अतीत के धुंधले पन्नो पे,
वो आधी अधूरी तहरीरें
आज भी यथावत हैं ।
सिलसिले भी दर्ज़ है ।
ज़हन से खरोंचे अल्फ़ाज़
ख़ामोशीयों के आगोश में
सिमटकर बैठे हैं ।
इबादतों के असआर गायब है ।
सूखी स्याही फैली है ।
कोने मे तसव्वुर की तरह ।
"विक्रम"
वो आधी अधूरी तहरीरें
आज भी यथावत हैं ।
उन सिकुड़े सफ़ों पे
मुज़ाकरातों के कुछ अधूरेसिलसिले भी दर्ज़ है ।
ज़हन से खरोंचे अल्फ़ाज़
ख़ामोशीयों के आगोश में
सिमटकर बैठे हैं ।
उफ़्क तक फैले सफ़ों में,
मुख़्तसर मुलाकातों की,इबादतों के असआर गायब है ।
मुखतलिफ़ हिस्सों में
वस्ल की तिश्नगी पे हिज़्र कीसूखी स्याही फैली है ।
आओ रखलें सहेजकर
इन्हे ,
ज़हन के किसीकोने मे तसव्वुर की तरह ।
"विक्रम"