासवेता ठा. भगवतीप्रसाद सिंह बिसेन ने एक अत्यन्त ही मार्मिक घटना का वर्णन करते हुए लिखा है कि-'बीकानेर का नया राज विजय कर बीका को राजा घोषित करने के उपरांत जब रावत कांधल मंडोर पहुँचे तब राव जोधा, चांपा, बरजांग और दूदा आदि तमाम भाई और भतीजे, गिनायत (सम्बन्धी), उमराव, दरबारी और जोधपुर की समस्त प्रजा ने दीपमालिकाएं सजाकर कांधल का स्वागत किया चूंकि भगवान रामचन्द्र के समान ही पिताज्ञा को पूर्ण कर वे 23 वर्ष बाद जोधपुर आये थे। अब उन्हें अपने लिए नये राज्य को विजयी करने के लिए निकलना था, इसलिए अपने भाई-बंधुओं से मिलने के लिये आये थे। बीका ने कांधल से अधिक उम्र होने के कारण मना भी किया किंतु वे नहीं माने और अपने युद्ध कौशल से बेनीवाल एवं सारण जाटों के क्षेत्र को विजय किया और साहबा को मुख्यालय बनाया और पुन: एक राज्य की नींव डाली। बाद में कांधल ने सेरडा, बुडाक, हिसार, फातियाबाद, हांसी और गडाणा तक के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। 
मृत्य  भी तलवार के साथ  वीर कांधल अपने विजय अभियान के  दौरान ही जब वह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी के क्षेत्र तक पहुँचा तो लोदी ने उसे तुरंत रोकना उचित समझकर एक विशाल सेना के साथ सारंग खां को भेजा। सारंग खां ने युद्ध की प्रतीक्षा भी नहीं की और कांधल पर जब वह करीब तीस सवारों के साथ घूमने निकला हुआ था, आक्रमण कर दिया। घोड़े का तंग टूट जाने के बावजूद पैदल ही कांधल ने सारंगखां व उसकी सेना से डटकर मुकाबला किया और 22 शत्रुओं को मारकर पौस कृष्ण पंचमी वि.सं. 1546 (रविवार, दिसम्बर 13, 1489) के दिन वीरगति को प्राप्त हुआ। 
आज कांधल हमारे बीच नहीं है लेकिन इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ आज भी हमारे सम्मुख उसके शौर्य एवं बलिदान की अमर गाथाओं का बखान कर रहे हैं और सदियों तक करते रहेंगे।

(लेखक - तेज़ तरुण "राजस्थान के
सूरमा")




 

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