रख छोड़ा था कहीं
एक लम्हे को मैंने,
वक़्त के
धागे से बांध कर ।
धागे का  दूसरा छोर 
 दिल के किसी कोने में  ना जाने क्यों
ताउम्र रह गया
कहीं उलझकर ।
अक्सर वही लम्हा 
 पाकर तन्हा  मुझे ले जाता है कहीं
दूर धुंधले-से
रास्तों पे खींचकर ।
देखकर मैं, उन
 धुंधले  मगरपहचाने से रास्तों को,
तलाशता हूँ देर तक
वो गुमशुदा हमसफर....
-विक्रम
