बुधवार, जनवरी 18, 2017

महाराणा कुंभा

महाराणा मोकल के असामयिक निधन के बाद ज्येष्ठ पुत्र कुंभ कर्ण, जो मेवाड़ के इतिहास में कुंभा के नाम से प्रसिद्ध है, सन् 1433 ई. में राज्य सिंहासन पर बैठा।

शौर्य और पराक्रम की दृष्टि से यदि हम भारतीय इतिहास का अध्ययन करें तो   कुंभा अद्वितीय था।   सच तो यह है कि कुंभा बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। प्रसिद्ध इतिहासकार रामनारायण सन् 1915 में प्रकाशित 'मेवाड़ राज्य का इतिहास' में लिखते हैं-‘‘यह महाराणा   अपने समय   के अनुपम   शूरवीर, साहसी, युद्धप्रिय और   नीतिनिपूर्ण थे,   पैंतीस वर्ष के शासनकाल में बराबर  बड़े-बड़े    राजा-महाराजाओं  और प्रबल व   प्रतापी दिल्ली, मालवा,   गुजरात के बादशाहों से लड़ाइयां लड़ी और अपने खड़गबल से क्षात्र धर्म   की उज्ज्वल   कीर्ति के उत्कर्ष को   सिद्ध किया।' ऐसा ही उल्लेख सुविख्यात इतिहासवेत्ता गौरी शंकर हीराचंद ओझा ने 'उदयपुर राज्य का इतिहास' में लिखा है-'वह (कुम्भा) शरीर का हृष्ट-पुष्ट और राजनीति था युद्ध विद्या में बड़ा कुशल था। अपनी वीरता से उसने दिल्ली और गुजरात  के सुल्तानों का कितना-एक प्रदेश अपने अधीन किया, जिस पर उन्होंने उसे छत्र भेंट   कर 'हिन्दू सुरताण'   का खिताब दिया अर्थात् उसको हिन्दू बादशाह स्वीकार किया था। उसने कई बार मांडू और गुजरात के सुलतानों को हराया, नागोर को विजय किया। यही नहीं गुजरात और मालवे से संयुक्त सैन्य बल को पराजित   किया और राजपूताने का अधिकांश एवं मांडू, गुजरात और दिल्ली राज्यों के कुछ अंश छीनकर मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।

निश्चित ही कुंभा ने मेवाड़ राज्य की सीमाओं का जितना विस्तार किया  उसना मेवाड़ का और कोई शासक नहीं कर पाया। यूं कुंभा के पश्चात् महाराणा सांगा ने भी राजस्थान और राजस्थान के बाहर के कई शासकों को अपने अधीन किया था लेकिन सीमा-प्रसार की दृष्टि से कुंभा सांगा से आगे ही था। उसकी विजयों का स्पष्ट उल्लेख राणकपुर के शिलालेख में इस प्रकार है-'अपने कुलरूपी कानन (वन) के सिंह राणा कुंभकर्ण ने सारंगपुर, नागपुर (नागौर), गागरण, (गागासेन), नराणक (नराणा), अजयमेरु (अजमेर), मंडोर (मारवाड़), मंडलकर (मांडलगढ़) बून्दी, खाट (राजस्थान में खाटू नाम के तीन स्थान है, दो (बड़ी खाटू और एक छोटी खाटू) जोधपुर राज्य और एक जयपुर राज्य में है। रणकपुर के लेख का सम्बन्ध इतिहासकार ओझा के अनुसार संभवतः जयपुर राज्य के खाटूनगर से है।), चाटसू आदि सुदृढ़ और विषम किलों को लीला मात्र से विजय किया, अपने भुजबल से अनेक उत्तम हाथियों को प्राप्त किया और मलेच्छ महिपाल (सुलतान) रूपी सपों का गरूड़ के समान दलन किया था। प्रचण्ड भुजदण्ड से जीते हुए अनेक राजा उसके चरणों में सिर झुकाते थे। प्रबल पराक्रम के साथ दिल्ली (दिल्ली), गूजरत्रा (गुजरात) के राज्यों की भूमि पर आक्रमण करने के कारण वहाँ के सुलतानों ने छत्र भेंटकर उसे 'हिन्दू सुरत्राण' का विरुद (पद) प्रदान किया था। वह सवर्णसत्र (दान-यज्ञ) का आगार (निवास स्थान), छ: शाखों में कहे हुए धर्म का आधार, चतुरगिणी सेना रूपी नदियों के लिए समुद्र था और धर्म एवं कीर्ति के साथ प्रजा का पालन करने और सत्य आदि गुणों के साथ कर्म करने में रामचन्द्र और युधिष्ठिर का अनुकरण करता था और सब राजाओं का सार्वभौम (सम्राट) था।'

उपर्युक्त शिलालेख के आधार पर किसी भी इतिहासकार के लिए कुंभा के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करना आसान रहा और इसीलिए सभी ने एक मत से इतना तो स्वीकार किया है कि कुंभा बहुमुखी प्रतिभा का घनी था। वह जहाँ एक शक्तिपुत्र था वहीं वह माँ सरस्वती का भक्ति-पुत्र भी था। कवियों ने उसे अभिनय भरताचार्य की संज्ञा से सम्बोधित यूं ही नहीं किया; अनेकानेक लेख-आलेख कवियों के कथन के प्रमाण हैं जिनमें स्पष्ट उल्लेख है कि कुंभा कुशल वीणावादक, संगीत और नाट्यशास्त्र के ज्ञाता थे। कुंभा के इसी बहुमुखी व्यक्तित्व के कारण प्राप्त शिलालेखों व दान-पत्रों में उसे राजाधिराज, रायराण, राणेराय, दानपुरुष, शौर्यगुरु, अभिनव भरताचार्य व हिन्दू सुरत्राण आदि नामों से विभूषित किया गया है।

]कर्नल टॉड ने भी कुंभा के बहुमुखी व्यक्तित्व को इस प्रकार दर्शाया है कि-'कुंभा एक महान् यौद्धा, शासक और महान् विद्वान था। उसके एक हाथ में शास्त्र तो दूसरे हाथ में शस्त्र था। वर्तमान के इतिहास मर्मज्ञ डॉ. ऑकारसिंह राठौड़ केलवा (मेवाड़) ने तो यहाँ तक लिखा है कि-भारतीय इतिहास में इतनी बहुमुखी प्रतिभावाला व्यक्तित्व भगवान कृष्ण के पश्चात् अभी तक नहीं हुआ है।

कुंभा के समय के प्राप्त शिलालेखों व फारसी प्रशस्तियां उत्त विद्वानों के कथन को प्रमाणित करने के लिए पर्यात है। यदि हम उसके शौर्य-वृतांत को ही लें तो यह कहने में किसी भी विद्वान को किंचित् भी हिचक नहीं होगी कि कुंभा अपने समय का सर्वशक्तिमान शासक था। उसके पास विशाल सेना थी। इसी कारण वह 'टोडरमल की उपाधि से अलंकृत था। टोडरमल संभवतः 'त्रिदुहमल' शब्द से बना प्रतीत होता है जिसका अर्थ होता है-तीन प्रकार की सेनाओं का अधिपति। कीर्तिस्तम्भ के लेख में इसे स्पष्टत: वर्णित किया है कि कुंभा ने हयेश (अश्वपति) हस्तीश (गजपति) और नरेश (पैदल सेना का अधिपति) होने से 'तोडरमल का अलंकरण धारण किया था। फारसी तवारीख में भी कुंभा की विशाल सेना का उल्लेख बहुतायत से मिलता है। कुंभा चूंकि वीर एवं साहसी प्रकृति का था, संभवतः गुजरात, मालवा, दिल्ली व राजस्थान का उत्तर-पूर्वी भाग. में मुस्लिम शासकों के बढ़ते कदमों के कारण संगीत एवं साहित्य की इस प्रतिभा को विशाल सेना रखना आवश्यक था। उसने अपने शासनकाल में किसी को भी मेवाड़ की ओर आँख दिखाने अवसर नहीं दिया, बल्कि जिसने भी यह दु:साहस किया उसे कुंभा ने कहीं का नहीं रखा। अपनी इसी नीति के तहत कुंभा ने मेवाड़ की सुरक्षा के लिए 32 दुर्गों का निर्माण करवाया। चित्तौड़गढ़ स्थित कीर्ति स्तम्भ उसके साहस, शौर्य एवं शक्ति की अमर गाथा कहता हुआ। आज हमारे सम्मुख है। अगर यह कहा जाए कि वीर प्रसविनी मेवाड़ को विश्व इतिहास में जो सम्मान आज प्राप्त है उसमें कुंभा के यशस्वी व्यक्तित्व की मुख्य देन है। बाद में चूंडा, सांगा, प्रताप व अन्यान्य वीर-सपूतों ने और ख्याति देकर विश्व विख्यात किया।

महाराणा का शिल्पप्रेम-'उदयपुर राज्य का इतिहास' नामक ग्रंथ में गौरीशंकर  हीराचन्द  ओझा ने कुंभा के शिल्पप्रेम के दर्शाते हुए स्पष्ट लिखा है कि-'महाराणा कुंभा शिल्पशास्त्र   का ज्ञाता  होने के  अतिरिक्त शिल्प कार्यों  का बड़ा प्रेमी था। 'वर्तमान के बहुचर्चित साहित्यकार एवं शिल्पशास्त्रीय ग्रंथों के विद्वान लेखक डॉ. श्री कृष्ण जुगनू ने कुंभाकालीन विख्यात शिल्पियों के नामों का  अपनी  पुस्तक 'कला निधि' में  जिस तरह उलेख किया  इससे  स्पष्ट है कि कुंभा की इस विद्या में विशेष रुचि थी। डॉ जुगनू ओझा के मत का  समर्थन करते हुए  लिखते है-'कुंभा स्वयं  स्थापत्यशास्त्र का  ज्ञाता था। जय और अपराजित के मतानुसार उसने स्थापत्य शास्त्र  को लिखा व  शिलोत्कीर्ण करवाकर   चित्तौड़गढ़ के कीर्तिस्तम्भ के निकट स्थापित  करवाया था।” कुंभा  कालीन मण्डन, जैता (जयता) व  उसका पुत्र  बलराम, चौथा, पउमी, तथा क्षेत्राक, नाथा , भीम,  वेला, टीला,  पोमा,  गोरा,  ढोला, देवा,  गोविन्द, वच्छा,  भान, छाया, दामोदर  व हरराज  आदि के नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने मेवाड़ में एक से बढ़कर एक स्थापत्य कला के कई  श्रेष्ठ नमूने गढ़े जो  आज भी मेवाड़ के गौरव में चार चांद लगा रहे हैं।

चित्तौड़गढ़ पर कई भवनों के साथ तलहटी से दुर्ग तक रथ मार्ग व कुछ-कुछ दूरी पर कई पोलों (द्वारा) का निर्माण करवाया। जगत-विख्यात कीर्तिस्तम्भ, कुंभस्वामी व आदिवराह मंदिर, रामकुंड सहित कई बावड़ियों का निर्माण करवाया। कुंभलगढ़ व उसमें स्थित द्वार, कुंभस्वामी का मंदिर, जलाशय व बाग कुंभा के निर्माण कार्यों के अप्रतिम उदाहरण हैं। अकेला दुर्ग ही आज के शिल्पशास्त्रियों को और युद्ध शास्त्रियों के सोचने के लिए काफी है। एकलिंगजी का मन्दिर जिसे हम आज देख रहे हैं, यह कुंभा द्वारा किये पुनरुद्वार का ही प्रतिफल है। उपरोक्त कार्यों तक ही कुंभा के स्थापत्य प्रेम के दर्शन नहीं होते बल्कि जावर, अचलगढ़, बसन्तपुर आदि स्थानों पर भी एक से बढ़कर एक शिल्पकला की कई श्रेष्ठ कृतियां देखने में आती है। यदि कुंभाकालीन शिल्प पर दृष्टि डाले तो कोई भी व्यक्ति दाँतों तले अंगुली दबाये बिना नहीं रह सकता है। रणकपुर का मंदिर ही पर्यात है किसी को चकित करने के लिए, कला एवं विज्ञान (शिल्प) का अनुपम उदाहरण है। यह कभी भी यदि दुनिया के आश्चर्यों में आजाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। स्थापत्य की ऐसी ही कई कृतियां जावर के आसपास बिखरी पड़ी हैं जिनका निर्माण कुंभा की बहन रमाबाई के हाथों अथवा उनके समकालीन जैन श्रेष्ठियों द्वारा हुआ।

पुन: संक्षेप में यहाँ हम यही कह सकते हैं कि कुंभा स्वयं तो शिल्प -विज्ञान का ज्ञाता था ही, साथ ही उनके समय के उनके अपने लोगों ने भी उनके इस ज्ञान व प्रेम से प्रेरित होकर मेवाड़ को जो अनुपम उपहार दिये, स्तुत्य हैं।

कुंभा का साहित्य व संगीत प्रेम-महाराणा कुंभा के साहित्यिक एवं संगीत प्रेम के सम्बन्ध में इतिहासवेता राम वलम सोमानी ने बहुत ही सटीक लिखा है कि-'दुर्भाग्य की बात है कि इस महान् राजा के सम्बन्ध में इतना अध्ययन नहीं किया गया है जितना किया जाना चाहिए था। इसका सबसे उल्लेखनीय ग्रंथ संगीतराज है। संगीतराज के अतिरिक्त गीतगोविन्द की टीका, चंडीशत की टीका,


सूड़प्रबन्ध, कामराजरतिसार आदि प्रसिद्ध हैं। ओझा, हरविलास शारदा, कृष्णामा चारी आदि इतिहासकारों ने अपने ग्रंथों में संगीतरत्नाकर पर टीका लिखने का उल्लेख किया है। इसी तरह संगीतक्रमदीपिका, गीतगोविन्द, वाद्यप्रबन्ध, नाटकग्रंथ व शिल्पशास्त्रीय ग्रंथ लिखने के सम्बन्ध में समकालीन प्रशस्तियों में वर्णन मिलता है।

उत्त ग्रंथों की रचना स्वयं कुंभा ने की लेकिन इससे भी अधिक महत्व की बात यह है इसके राज्यश्रय में साहित्य की विभिन्न विधाओं में जो सृजन हुआ वो उसके साहित्यक प्रेम को दर्शाता है। यूं कुंभा स्वयं संस्कृत का विद्वान था। उसके आश्रित विद्वानो में अत्रि, महेश, एकनाथ कन्हव्यास के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति की रचना अत्रि एवं उसके पुत्र महेश ने की और इसी उपलक्ष्य महाराणा कुंभा ने इसे सोने की डंडीवाले 2 चंवर और एक छत्र दिया। निश्चित ही यह कुंभा का साहित्य एवं रचनाकारों के प्रति अनुराग दर्शाता है।

कुंभा के काल में जैन साहित्य की अपूर्व रचना हुई। संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत और राजस्थानी भाषाओं का विकास हुआ। सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति, सोमसुन्दर, मेरुसुन्दर आदि रचनाकारों के नाम विशेष हैं जिनकी रचनाएँ आज साहित्य की विशेष धरोहर है। दीर्घकाल तक महाराणा कुंभा युद्ध में व्यस्त रहते हुए भी उनकी साहित्यिक रुचि के कारण इतना विशाल साहित्य पल्लवित हो सका था। समुचित शोध के अभाव के कारण इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी कुंभा का पूरा मूल्यांकन नहीं हो सका, यह निश्चित ही विडम्बना है।

 (लेखक – तेजसिंह तरुण “राजस्थान के सूरमा” )

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