ये वक़्त भी  मुद्दत से उस बंद खिड़की  की मानिंद ठहरा सा है ,
जो कभी मुट्ठी मे बंद रेत सा फिसलता था। अब 
हवाओं ने भी, उस खिड़की को दूरियों के 
नकाब पहना दिये हैं । अनमनी सी 
धूप अक्सर उस खिड़की 
पे अब पलभर को
सुसताने चली 
आती है ।
बुझी पीली धूप 
को एक और खिसका 
कर धीरे से आ बैठती है उदास शाम 
और फिर खिड़की की जानिब से, सामने वाले 
घर के उस बंद दरवाजे को अपलक निहारती है, जिसके पुराने 
मरासीम थे कभी उस बंद खिड़की से ,हवा धूप और शाम की तरह.
-विक्रम

 
वाह .. बहुत खूब ... सुबह फिर शाम यूँ ही रुकी रहती है खिड़की के मुहाने .. इंतज़ार में ...
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