वर्षों बाद अपने उस शहर मे,
सब अंजाने लोग मिले ,तुम्हारे घर की दीवार से
पीठ टिकाये ,सिर झुकाये
कुछ पुराने दिन बैठे थे।
नहीं देखा मेरी तरफ ,
एक पल को भी उन्होने,
शायद भूल गए मुझे ....वो भी.....
तुम्हारी तरह ।
नए मगर अंजाने लोगों ने भी
किया नज़रअंदाज़ सा मुझे ,
मुझे !...!....!
खोजते रहते थे दो नैन जिसे,
सुबह से देर रात ढले,
बरसते अंधेरे में खिड़की के
उस तरफ जलते दिये से....उसे,
आज हर एक ने किया
अनदेखा ।
"विक्रम"
वाह ... बहुत ही सुन्दर रचना ...
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