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वक़्त आज भी उस खिड़की
पे सहमा सा खड़ा है,
भुला कर अपनी
गतिशीलता की प्रवर्ती ,
जिसके दम पर
दौड़ा करता था... सरपट और...
फिसलता रहता था मुट्ठी
में बंद रेत की मानिंद ।
शामें भी उदासियाँ ओढ़े,
बैठी रहती है उस राहगुजर के
दोनों तरफ , जिनके दरमियाँ
मसलसल गुजरती रहती हैं
स्तब्ध, तन्हा ,व्याकुल रातें
अलसाई-सी भौर भी अब
रहती है ऊँघी, बेसुध,अनमनी-सी ,
वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
जो बेचैन,बेसब्र सा रहता था
धूप से नहाई दोपहरी मे ।
- “विक्रम”
पे सहमा सा खड़ा है,
भुला कर अपनी
गतिशीलता की प्रवर्ती ,
जिसके दम पर
दौड़ा करता था... सरपट
फिसलता रहता था मुट्ठी
में बंद रेत की मानिंद ।
शामें भी उदासियाँ ओढ़े,
बैठी रहती है उस राहगुजर के
दोनों तरफ , जिनके दरमियाँ
मसलसल गुजरती रहती हैं
स्तब्ध, तन्हा ,व्याकुल रातें
अलसाई-सी भौर भी अब
रहती है ऊँघी, बेसुध,अनमनी-सी ,
वो उन्माद भी मुतमईन-सा है
जो बेचैन,बेसब्र सा रहता था
धूप से नहाई दोपहरी मे ।