आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थी।बच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे, कुछ पता ही नहीं पड़ता था।बच्चे-बच्ची आज की तुलना में जल्दी 'मैच्योर' नहीं होते थे, बात-बात में उनका बचपन स्पष्ट झलकता था, बच्चियां अपनी शादी-सगाई की बात सुनकर शरमा जाया करती थी, पसन्द-नापसन्द का तो प्रश्न ही नहीं उठता था। अधिकतर सगाई-सम्बन्ध काकी-भोजाइयों, बहन-भुआओं अथवा जान-पहचान वालों के द्वारा ही करवा दिए जाते थे।और इसके अलावा कई बार लड़की के दादोसा, बाबोसा, पिताजी अथवा अन्य बड़ों के द्वारा भी सुयोग्य वर की तलाश में शेखावाटी से मारवाड़ और मारवाड़ से शेखावाटी में अपनी बहन-भुआओं के यहां जाकर आसपास के गांवों में भ्रमण कार्यक्रम रखे जाते थे।भ्रमण के दौरान सगे-सम्बंधियों से खुलकर मज़ाक किए जाते थे।
ऐसा माना जाता था कि मारवाड़ के लोग बड़े भोलेभाले और सीधे होते हैं जबकि शेखावाटी के लोग बड़े चालाक और डींग हांकने वाले होते हैं, जिनके भोलेपन और चालाकी के किस्से आज भी मशहूर हैं।ऐसे गोळ साफे वाले, लम्बी दाढ़ी वाले, जिनके कंधे पर लटकता 'खाखी थैला' मुझे आज भी याद आते हैं और जोर से खैंखारने वाले और किसी को भी चंग पर चढ़ाने और उतारने में माहिर अपने 'फेंकू' किस्म के बाबोसा भी याद आते हैं ।लड़के की योग्यता उसका खानदान और जमीन-जायदाद और लड़की की योग्यता उसके वंश-गोत्र और ठिकाणे की पैठ और गृहकार्य में दक्षता प्रमुख मानी जाती थी और आज की तरह रंग-रोगन, लम्बाई और साक्षात्कार इत्यादि गौण हुआ करते थे।ऐसा कहा जाता था कि 'भैंस ल्याणी नाणै की, ओर बहू ल्याणी ठिकाणै की ।', 'बेटी नैं घर हाँण दे देणी, पण वर हाँण नीं देणी।।', 'रंग रो कांई देखणौ देख किरत अर काम।'
सगाई कराने वाला मध्यस्थ केवल कुल इत्यादि की गारण्टी लेता था, टीका-दहेज़ तथा खातिरदारी इत्यादि लड़की वाला अपनी पैठ और प्रतिष्ठा के अनुरूप ही करता था, आज की तरह सौदेबाज़ी नहीं होती थी और इसीलिए उस समय तलाक, दहेज-हत्या, विधिक-प्रकरण इत्यादि पढ़ने-सुनने को नहीं मिलते थे।'ब्याव' मंडते ही दोनों घरों में खुशी का माहौल छा जाता था, बान-बिन्दोरी की शृंखला ही शुरू हो जाती थी।आज की तरह शादी के इनविटेशन-कार्ड अथवा निमन्त्रण-पत्र छपवाने का प्रचलन नहीं था।पीले चावल की रस्म के साथ ही घर-परिवार और गाँव के लोगों को शादी की जानकारी हो जाया करती थी और उस के बाद ही वर-वधु पक्ष के लोग अपने प्यारे-प्रसंगियों को पीले चावल भेजकर अथवा दिखाकर शादी में आने का न्यौता दिया करते थे, पीले चावलों को ग्रहण करना ही न्यौते की स्वीकारोक्ति मानी जाती थी।दूर के सगा-सम्बन्धियों को पोस्टकार्ड द्वारा सूचित किया जाता था, जिस पर शुभकार्य के निम्मित्त 'रोळी' के छींटे दिए जाते थे।
शादी से महीने-सवा महीने पहले वर-वधु के लिए गोंद के लड्डू बनाकर खिलाए जाने का रिवाज़ तो कमोबेश आज भी है ताकि वे स्वस्थ दिखें। आवागमन के साधनों की कमी के कारण बारातियों की संख्या बहुत कम होती थी, आज की तरह लम्बा लवाजमा ले जाने की होड़ नहीं थी।पास के रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए ऊंटों अथवा बैलगाड़ी का इस्तेमाल किया जाता था। जिस गाँव में बारात जाती थी उसके आदर-सत्कार के लिए पूरा गाँव तत्पर रहता था। बारात को 'जान' कहा जाता था।बारातों को ठहराने के लिए आज की तरह शानदार होटलें अथवा मैरिज गार्डन नहीं होते थे, कई कई प्रमुख और बड़े गाँवों में धर्मशालाएं अवश्य थीं।'जान का डेरा' किसी न किसी के घर अथवा अहाते में ही दिया जाता था, किन्तु आदर और आत्मीयता की कोई कमी नहीं।बारातें तीन तीन-चार चार दिन तक ठहरती थीं।बाराती अपना-अपना 'बींटा' (बेडिंग) साथ लाते थे, आज की तरह टेंट- हाउस नहीं थे।घराती केवल चारपाई का ही प्रबंध करते थे। बैंडबाजे के स्थान पर ढोली और दमामी होते थे जो समयानुकूल 'बिरदावलियां' गाया करते थे।आज तो 'तोरण-सियाळै' के समय बैंड वाला 'बुद्धू पड़ गया पल्ले।पल्ले मेरे पड़ गया पल्ले-------' भी बजा दे तो कोई ध्यान नहीं देता और बियर पीकर बना लोग थिरकते रहते हैं।उस समय मर्दों का खुलेआम नाचना अपवादस्वरूप ही देखने को मिलता था ।
वर (बींद) जब तोरण पर जाता था तब उसे फाइनल सिलेक्शन बोर्ड के सामने उपस्थित होना पड़ता था, कोई भुआ बनकर मिलने के लिए आगे बढ़ती थी तो कोई कान के पास जोर से पायल बजाती थी, कोई दर्पण दिखाती थी, वधु चावल के लड्डू की मारती थी, झिलमिल की आरती के साथ घूंघट में से सासू-माँ अपने होने वाले जंवाई को निहारती थी और अपने पति या ससुर इत्यादि के चुनाव के औचित्य को परखती थी।इस 'बोर्ड' के सामने बड़े-बड़ों के हौसले पस्त हो जाया करते थे।बारातियों को मीठी मीठी 'गाळियां' सुनने को मिलती थी । आजकल नई जनरेशन उस समय भी अपनी 'फेसबुक' और 'व्हाट्सएप्प' पर अपनी सेल्फ़ी शेयर करने में मशगूल पाई गई है ।
जीमने में हलुवा, लापसी, चावल और खीर प्रमुख होते थे, कई बार दूसरे-तीसरे दिन मांसाहारी भोजन भी परोसा जाता था और इसके लिए बारातियों में से किसी को बकरे का 'झटका' करना होता था और इसमें असफल रहने पर झटका करने वाले को तिरस्कारस्वरूप 'लूगड़ी' (ओढ़नी) ओढ़ा दी जाती थी।बाजोट पर बैठकर 'आरोगो सा' की मीठी मनुहार के साथ जीमने का आनंद ही कुछ और था।अब तो दादोसा-बाबोसा का किसी बारात में जीमना किसी अभिनंदन के सर्जिकल-स्ट्राइक से कम नहीं है ।'जान-जुहारी' और 'प्याला' के पीछे परिचय जैसी अच्छी परम्परा रही है, जिससे वर-वधु पक्ष वाले आपस में एक-दूसरे से जान-पहचान बढ़ा कर निकट आते थे , यदि आज एक-दो महीने बाद बस या ट्रेन में वर-वधु के काकोसा या बाबोसा अनायास ही मिल जाएं तो हो सकता है वे एक-दूसरे को पहचाने ही नहीं क्योंकि आजकल परिवार की परिभाषा एकदम सिकुड़ गई है अतः अब इस 'प्याला-जुहारी' को बंद कर दिया जाना चाहिए ।
लेखक - मानसिंह शेखावत 'मऊ'