बस
स्टैंड वहाँ से करीब 2 किलोमीटर था। आसपास किसी पेड़ तक की छाया नहीं थी । जून की दोपहरी
में ,मैं वहीं धूप मे खड़े होकर किसी साधन का इंतज़ार
करने लगा । मुस्लिम बहूल होने के कारण अधिकतर लोग वही नज़र आ रहे थे । मुझे जालीदार
टोपी ,अरबी लिबास और बकरे जैसी दाढ़ी वालों से हमेशा नफरत रही
है । इसके पीछे का कारण मुझे भी नहीं पता, मगर ना जाने क्यों
ऐसी शक्लों से चिढ़ सी होने लगती है । देहात का इलाका होने के कारण इक्का दुक्का दुपहिया
वाहन ही आ रहे थे, जिनमे अधिकतर पर 2 या 3 सवारी पहले से ही बैठी
होती थी जिन्हे रुकने के लिए कह भी नहीं सकता था। यदा कदा मुझे कोई इकलौता गैर मुस्लिम
नज़र आता तो मैं हाथ देकर लिफ्ट के लिए इशारा करता मगर मुझे अनदेखा करके आगे निकल जाते।
जो
शक्ल और पहनावे से मुझे अपने मजहब के नज़र नहीं आते थे उनको मैंने रुकने का इशारा भी
नहीं किया। करीब आधा घंटा धूप मे खड़े खड़े मे काफी परेशान हो चुका था , सो हारकर मैंने पैदल ही चलकर बस स्टेंड तक पहुँचने का निर्णय किया। साथ साथ
मैं पीछे मुड़कर देखे जा रहा था की शायद कोई लिफ्ट मिल जाए।
तभी
एक जालीदार टोपी पहने शख्स ने मेरे पास से गुजरते हुये मुझे देखकर अपनी स्कूटी को ब्रेक
लगाया और थोड़ा आगे जाकर रुक गया । उसके पीछे उसका 6,7 साल
का बच्चा बैठा था जिसे उसने अपने आगे खड़ा कर लिया। मैं तब तक पास मे आ चुका था और बिना
ध्यान दिये पास से गुजरने लगा।
“आइये, मैं छोड़ देता हूँ , बहुत धूप है.... कहाँ जाना है ?”, उसने कहा।
“बस
स्टैंड”, कहकर मैं चुपचाप पीछे बैठ गया।
“बहुत
धूप है , ऐसी धूप मैं पैदल चले तो तबीयत खराब हो जाता”, उसने कहा।
“जी...जी
हाँ, आज बहुत धूप है।“
उसने
बस स्टैंड के गेट के पास अपनी स्कूटी को रोककर मुझे पूछा , “कहाँ की बस पकडनी है ?”
“कानपुर”, मैंने उतरते हुये कहा।
“सात
नंबर से जाएगी , अभी 15 मिनिट बाद ही है एक बस“, उसने घड़ी देखते हुये कहा।
“जी…
शुक्रिया”, मैंने कहा ।
औए
वो शख्स मुस्करा कर आगे चला गया ।
-"विक्रम"
-"विक्रम"
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