ब्लॉग का नाम मैने अपने गाँव (गुगलवा-किरताण ) के नाम पे रखा है ,जो सरकार की मेहरबानी से काफी पिछड़ा हुआ गाँव हैं |आज़ादी के इतने बरसों बाद भी बिजली,पानी ,डाकघर , अस्पताल जैसी सुविधाएँ भी पूर्णरूप से मय्यसर नहीं हैं. गाँव के सुख दुःख को इधर से उधर ले जाता हूँ , ताकि नेता को दया आ जाये | वैसे नेता लोगों से उम्मीद कम ही है इसलिए मैने अपने गाँव (Guglwa) का नाम Google से मिलत जुलता रखा है , ताकि Google की किस्मत की तरह Googlwa की किस्मत भी चमक जाये
मंगलवार, दिसंबर 15, 2015
शनिवार, दिसंबर 12, 2015
तेरी दुल्हन
रोहित स्कूल से घर
आया तो अपनी माँ के पास 
काफी देर से एक खूबसूरत युवती को बैठे देखकर 
माँ उसके मनोभावों को भांपते हुये मुसकराकर बोली ,”तेरी दुल्हन ”
  
  
  
  
  
  
  
  
  वक़्त खिसकता
रहा......बीस साल पुरानी यादें उसके गाँव आते ही ताज़ा हो जाती। आज फिर रोहित करीब
दो साल बाद अपने गाँव आया। अपने घर की साफ सफाई करवाकर वो निखिल के घर की तरफ बढ़
गया। वो जब भी गाँव आता खाना निखिल के घर ही खाता था। काकी उसे निखिल की तरह प्यार
से खाना खिलाती ।   
  
  
  
  
  
  
  
  
  
नहीं ,मुझे अचानक जाना पड़ रहा है , आंटी को बोल देना ।
युवती रोहित के साथ साथ चलने लगी। ,“आपने मेरी मम्मी को देखा था ? कैसी दिखती थी वो ?”
  
- "विक्रम"
  
पूछा, “ये कौन है माँ ? “
माँ उसके मनोभावों को भांपते हुये मुसकराकर बोली ,”तेरी दुल्हन ”
रोहित शरमाकर दूसरे
कमरे मे चला गया ,युवती भी शरमाकर रोहित को जाते हुये देखने लगी।
शालिनी पड़ोस के घर मे
अगले हफ्ते होने वाली एक शादी मे शामिल होने आई थी। रोहित को जब पता चला तो वो
स्कूल से आते ही पड़ोस के घर मे अपने दोस्त निखिल के पास किसी न किसी बहाने चला
जाता। निखिल से पता चला वो उसके मामा की बेटी है । 
  
रोहित जब भी निखिल से
मिलने आता , शालिनी भी किसी न किसी बहाने उन दोनों के पास आ जाती। रोहित और शालिनी
छुपकर एक दूसरे को देखते रहते । 
“तेरी दुल्हन” , माँ के कहे ये शब्द रोहित और शालिनी को बरबस ही
मुस्कराने पर मजबूर कर देते। धीरे धीरे दोनों ने एक दूसरे से औपचारिक बातचीत शुरू
की । शादी की भीड़भाड़ से बचने के लिए वो छत पर चले जाते। देर तक बातें करते रहते। 
शालू !, किसी
ने पुकारा तो शालिनी उठते हुये राहुल का हाथ पकड़कर चुटकी बजाते हुये हँसकर  बोली, ”जाना मत , मैं बस यूँ आई ।” कहते हुये नीचे की तरफ दौड़ गई ।
शादी का दिन नजदीक आ
चुका था , मेहमानों की भीड़भाड़ के चलते दोनों युवा मिलने की जगह तलाशते रहते थे। 
आखिरकार शादी का दिन
भी आ गया और दुल्हन की विदाई का भी । दुल्हन की विदाई के दूसरे दिन मेहमान भी जाने
लगे और उनके साथ ,रोहित की "दुल्हन" भी विदा होने लगी। रोहित एक तरफ खड़ा शालिनी
को अपने रिश्तेदारों के साथ जाते हुये देखता रहा। शालिनी की निगाहें रोहित को तलाश
रही थी। 
नजरें मिली ,
दोनों की आँखों में नमी साफ देखी जा सकती थी। 
 
वक़्त गुजरता गया ।
मगर रोहित शालिनी को नहीं भुला पाया। वो शालिनी का इंतज़ार करता रहा। साल-दर-साल
गुजरते गए । उसने शालिनी के प्रति अपने आकर्षण का जिक्र किसी से नहीं किया , यहाँ
तक की अपने दोस्त निखिल को भी कुछ  नहीं बताया ।
पढ़ाई पूरी करने के बाद रोहित को एक सरकारी नौकरी मिल गई। नौकरी लगने के बाद रोहित
की माँ ने शादी के लिए लड़कियां देखनी शुरू की मगर रोहित किसी ना किसी बहाने टालता
रहा। वो माँ को नहीं कह पाया की माँ , “मेरी दुल्हन तो आपने बचपन मे ही तलाश ली थी ,फिर अब किसकी तलाश है ? “
सरपट दौड़ते वक़्त के
एक हादसे में उसकी माँ भी चल बसी । पिता तो बचपन मे ही चल बसे थे।
सालभर मे एक बार शहर से अपने गाँव आता तो निखिल के घर जरूर जाता। निखिल की माँ से
उसे अपनी माँ सा प्यार मिलता था। निखिल की माँ भी उसे शादी करने को कहती रहती मगर
वो हँसकर टाल देता। 
“अब चालीस को पार कर चुका , फिर क्या बुढ़ापे मे शादी रचाएगा ?”, निखिल की माँ
डांटकर कहती। 
“कर लूँगा काकी , अभी कौन सी जल्दी है”, वो बीमार सी हंसी हँसकर बात
को उड़ा देता। 
काकी को देखकर रोहित
ने चरण-स्पर्श करके काकी का आशीर्वाद लिया और बरामदे मे रखी कुर्सी पर
बैठ गया। काकी भी उसके पास बैठ गई और बातें करने लगी। तभी घर के अंदर से एक युवती
आई जिसे देखकर रोहित उठ खड़ा हुआ और बोला ,”शालू !” 
युवती ने रोहित को
देखा और फिर काकी की तरफ देखकर बोली ,”हाँ दादी माँ , आपने बुलाया ।” 
“अरे हाँ,
बेटी ये रोहित है निखिल का दोस्त , तुम इसको चाय नाश्ता दो तब तक मैं बगल वाली आंटी से आम का अचार लाती हूँ ,
इसको बहुत पसंद है । काकी उठकर बाहर चली गई ।  
“आप बैठिए, मैं बस यूँ लाई”, युवती ने रोहित की तरह देखते हुये
हँसकर चुटकी बजाई खिलखिलाती हुई  घर के
अंदर चली गई।
रोहित बूत बना खड़ा
सोचता रहा , उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।  
काकी पड़ोस से आ चुकी
थी। तब तक युवती भी चाय लेकर आ गई तो रोहित ने युवती की तरफ इशारा करते हुये पूछा ,”काकी
ये ..... ? “
“बेटा ये निखिल के मामा की बेटी, शालिनी की बेटी है।  बिलकुल माँ
पर गई है। मुझे “दादीमाँ “ कहती है । मगर अभागी है , इसके
जन्म के वक़्त ही शालिनी की मौत हो गई थी । 
रोहित के कानों में
सीटियाँ बजने लगी,
वो भारी कदमों से अपने घर लौट आया । अपना
सामान उठाकर जैसे ही शहर जाने के लिए घर से बाहर आया सामने उस युवती को खड़े देखकर
सकपका गया। 
“तुम ?”, रोहित से पूछा ।
दादी माँ आपको खाने
के लिए बुला रही है । 
नहीं ,मुझे अचानक जाना पड़ रहा है , आंटी को बोल देना ।
युवती रोहित के साथ साथ चलने लगी। ,“आपने मेरी मम्मी को देखा था ? कैसी दिखती थी वो ?”
रोहित अपने आंसुओं को
रोकता हुआ शहर जाने वाले रास्ते की तरह बढ़ गया। 
- "विक्रम"
गुरुवार, दिसंबर 03, 2015
यादें
 वक़्त 
निरंतर रौंदें
जा रहा है ,
और ....मै ,
अविरल
निकालता रहता हूँ ,
तेरी धूल-धूसरित
विदित-अविदित
यादों को ,
और रख लेता हूँ
सिलसिलेवार
ज़हन में ।
  
चलता रहता है ये खेल
अविच्छिन्न ....
अविरत ....
अनवरत ....
  
"विक्रम"
 
निरंतर रौंदें
जा रहा है ,
और ....मै ,
अविरल
निकालता रहता हूँ ,
तेरी धूल-धूसरित
विदित-अविदित
यादों को ,
और रख लेता हूँ
सिलसिलेवार
ज़हन में ।
वक़्त…और,
 मेरे दरमियाँ,चलता रहता है ये खेल
अविच्छिन्न ....
अविरत ....
अनवरत ....
"विक्रम"
गुरुवार, नवंबर 26, 2015
मुद्दे
जुगालियाँ करते हैं लोग ,
मुद्दों की दिन-रात,
आदि हो गए है चबाने के,
कोई एक जन,
किसी के हलक से,
तो कोई
अखबार की कतरनों से,
उठा लाते हैं ताज़ा या बासी मुद्दे ,
और उछाल देते है
हवा मे,
छीना-झपटी के दरमियाँ,
बदल जाते हैं मायने मुद्दों के ।
दमदार दलीलें
बदल देती हैं,
मुद्दों के अभिप्राय !
"विक्रम"
रविवार, अक्टूबर 18, 2015
बड़ी बहू
बड़ी
बहू
======
आज
फिर सामने वाले घर से सास दयावती अपनी बड़ी बहू 
मीना पर चिल्ला रही थी,
जो इस बात का संकेत था की अब बड़ी बहू पर उसके पति भीमा के हाथों ,
दरवाजे के पास कुत्तों को भगाने के लिए संभालकर रखी हुई छड़ी बरसने वाली हैं  । सास दयावती अपने नाम के विपरीत स्वभाव वाली
औरत थी , जिसे अपनी
मंदबुद्धि बड़ी बहू मीना फूटी आँख ना सुहाती थी । पाँच साल पहले मीना के मायके
वालों से अच्छा दहेज मिलने का प्रलोभन मिला तो झट से अपने अनपढ़ बड़े बेटे भीमा की
शादी मंदबुद्धि मीना से कर दी थी । भीमा की शादी के एक महीने बाद  ही उसके छोटे भाई सागर ,जो
फौज मे नोकरी करता था,
की शादी भी करदी गई । चूंकि मीना के हाथ का बनाया खाना कोई खाना नहीं चाहता था और  भीमा की माँ दयावती के पैरों की तकलीफ के चलते कोई
खाना बनाने वाला नहीं था । मीना को पूर्णरूप से मंदबुद्धि कहना भी न्यायोचित नहीं होगा
, हाँ वो भोली जरूर थी।
 भीमा जब भी खेत से आता तो वो सबसे पहले
उसके लिए नहाने को गर्म पानी और तौलिया  रख
देती , जब तब भीमा नहाता वो
उसके आगे पीछे घूमती रहती। नहाने के बाद कटोरी मे हल्का गर्म किया सरसों का तेल
लेकर उसके पैरों की मालिश करती । दिनभर मैली कुचैली साड़ी को लेपेटे पशुओं के चारे
पानी से लेकर घर के झाड़ू –फटके  मे व्यस्त रहने वाली मंदबुद्धि कैसे हो सकती है
? 
उस
से रसोई का काम नहीं करवाया जाता ,
यहाँ तक की उसके खाने का बर्तन भी अलग से उसके कमरे मे पड़ा रहता जिसमे घर के बच्चे
बचा हुआ खाना डाल देते थे। जब भीमा के खाना खाने का वक़्त होता तो मीना वहाँ से हट
जाती । छोटी बहू एक हाथ से घूँघट और एक हाथ से थाली पकड़े  चारपाई पर बैठे भीमा को खाना देती  और फिर छोटी बहू के बच्चे भीमा के साथ ही खाने
लगते जिनहे भीमा बहुत प्यार करता था । मीना अपनी पाँच साल की इकलौती बेटी लाली को
गोद मे बैठाये भीमा और बच्चों को खाना खाते देखकर मुस्कराती रहती । भीमा खाना खाने
के बाद घर के बाहर आहते मे जाकर सो जाता और मीना अपनी बेटी का हाथ पकड़ अपने कोठरीनुमा
कमरे मे ले जाती और दोनों माँ बेटी कोने मे एक बर्तन मे पड़ा खाना खाकर वहीं नीचे
जमीन पे सो जाती । यही दिनचर्या थी जिसमे कभी कोई बदलाव नहीं होता था। भीमा का शादी
की पहली रात के बाद अपनी पत्नी मीना,
और जन्म से अपनी बेटी मे कोई दिलचस्पी नहीं थी । उसका मीना से बस इतना संबंध था की
जब भी उसकी माँ दयावती किसी बात को लेकर मीना से 
लड़ाई झगड़ा करती तो भीमा एक रस्म की भांति दरवाजे के पास यथावत रखी छड़ी
उठाता और मीना की पीठ और टांगों पर जी भरके बरसाकर  उसे फिर से वहीं रख देता । अपनी चीख़ों को दबाये
मीना अपने कमरे मे डरी सहमी बेटी को सिने से लगा ढाढ़स बंधाने लगती। 
“खड़ी
हो कलमुँही दिन निकल आया “,
सास दयावती ने मीना की कमर पर लात मारते हुये कहा ।
“जी
...जी माजी”, कहती हुई मीना ने
कोने पे पड़ी झाड़ू उठाई और घर के बाहर अहाते मे तेजी से झाड़ू लगाने लगी। वहीं बाहर
चबूतरे पर बैठा भीमा नीम की दातुन से अपने दांत रगड़ रहा था। मीना ने झाड़ू लगाते
लगाते भीमा के चारों तरफ चाय का कप ना देखकर  कहाँ ,”आज
आपको चाय नहीं मिली जी   ?
“। 
“पी
चुका ” , भीमा ने थूकते
हुये रूखे  स्वर मे कहाँ और फिर से अपने
दांत रगड़ने लगा । 
मीना
जल्दी जल्दी अपना काम निपटा रही थी। छोटी बहू रसोई मे सबके खाने के इंतजाम मे जुटी
थी , सास अपनी चारपाई
पर बैठी माला फेरते हुई  आँगन मे झाड़ू
लगाती मीना को देख अलग अलग तरह के मुँह बना रही थी । मीना रसोई के आस पास बार बार झाड़ू
मार रही थी ,की शायद छोटी बहू कुछ
खाने पीने को दे दे । छोटी बहू अपने बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करते करते हुये मीना
से बोली ,”भैंसों को
चारा डालकर आ उनके दुहने का वक्त हो गया”। 
“बिना
कहे इस महारानी को समझ थोड़े ही आता है “,
सास दयावती ने चाय की चुस्की लेते हुये  छोटी
बहू की बात का समर्थन करके मीना की तरफ आंखे तरेरते हुये कहा ।
मीना
झाड़ू को अपने कमरे मे रख नींद में सोई अपनी बेटी के सिर पर हाथ फिराकर घर के
पिछवाड़े  में पशुओं की देखभाल करने निकल
गई।
भीमा
ने दूध की बाल्टी माँ के पास रखी और खेतों मे निकल गया। दोपहर तक सीमा भी पशुओं की
देखभाल के  बाद अपनी मैली साड़ी से पसीने
पोछते हुये अपने कमरे मे आ गई जहां उसकी बेटी कोने मे पड़े बर्तन में खाना खा रही
थी।    
 वक़्त बदलाव की आश मे निरंतर बीत रहा था। 
आज
30 सालों बाद हालात बिलकुल बदल चुके थे । भीमा का भाई सागर नोकरी से रिटायर्ड होकर
घर आ चुका था , दोनों भाईयों मे घर
का बंटवारा हो चुका था। घर सागर ने कब्जा लिया था और  भीमा और मीना को घर के पिछवाड़े मे पशुओं के बाड़े
के पास बने कच्चे मकान मे भेज दिया था । मीना की बेटी की शादी हो चुकी थी जो अपने
ससुराल मे खुश थी। सास दयावती का भी भगवान के घर से बुलावा आ चुका था। भीमा काफी
बूढ़ा हो चुका था और अस्वस्थ भी रहता था । मीना उसका पूरा ख्याल रखती थी। कभी मीना
की परछाई से नफरत करने वाला भीमा अब बुढ़ापे मे मीना की हाथों से बनी रोटियाँ बिना ना-नुकर
के खा रहा था। सागर के वो छोटे बच्चे जो अब बड़े हो चुके थे और जो कभी भीमा से चिपके
रहते थे, वो अब भीमा की तरफ
देखते भी नहीं  ।  
कुछ
वर्षों बाद कमजोरी और बीमारी से भीमा भी चल बसा और मीना को उसकी बेटी अपने साथ
लेकर अपनी ससुराल आ गई । मीना अब चारपाई पर बैठी रहती है । उसकी बेटी अपनी बूढ़ी
माँ को  वो सब सुख दे देना चाहती  है जिनसे उसकी माँ सदा महरूम रही थी। 
"विक्रम"
शनिवार, अक्टूबर 17, 2015
भूला
घर की चौखट पे
दोनों हाथ टिकाये 
वो आज भी उस गली के
दूसरे छोर तक नज़रों 
को बिछाये बैठी है ,
जिस गली से गुजरकर
मुद्दतों पहले कोई 
चला गया...... 
शामों को अक्सर 
हल्के अंधरे में ,
गली से गुजरता हर 
साया उसे 
जाना-पहचाना सा 
नज़र आता ,
मगर  पास आने पर....
उसकी नजरें फिर से 
गली के आख़िरी छोर 
पर लौट जाती ,
फिर से
किसी भूले को घर 
वापिस लाने  ......   
 "विक्रम"
शनिवार, अक्टूबर 03, 2015
मौन स्वीकृतियाँ
अधबुने शब्दों की 
तुम्हारी मौन स्वीकृतियाँ,
दर्ज़ हैं ,
ज़हन की
गहन स्मृतियों में...
मैं अक्सर,
अन्तर्मन के विद्रोह
में उलझा रहा,
और जूझता रहा
विकल्पों की भ्रांतियों में....
कालकल्पित ख्वाबों के
जीर्ण शीर्ण आधार ,
जीर्ण शीर्ण आधार ,
बहुत पीछे छोड़ दिये 
वक़्त की स्फूर्तियों ने....
“विक्रम”
गुरुवार, सितंबर 17, 2015
धुंधले पन्ने
अतीत के धुंधले पन्नो पे,
वो आधी अधूरी तहरीरें
आज भी यथावत हैं ।
सिलसिले भी दर्ज़ है ।
ज़हन से खरोंचे अल्फ़ाज़
ख़ामोशीयों के आगोश में
सिमटकर बैठे हैं ।
इबादतों के असआर गायब है ।
सूखी स्याही फैली है ।
कोने मे तसव्वुर की तरह ।
"विक्रम"
वो आधी अधूरी तहरीरें
आज भी यथावत हैं ।
उन सिकुड़े सफ़ों पे
मुज़ाकरातों के कुछ अधूरेसिलसिले भी दर्ज़ है ।
ज़हन से खरोंचे अल्फ़ाज़
ख़ामोशीयों के आगोश में
सिमटकर बैठे हैं ।
उफ़्क तक फैले सफ़ों में,
मुख़्तसर  मुलाकातों की,इबादतों के असआर गायब है ।
मुखतलिफ़  हिस्सों में
वस्ल की तिश्नगी पे हिज़्र कीसूखी स्याही फैली है ।
आओ रखलें सहेजकर
इन्हे ,
ज़हन के किसीकोने मे तसव्वुर की तरह ।
"विक्रम"
शनिवार, सितंबर 05, 2015
वक़्त की परतें
वक़्त की मोटी परतों 
को उठाकर देखना !
मासूम ख्वाबों की लाशों पे ,
तुम्हें…चीखते जज़्बात  मिलेंगे,
फफक कर सुबकती   
अधपकी मुलाकातें मिलेंगी,
वक़्त का कफ़न भी  
कुछ तार तार मिलेगा ,
अस्थिपंजर बन चुकी 
पुरानी यादें भी मिलेंगी,
फफूंद लगे दिन और 
बूढ़ी शामें भी मिलेंगी,
कब्र मे लेटी रातों के साथ
मरे हुये अबोध सपने भी मिलेंगे,
सलवटों भरे ताल्लुकात और
सूखे  अल्फ़ाज़ भी मिलेंगे
“विक्रम”
रविवार, अगस्त 23, 2015
मिलन
स्टेशन
से उतरते ही विजय ने बाहर आकर एक होटल मे अपना समान पटका और तेज़ कदमों से रेलवे की
उस कॉलोनी की तरफ बढ़ने लगा जहां आज से 10 साल पहले रहता था। शहर काफी बदल चुका था
। स्टेशन से रेलवे कॉलोनी तक का फासला तकरीबन डेढ से दो किलोमीटर है। उन दिनों
यहाँ इतनी चहल पहल नहीं हुआ करती थी । सुनसान सी एक कच्ची सड़क हुआ करती थी । आज तो
यहाँ रेलवे लाइन के साथ साथ एक सड़क भी बन गई है जिसपे वाहनों की अच्छी ख़ासी भीड़
हैं।
क्या
रंजना और उसका परिवार आज तक उसी क्वार्टर मे होंगे ?
,”विजय सोचता हुआ
लगभग दौड़ता हुआ उस तरफ बढ़ा जा रहा था। 
कॉलेज
के दिनों मे यहाँ पढ़ने आए विजय को रंजना से प्यार हो गया था। दोनों एक दूसरे को
घंटों निहारा करते मगर दोनों मे से किसी ने कभी इज़हार नहीं किया। वक़्त बदला और कुछ
पारिवारिक दिक्कतों के चलते विजय वापिस अपने गाँव आ गया। वक़्त ने एक लंबी करवट ली और
रंजना उस से बहुत दूर निकल गई। मगर पहला प्यार उसे रह रहकर याद दिलाता रहा की कोई
आज भी उसके इंतज़ार मे हैं । दिल के हाथों मजबूर विजय के कदम आज यकायक  उसे यहाँ ले आए।      
विजय
ने हाँफते हुये कॉलोनी मे प्रवेश किया। अब कॉलोनी को एक चारदीवारी से घेर दिया था,
शहर की तरफ आने जाने का  वो कच्चा रास्ता
कहीं गायब हो चुका था। पहले वो रंजना के घर के सामने से दो तीन बार गुजरा तो उसे
एहसास हो गया की वहाँ अब वो लोग नहीं हैं। उस क्वार्टर मे और log
ही रहते लगे थे । उसके बाद वो अपने उस क्वार्टर की तरफ बढ़ गया जहां वो उन दिनों
रहता था , हो सकता है उसके
सामने वाले क्वार्टर मे रहने वाली रंजना की सहेली दुर्गा से रंजना के बारे मे कुछ
खबर मिल जाए। मगर वहाँ भी उसके हाथ मायूसी ही लगी । दुर्गा और उसका परिवार भी वो
मकान छोड़ चुके थे। उसके पहले प्यार की गवाह वो कॉलोनी आज वीरान हो चुकी थी । दिनभर
यहाँ वहाँ भटकने के बाद भी उसे रंजना की कोई खबर नहीं मिली। 
शाम
होते होते वो निढाल कदमों से अपने होटल की तरफ बढ्ने लगा। उसके पैर उसका साथ नहीं
दे रहे थे। कॉलोनी से करीब आधा किलोमीटर वापिस आते वक़्त वो काफी थक चुका था और वही
रेलवे फाटक के पास सड़क के किनारे एक पुलिया की दीवार पर सुस्ताने बैठ गया। यहाँ पर
अब आस पास काफी मकान बन चुके थे मगर उन दिनों यहाँ सुनसान कच्चा रास्ता हुआ करता
था जिस पर कभी कभार कॉलेज आते जाते वक़्त उसकी रंजना से आँखें चार हो जाती थी ।
रंजना के साथ उसकी कुछ सहेलियाँ होती थी और वो उनसे नज़रें बचाकर विजय को निहार
लेती और फिर थोड़ा मुस्कराकर और शरमाकर 
नज़रें झुका लेती थी। बस यही प्रेमकहानी थी उनकी।   
शाम
का धुंधलका घिरने लगा था। 
तभी
सामने से आती एक महिला को देखकर विजय को कुछ एहसास हुआ। एक पल महिला ने भी विजय को
देखा। दोनों ने एक दूसरे को देखा और कुछ याद करने की कोशिश करने लगे। 
“नहीं
ये तो नहीं है “, विजय ने मन ही मन
सोचा।
“रंजना...”
महिला
ठिठक कर रुकी । 
“जी”
आ..आपका
नाम रंजना है ?
“जी
हाँ...आप .... विजय ?”
“हाँ...कैसी
हो ? मेरा मतलब कैसी है
आप ? ,
विजय की आवाज भरभरा गई थी। दोनों ने पहली बार एक दूसरे की आवाज सुनी थी। आज आँखें
खामोशी से बर्षों की पीड़ा बहा रही थी मगर जुबां से बर्षों की कमी पूरी कर रही थी
।  दोनों ने एक दूसरे से ढेरों बात की,
गिले-शिकवों  का  लंबा दौर चला और फिर कल इसी वक़्त फिर से मिलने
का वादा कर बर्षों के बिछुड़े प्रेमी एक दूसरे से फिर जुदा हो गए। 
विजय
रंजना को जाते हुये देखता रहा,
रंजना ने पीछे मुड़कर विजय की तरफ हाथ हिलाया और पास के एक मकान मे चली गई।  विजय मुस्कराता हुआ अपने होटल की तरफ बढ़ गया। 
दूसरे
दिन विजय शहर मे घूमने निकल गया ,
वो आज उन सारी पुरानी जगहों को देख लेना चाहता था जो उसने अपने कॉलेज लाइफ के समय
देखा था। कॉलेज के सामने मदन चायवाले की दुकान भी गायब थी। कॉलेज के सामने की सड़क पर
पंजाबी हलवाई की मिट्ठी लस्सी की दुकान अब एक अच्छे खासे रेस्टोरेन्ट मे बदल गई
थी। शाम ढलने पर उसे रंजना से मिलना हैं इस विचार से वो रोमांचित था। मगर अभी शाम
होने मे काफी समय था।  वक़्त गुजारने के लिए
वो रेस्टोरेन्ट की तरफ बढ़ गया। अपने लिए एक कॉफी का ऑर्डर देकर वो एक खाली पड़े
सोफा चेयर पर बैठ गया। रेस्टोरेन्ट मे ज्यादा भीड़भाड़ नहीं थी। पास की चेयर पर बैठे
दंपति आपस मे बात करते हुये उसकी तरफ देख रहे थे। 
“विजय
भैया”, महिला ने पीछे
मुड़ते हुये पूछने वाले अंदाज मे कहा ।
“हाँ..”,
विजय ने चौंकते हुये जवाब दिया । 
“मेँ..
दुर्गा , पहचाना...?”,
महिला ने कहा । 
“अरे
तुम, कितनी बदल गई हो ।
तुम्हारी शादी भी हो गई ?”
, विजय ने मुस्कराते
हुये पूछा। 
“हाँ
भैया, 2 साल हो गए । मगर
आप कहाँ गायब हो गए थे। इतने सालों से आपकी कोई खबर ही नहीं “
“हाँ,
मे कुछ बस ऐसे ही किनही हालातों मे फंस गया था। और बताओं तुम कैसी हो। घर मे सब
कैसे हैं , तुम्हारे
मम्मी-पापा ?” 
“सब
ठीक है भैया, आइये ना घर चलते
हैं यहाँ से पास ही है। मम्मी अक्सर आपका जिक्र करती रहती हैं।“
“फिर
कभी , आज रंजना से मिलने
का वादा किया है । कल मिला था उस से ,
काफी देर बातें हुई”,
विजय से मुसकराकर कहा। 
“क्या
!”, दुर्गा ने चौंकते  हुये कहा । 
“हाँ”,
विजय ने फिर मुसकराकर जवाब दिया। 
“ले....लेकिन
, रंजना तो.....”,
कहते हुये दुर्गा खामोश हो गई और अपलक विजय को निहारने लगी। ,”कहाँ
देखा आपने उसको ?
“वहीं
, रेलवे फाटक के
पास”, विजय ने जवाब
दिया। 
दुर्गा
और उसके पति उठकर विजय  के सामने वाली चेयर
पर बैठ गए। 
“लेकिन
भैया.....”, दुर्गा ने
विस्फारित आँखों से विजय की तरफ देखा। 
“लेकिन
क्या ?“,
विजय ने पूछा। 
“रंजना
को तो मरे हुये 5 साल हो गए”,
दुर्गा ने कहा ।  
  “क्या.....!,क्या
बात करती हो ? लेकिन मे तो कल
मिला उस से , हमने घंटों साथ
बैठकर बात की। , विजय ने सम्पूर्ण
विश्वास के साथ कहा। 
अब
तक शाम होने लगी थी। 
“चलिये
हम  भी चलते हैं आपके साथ वहाँ ,
जहां आपने कल उसे देखा। “,
रंजना और उसका पति भी विजय के साथ रेलवे फाटक के पास बनी उस पुलिया की तरफ बढ़ चले।
काफी
देर बैठने के बाद भी कोई नहीं आया तो विजय परेशान होने लगा। उसने दुर्गा को
विश्वास दिलाने वाले अंदाज मे दोहराया की वो कल उस से मिला था। और वो उस सामने
वाले घर मे चली गई थी। 
“
चलो ना दुर्गा क्योंना हम उसके घर पर चलकर देखलें” ,
विजय ने कहा। 
“चलो”,
दुर्गा ने कहा और तीनों  उस घर की तरफ बढ़ गए।
“आओ
बेटी अंदर आओ”, दुर्गा को आया देख
एक वृद्ध महिला काफी खुश हुई और उन्हे अंदर बैठाया।
“नमस्ते
आंटी, कैसी है आप?”,
दुर्गा ने पैर छूते हुये पूछा।
“ठीक
हूँ बेटी”
काफी
देर बातें हुई। बातों बातों मे रंजना का जिक्र आया तो वृद्ध महिला की आँखों मे आँसू
बह निकले।
“रंजू
के बिना ये घर खाने को दौड़ता है बेटी”,
वृद्धा ने सुबकते हुये कहा। 
बाहर
आने पर तीनों उसी पुलिया पर बैठकर बातें करने लगे। 
“वो
रंजना की मम्मी थी”, दुर्गा ने कहा। 
दुर्गा
ने बताया की पाँच साल पहले उसी जगह एक एक्सिडेंट मे रंजना की मौत हो गई थी। 
“वो
आपको बहुत याद करती थी भैया”,
कहते हुये दुर्गा सिसकने लगी। 
विजय
को दुर्गा की आवाज़ दूर से आती हुई महसूस हो रही थी। 
उसकी
स्तबद्ध आँखें  इधर उधर देखते हुये रंजना को
ख़ोज रही थी। 
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