सोमवार, जनवरी 23, 2017

महाराव देवसिंह

यूं बून्दी राजवंश 'हाड़ा राजवंश' के नाम से जाना जाता है, मूलत: यह चौहान राजवंश है जिसने बून्दी प्राप्ति से पूर्व 200 वर्ष तक नाडोल पर राज किया। बाद में कुतुबुद्दीन एबक ने जब नाडोल पर आक्रमण किया तो चौहान राजवंश ने जालौर-सोनगिरि की ओर कूच किया वहाँ अपना राज स्थापित किया। इसी वंश में से माणिकराय द्वितीय जालोर पर अनवरत मुस्लिम आक्रमणों के कारण किसी सुरक्षित स्थान की तलाश में था और अंतत: इस दृष्टि से मेवाड़ का दक्षिण-पूर्वी भाग ठीक लगा और वह अपने परिवार व विश्वासपात्र सरदारों के साथ इधर आ गया। भैंसरोडगढ़ को अपना केन्द्र बनाया। उसने देखा कि इस भूभाग पर आदिवासी मीणा आदि जन-जातियों का बाहुल्य था और उनका प्रभाव भी था।

 माणिकराय को उन्हें अपने अधीन करने में अधिक जूझना नहीं पड़ा। वृद्धावस्था के कारण भैंसरोडगढ़ के बाहर उसने सीमा प्रसार का प्रयास नहीं किया लेकिन अन्तिम दिनों में पास ही के बम्बावदा पर अधिकार किया और उसे वहाँ की भौगोलिक स्थिति इतनी अच्छी लगी कि उसे ही अपनी राजधानी बना दी। माणिक राय के उत्तराधिकारी हुए जैतराव, अनंगराव, थुलसिंह और विजयपाल। इन सबके बारे में विस्तार से बहुत अधिक कुछ ज्ञात नहीं है लेकिन विजयपाल के पुत्र हरराय या हाडाराव के सम्बन्ध में अवश्य कुछ पढ़ने को मिलता है। जगदीशसिंह गहलोत के अनुसार इस हरराय से ही 'हाड़ाराव' शब्द का चलन इतिहास में हुआ। इसके उपरान्त हरराव के पुत्र बंगदेव (बाघा) ने बम्बावदा-भैंसरोडगढ़ के अतिरिक्त मांडलगढ, बिजौलिया, रतनगढ़ के परगनों पर कब्जा किया। अब चौहानों की इस हाड़ा शाखा के पास एक सम्मानजनक राज्य-सीमा हो गई थी, फिर भी बंगदेव के बड़े पुत्र देवसिंह की मंशा अब भी राज्य-प्रसार पर थी, चूंकि जो कुछ उसके पिता के पास था वह उसके परिजनों के लिए पर्यात नहीं था और न ही उसे सुरक्षा का अहसास था। इसलिए वह निरन्तर प्रयत्नशील था।

 इसी के बीच देवसिंह ने बुद्धिचातुर्यता का प्रदर्शन करते हुए मेवाड़ के सिसोदियों से सम्बन्ध जोड़ने की दिशा में आगे बढ़ा और अपनी बेटी के लिए महाराणा लक्ष्मणसिंह के कुंवर अरिसिंह का हाथ मांगा। बस, अब क्या था ? बात बन गई। सिसोदियों को भी अपने इस दक्षिण पूर्वी भाग को सम्भालने के लिए एक विश्वासपात्र की आवश्यकता थी और देवसिंह के लिए मेवाड़ के सिसोदिया से सम्बन्ध होना बहुत बड़ी बात थी। कहते हैं कि अरिसिंह जब बारात लेकर देवसिंह के यहाँ गये और उसके हालात ठीक नहीं देखे तो लक्ष्मणसिंह ने कहा कि हम आपके साथ हैं, अपनी जागीर को और बढ़ा लो। देवसिंह तो यही चाहता था, वह तुरन्त भैंसरोडगढ़ के आगे मीणों के क्षेत्रों पर अधिकार करता हुआ निरन्तर बढ़ता गया और वह आज का बून्दी तक जो उस समय 'पथार' अंचल के नाम से विख्यात था, पहुँच गया। यहाँ मीणा शासक से लोहा लेना सरल नहीं था। जनश्रुति है कि बूंदी घाटी पर बूंदा मीणा का पोता जेता का देवसिंह के समय अधिकार था। वह एक ब्राह्मण कन्या से विवाह करना चाहता था। ब्राह्मण देवसिंह की शरण में गया, उसने ब्राह्मण को युक्ति सुझाई कि एक मंडप बनाओ, खूब शराब का प्रबन्ध करो। मंडप में बिठाकर इतना पिलाओ कि होश ही नहीं रहे। ऐसा ही किया गया, ब्राह्मण ने बारात बुलाई। मीणों की शराब से मेजबानी की। योजनानुसार देवसिंह आया और उसने शराब में मदमस्त मीणों को मारकर बूंदी पर अधिकार कर लिया।

 महाकवि सूर्यमल ने "वंश भास्कर' में एक अलग कथा लिखी है। उनके अनुसार उन दिनों बूंदी के आसपास मीणों का प्रभुत्व था और उनका सरदार जेता काफी शक्तिशाली था। उसकी दिली इच्छा थी कि वह राजपूतों से बेटी व्यवहार करे। इस निमित्त उसने अपने कामदार जसराज चौहान की पुत्रियों से अपने बेटों का विवाह करने का प्रस्ताव किया। जसराज इस पर सहमत नहीं था और पास ही के राज्य के देवसिंह से भेंट की और सारी बात बतलाई। देवसिंह तो ऐसा ही चाहता था, राज्य विस्तार का अच्छा अवसर जानकर जनश्रुति में बतलाई योजनानुसार ही जसराज को करने को कहा और जसराज ने उसके बताये अनुसार मंडप में आग लगवा दी। बहुत से मीणे आग में स्वाह हो गये और बच गये उन्हें देवसिंह ने मौत के घाट उतार दिया।

 बस, अब क्या था, मीणा सम्भल नहीं पाये और देवसिंह ने उन्हें बूंदी से खदेड़ दिया और स्वयं वहाँ का शासक बन गया। अब बूंदी   पर हाड़ा  चौहानों का  अधिकार हो  गया। देवसिंह बहुत नीतिज्ञ था।  उसे पता था कि   उस क्षेत्र  में  मीणाओं का बाहुल्य है, अत: उसने   उनके क ई   सरदारों  को अपने  विश्वास में  लिया और उन्हें राजकार्यों   में  लगाया।  इसका परिणाम  अच्छा रहा। कुछ ही समय में पूरे क्षेत्र में देवसिंह का प्रभाव जम गया और आम जन   में भी  उसे भरपूर सहयोग दिया। अब  राजधानी    बनानी थी।    देवसिंह  ने इस   कार्य को भी पूरा   किया और संवत  1398, आषाढ़ वदि नवमी, मंगलवार को बूंदी नगर की स्थापना की। इस समय देवसिंह के पिता बंगदेव जीवित थे और भैंसरोडगढ़ में  निवास करते थे, लेकिन राजधानी के रूप में बम्बावदा थी। पिता की मृत्यु के बाद देवसिंह बम्बावदा अपने पुत्र हरिदेव को  देकर स्वयं बून्दी रहने लगा।

 
यूं बून्दी पर हाड़ाओं के अधिकार को लेकर कई और जनश्रुतियां है पर देवसिंह के कौशल और प्रतिभा को लेकर इतिहासकारों में कोई मतभेद नहीं है। फिर भी बून्दी के इतिहास को लेकर कई तथ्यों का प्रकाश में आना शेष है। चूंकि देवसिंह से पूर्व उसके दादा विजयपाल (विजिपाल) का इस क्षेत्र में आगमन हो चुका था। इनसे सम्बन्धित एक शिलालेख वि.सं. 1354 का बून्दी से दो कि.मी. दूर स्थित केदारेश्वर महादेव के मन्दिर में लगा हुआ है जो ऐतिहासिक तिथियों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इस एक शिलालेख से ही यह बात धुंध में है कि अगर विजयपाल और उससे पूर्व किन-किन चौहान शासकों ने इस क्षेत्र में विजय प्राप्त करने की चेष्टा की थी?

 खैर, जो भी हो आज जो इतिहास हमारे पास है उसके अनुसार चौहान वंश का हाड़ा शाखा का शुभारम्भ भले ही बम्बावदा से हुआ हो पर उसे ख्याति बून्दी और फिर कोटा से मिली जिसका पूरा श्रेय देवसिंह को जाता है। देवसिंह ने मात्र बून्दी फतह नहीं की बल्कि दासों से पाटण, गोड़ों से गैणोली, लखेरी और दहिया जसकरणा से करवाड के परगने लेकर राज्य का विस्तार भी किया। यही नहीं अपने राज्य की सुरक्षा बनी रहे इस दृष्टि से मेवाड़ से भी देवसिंह पूर्ण आत्मिक सम्बन्ध बनाये रखे। देवसिंह को यूं बहुत कम समय मिला मगर जो भी समय मिला उसमें उसने अमरयूणा से पूर्व का और गंगेश्वरी देवी का मंदिर और एक बावड़ी अपने पिता की स्मृति में बनवाई। यहीं देवसिंह ने अपने संघर्षशील जीवन की अन्तिम सास ली।

 (लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )
 

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