हल्की गर्मियों की
शीतल अंधेरी भोर में
माँ का आँगन में,
मेरे सिरहाने बैठना ,
अपनी मथनी बांधना ,
और दही से
मक्खन निकालना...... याद आता है
देर तक बजना ,
आरोह अवरोह
के दरम्यान
मंथन की लय का
बनना बिगड़ना
और फिर छाछ पे
मक्खन का छाना...... याद आता है ।
माँ के पास बैठकर
बिलोने मे झांकना
और फिर माँ का
मुस्करा कर,
ठंडी- ठंडी
मक्खन की डलियाँ
मेरे मुंह मे रखना ....... याद आता है ।
"विक्रम"
शीतल अंधेरी भोर में
माँ का आँगन में,
मेरे सिरहाने बैठना ,
अपनी मथनी बांधना ,
और दही से
मक्खन निकालना...... याद आता है
मंथन के संगीत का
मेरे कानों मेदेर तक बजना ,
आरोह अवरोह
के दरम्यान
मंथन की लय का
बनना बिगड़ना
और फिर छाछ पे
मक्खन का छाना...... याद आता है ।
मक्खन आने की
सुगबुगाहट पर , माँ के पास बैठकर
बिलोने मे झांकना
और फिर माँ का
मुस्करा कर,
ठंडी- ठंडी
मक्खन की डलियाँ
मेरे मुंह मे रखना ....... याद आता है ।