मंगलवार, जुलाई 20, 2021

नुकीले शब्द

कम्युनल-सेकुलर, 

सहिष्णुता-असहिष्णुता 

जैसे शब्द बार बार इस्तेमाल से 

घिस-घिसकर 

नुकीले ओर पैने हो गए हैं , 

उन्हे शब्दकोशों से खींचकर 

किसी बंजर जमीन के सीने में , 

दफन कर दो कुंद होने तक । 

 रोड़ रेज़, 

सांप्रदायिक दंगे ओर 

सवर्ण-दलित जैसे 

भड़कीले और ज्वलनशील 

शब्दों को खुरचकर, 

ठंडे और गहरे

 समुंदरों के स्याह अँधेरों में 

डुबो दो बुझने तक। 

उनके कुंद और बुझने तक 

तलाशने चाहिए कुछ 

कर्णप्रिय ओर दोषरहित शब्द 

जो यथावत रखें 

अपना अभिप्राय सदियों तक.... 

 -विक्रम

बुधवार, जनवरी 15, 2020

फ्रीडम ऑफ स्पीच

- फ्रीडम ऑफ स्पीच

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अभी पिछले रविवार की सुबह की घटना है । दूर किसी दूसरी कॉलोनी  से कुछ कुत्तों के भोंकने की आवाज सुनकर हमारे  सामने रहने वाले शर्मा जी का कुत्ता भी ज़ोर ज़ोर से भोकने लगा। छुट्टी के दिन मेरे जैसे देर तक सोने वालों को उसका भोंकना रणदीप सुरजेवाला के वक्‍तव्‍य सा लग रहा था। नींद में खलल की वजह से रज़ाई में मुंह  ढककर फिर से सोने की कोशिश की । तभी अचानक एक ज़ोर से लट्ठ बजने की आवाज आई और साथ ही कुत्ते के ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने की आवाज आने लगी । फिर धीरे धीरे कुत्ते के चीखते की आवाज कम होती जा रही थी शायद कुत्ता दूर जा रहा था ,उसकी चिल्लपों की आवाज आनी बंद ही चुकी थी।  लेकिन  फिर गली में ज़ोर ज़ोर से लोगों के बोलने की आवाज आने लगी।

  

नींद काफ़ुर हो चुकी थी। गेस्ट हाउस की बॉलकोनी से झककर देखा तो सामने वाले शर्मा जी ओर हमारे बगल में रहने वाले दिल्ली पुलिस के हवलदार यादव जी झगड़ रहे थे । ऊपर से देखने में मजा नहीं आया तो मुंह धोकर हाथ में चाय का कप लेकर नीचे धूप में चबूतरे पर बैठकर चाय की चुसकियों के बीच लाइव देखने लगा ।

लड़ाई अब चर्म पर पहुँच रही थी , हालांकि पड़ोसी होने का फर्ज निभाते हुये मैंने थोड़ी जल्दी में चाय खतम करके बीच-बचाव के इरादे से पास चला गया। हवलदार यादव जी अक्सर शनिवार शाम 8PM के लगभग हमारे गेस्ट हाउस में नींबू पानी पीने आते रहते हैं, वो नींबू पानी के काफी शौकीन है अगर कोई पिलाये तो । और शर्मा जी से भी आते जाते हाय-हैलो (राम-राम)  होती रहती है वो पंडित होकर संस्कृत की जगह अँग्रेजी के शब्दों पर ज्यादा ज़ोर देते थे।  

तभी बेचारे शर्मा जी , जो की छ: फिट लंबे हवलदार से काफी डर चुके थे , मुझे देख थोड़े एनर्जेटिक होकर ज़ोर से बोले ,’अब आप ही बताइये राजपूत जी , भला जानवर बेचारा भोंक भी नहीं सकता ? भई फ्रीडम ऑफ स्पीच तो सभी को है। मेरा मतलब “बोलने की आजादी”, यादवजी  की तरफ देखकर उसका हिन्दी रूपांतर किया ताकि हवलदार समझ सके।

“तो फिर शांति बनाए रखने की ज़िम्मेदारी हमारी है”, हवलदार ने लट्ठ सड़क पर पटक कर दो कदम आगे आते हुये कहा।


मैंने हवलदार को धीरे पीछे करते हुये कहा ,’ अरे यादव जी क्यों सुबह सुबह झगड़ा कर  हो ? आखिर किस बात को लेकर ये बहस कर रहे हो ? मैंने न्यूज चैनल होस्ट की तरह अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुये कहा  ?

तभी शर्मा जी बीच में बोल पड़े । “हवलदार ने मेरे कुत्ते को इतने ज़ोर से लट्ठ मारा की बेचारा मोहल्ला छोड़कर ना जाने कहाँ भाग गया?


“तो उसे चुप क्यों नहीं करवाते ? सुबह सुबह सबकी नींद खराब करता है भोंक-भोंक कर”, यादव जी ने जनरल बक्शी की तरह तैश में आकर आँखें निकलते हुये कहा ।


“सबको बोलने की आजादी है , आप किसी के मुंह पर हाथ नहीं रख सकते”, मुझे बीच में खड़ा देखकर शर्माजी भी मौलाना अंसार रज़ा की तरह तर्जनी  हिलाते हुये बोले ।


“हाथ ना सही , लट्ठ तो रख सकते हैं”, यादव ने ठेठ अपनी पुलिसिया सभ्यता का परिचय दिया ।   “बोलने की आजादी है ,भोंकने की नहीं “, यादव जी ने शर्माजी की तरफ आँखें निकालते हुये बात पूरी की ।


जैसे तैसे दोनों को शांत करवाकर अपने अपने घर भेजा। कुछ देर बार देखा तो शर्मा जी अपने कुत्ते को खोजते हुये जेएनयू की तरफ जा रहे थे ।

"विक्रम"

   

बुधवार, नवंबर 20, 2019

अतीत

बहुत अरसा हुआ ,

उन लम्हों को

अतीत की  

गहरी खाई में दबाये हुये

अक्सर मौसमानुसार

निकल आते हैं अंकुर और ,

फैल जाती हैं बेलें यथार्थ

की दीवारें फांद, वजूद के गिर्द

ओर फिर स्मृतियों की

अभिवृत्ति देकर

खींच लेती हैं मुझे भी

उन गहरी खाईयों में.....


"विक्रम"


गुरुवार, सितंबर 19, 2019

सैनिक

करीब 90 साल के रिटायर्ड ब्रिगेडियर एमएल खेत्रपाल को 2001 में पाकिस्तान सेना  के रिटायर्ड ब्रिगेडियर ख्वाजा मोहम्मद नसेर ने पाकिस्तान आने का निमंत्रण मिला जिसे ब्रिगेडियर एमएल खेत्रपाल ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। बँटवारे से पहले ब्रिगेडियर एमएल खेत्रपाल के परिवार की जड़ें सरगोधा (आधुनिक पंजाब, पाकिस्तान) से जुड़ी थी, इसलिए वो अपने पैतृक निवास को देखना चाहते थे। 

पाकुस्तान पहुँचने पर ब्रिगेडियर ख्वाजा मोहम्मद नसेर ने ब्रिगेडियर खेत्रपाल को स्वागत किया ओर उन्हे आपने घर  के सभी सदस्यों से मिलवाया। ब्रिगेडियर नसेर ने श्री खेत्रपाल का पैतृक निवास खोजने में भो मदद की । 

एक रात बटेन्न करते हुये ब्रिगेडियर नसेर ने ब्रिगेडियर खेत्रपाल से भावुक हूकर कहा , ”सर ,मैं आपको कुछ कहना चाहता हूँ” ।

ब्रिगेडियर खेत्रपाल- “कहिए ब्रिगेडियर” ।

ब्रिगेडियर नसेर – “सर, मैं जो कुछ कहाँ चाहता हूँ वो आपके शहीद बेटे लेफ्टिनेंट अरुण खेतपाल के बारे में हैं, भारत मे वो एक राष्ट्रीय नायक है, जो भारत का सबसे कम उम्र में परमवीर चक्र लेने वाला हीरो है। वो सच में बहुत बहादुर बच्चा था”।

ब्रिगेडियर खेत्रपाल- “आप अरुण के बारे में इतना कैसे जानते हैं ब्रिगेडियर” ।

ब्रिगेडियर नसेर – “सर , उसने बड़ी बहदुरी से अपने टँक का संचालन किया था ओर उसने हमारे बहुत से टैंक बर्बाद कर दिये  थे।  ओर वो अकेला अपने टैंक को लेकर अंदर तक घुस गया था। अंत में उसके सामने एक ही टँक बचा था जिसका संचालन मैं कर रहा था। हम अपनी अपनी गन से एक दूसरे पर फायर कर रह थे , मगर ........ वो दिन उसका नहीं था ओर  उस जाँबाज की मौत मेरे ही हाथों होनी थी। मुझे बाद में पता चला की वो सिर्फ 21 साल का लड़का था। मैं आपके बेटे को सैल्यूट करता हूं और आपको भी क्योंकि आपकी परवरिश के बिना वो इतना बहादुर शख्स नहीं बन सकता था.’

ब्रिगेडियर नसेर ने भावुक होकर ब्रिगेडियर खेत्रपाल के कंधो पर हाथ रखा ओर कहा , हमें दया या पश्चाताप के बिना लड़ने और मारने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। हम युद्ध करते हैं कि हमें इसके बारे में बहुत अधिक सोचने के बिना क्या करना है। हालांकि, हम भी इंसान ही हैं, मगर कभी-कभी युद्ध एक व्यक्तिगत मोड़ लेता है और अंतरात्मा पर प्रभाव डालता है”

ब्रिगेडियर खेत्रपाल को नहीं सूझा कि उन्हें इस मौके पर क्या कहना चाहिए. उनके सामने बेटे का हत्यारा था. पर जैसा एक जेंटलमैन ऑफिसर करता है, उन्होंने वही किया. दोनों ने हाथ मिलाया और सोने चले गए. उन्हें इस बात का इल्म था कि यह जंग उनके बेटे और ब्रिगेडियर नासिर के बीच नहीं, हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच हुई थी और फ़ौजी अपने मुल्क के लिए लड़ता है. अगली सुबह दोनों ने कुछ फ़ोटो खींचे और एमएल खेत्रपाल हिंदुस्तान वापस आ गए.

युद्ध में कभी कोई विजेता नहीं होता है, दोनों पक्ष हार जाते हैं और यह उन परिवारों को होता है जिन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ती है और सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है। जैसा कि किसी ने कहा था कि 'युद्ध नेताओं द्वारा बनाए जाते हैं, नौकरशाहों द्वारा मिश्रित होते हैं और सैनिक द्वारा लड़े जाते हैं

शनिवार, मई 11, 2019

शादी-विवाह और मैरिज ।


आज से पचास-पचपन साल पहले शादी-ब्याह की परम्परा कुछ अनूठी हुआ करती थीबच्चे-बच्चियाँ साथ-साथ खेलते-कूदते कब शादी लायक हो जाते थे, कुछ पता ही नहीं पड़ता थाबच्चे-बच्ची आज की तुलना में जल्दी 'मैच्योर' नहीं होते थे, बात-बात में उनका बचपन स्पष्ट झलकता था, बच्चियां अपनी शादी-सगाई की बात सुनकर शरमा जाया करती थी, पसन्द-नापसन्द का तो प्रश्न ही नहीं उठता था अधिकतर सगाई-सम्बन्ध काकी-भोजाइयों, बहन-भुआओं अथवा जान-पहचान वालों के द्वारा ही करवा दिए जाते थेऔर इसके अलावा कई बार लड़की के दादोसा, बाबोसा, पिताजी अथवा अन्य बड़ों के द्वारा भी सुयोग्य वर की तलाश में शेखावाटी से मारवाड़ और मारवाड़ से शेखावाटी में अपनी बहन-भुआओं के यहां जाकर आसपास के गांवों में भ्रमण कार्यक्रम रखे जाते थेभ्रमण के दौरान सगे-सम्बंधियों से खुलकर मज़ाक किए जाते थे
ऐसा माना जाता था कि मारवाड़ के लोग बड़े भोलेभाले और सीधे होते हैं जबकि शेखावाटी के लोग बड़े चालाक और डींग हांकने वाले होते हैं, जिनके भोलेपन और चालाकी के किस्से आज भी मशहूर हैंऐसे गोळ साफे वाले, लम्बी दाढ़ी वाले, जिनके कंधे पर लटकता 'खाखी थैला' मुझे आज भी याद आते हैं और जोर से खैंखारने वाले और किसी को भी चंग पर चढ़ाने और उतारने में माहिर अपने 'फेंकू' किस्म के बाबोसा भी याद आते हैं लड़के की योग्यता उसका खानदान और जमीन-जायदाद और लड़की की योग्यता उसके वंश-गोत्र और ठिकाणे की पैठ और गृहकार्य में दक्षता प्रमुख मानी जाती थी और आज की तरह रंग-रोगन, लम्बाई और साक्षात्कार इत्यादि गौण हुआ करते थेऐसा कहा जाता था कि 'भैंस ल्याणी नाणै की, ओर बहू ल्याणी ठिकाणै की ', 'बेटी नैं घर हाँण दे देणी, पण वर हाँण नीं देणी।।', 'रंग रो कांई देखणौ देख किरत अर काम'
सगाई कराने वाला मध्यस्थ केवल कुल इत्यादि की गारण्टी लेता था, टीका-दहेज़ तथा खातिरदारी इत्यादि लड़की वाला अपनी पैठ और प्रतिष्ठा के अनुरूप ही करता था, आज की तरह सौदेबाज़ी नहीं होती थी और इसीलिए उस समय तलाक, दहेज-हत्या, विधिक-प्रकरण इत्यादि पढ़ने-सुनने को नहीं मिलते थे'ब्याव' मंडते ही दोनों घरों में खुशी का माहौल छा जाता था, बान-बिन्दोरी की शृंखला ही शुरू हो जाती थीआज की तरह शादी के इनविटेशन-कार्ड अथवा निमन्त्रण-पत्र छपवाने का प्रचलन नहीं थापीले चावल की रस्म के साथ ही घर-परिवार और गाँव के लोगों को शादी की जानकारी हो जाया करती थी और उस के बाद ही वर-वधु पक्ष के लोग अपने प्यारे-प्रसंगियों को पीले चावल भेजकर अथवा दिखाकर शादी में आने का न्यौता दिया करते थे, पीले चावलों को ग्रहण करना ही न्यौते की स्वीकारोक्ति मानी जाती थीदूर के सगा-सम्बन्धियों को पोस्टकार्ड द्वारा सूचित किया जाता था, जिस पर शुभकार्य के निम्मित्त 'रोळी' के छींटे दिए जाते थे

शादी से महीने-सवा महीने पहले वर-वधु के लिए गोंद के लड्डू बनाकर खिलाए जाने का रिवाज़ तो कमोबेश आज भी है ताकि वे स्वस्थ दिखें। आवागमन के साधनों की कमी के कारण बारातियों की संख्या बहुत कम होती थी, आज की तरह लम्बा लवाजमा ले जाने की होड़ नहीं थीपास के रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए ऊंटों अथवा बैलगाड़ी का इस्तेमाल किया जाता था। जिस गाँव में बारात जाती थी उसके आदर-सत्कार के लिए पूरा गाँव तत्पर रहता था। बारात को 'जान' कहा जाता थाबारातों को ठहराने के लिए आज की तरह शानदार होटलें अथवा मैरिज गार्डन नहीं होते थे, कई कई प्रमुख और बड़े गाँवों में धर्मशालाएं अवश्य थीं'जान का डेरा' किसी न किसी के घर अथवा अहाते में ही दिया जाता था, किन्तु आदर और आत्मीयता की कोई कमी नहींबारातें तीन तीन-चार चार दिन तक ठहरती थींबाराती अपना-अपना 'बींटा' (बेडिंग) साथ लाते थे, आज की तरह टेंट- हाउस नहीं थेघराती केवल चारपाई का ही प्रबंध करते थे। बैंडबाजे के स्थान पर ढोली और दमामी होते थे जो समयानुकूल 'बिरदावलियां' गाया करते थेआज तो 'तोरण-सियाळै' के समय बैंड वाला 'बुद्धू पड़ गया पल्लेपल्ले मेरे पड़ गया पल्ले-------' भी बजा दे तो कोई ध्यान नहीं देता और बियर पीकर बना लोग थिरकते रहते हैंउस समय मर्दों का खुलेआम नाचना अपवादस्वरूप ही देखने को मिलता था

वर (बींद) जब तोरण पर जाता था तब उसे फाइनल सिलेक्शन बोर्ड के सामने उपस्थित होना पड़ता था, कोई भुआ बनकर मिलने के लिए आगे बढ़ती थी तो कोई कान के पास जोर से पायल बजाती थी, कोई दर्पण दिखाती थी, वधु चावल के लड्डू की मारती थी, झिलमिल की आरती के साथ घूंघट में से सासू-माँ अपने होने वाले जंवाई को निहारती थी और अपने पति या ससुर इत्यादि के चुनाव के औचित्य को परखती थीइस 'बोर्ड' के सामने बड़े-बड़ों के हौसले पस्त हो जाया करते थेबारातियों को मीठी मीठी 'गाळियां' सुनने को मिलती थी आजकल नई जनरेशन उस समय भी अपनी 'फेसबुक' और 'व्हाट्सएप्प' पर अपनी सेल्फ़ी शेयर करने में मशगूल पाई गई है

जीमने में हलुवा, लापसी, चावल और खीर प्रमुख होते थे, कई बार दूसरे-तीसरे दिन मांसाहारी भोजन भी परोसा जाता था और इसके लिए बारातियों में से किसी को बकरे का 'झटका' करना होता था और इसमें असफल रहने पर झटका करने वाले को तिरस्कारस्वरूप 'लूगड़ी' (ओढ़नी) ओढ़ा दी जाती थीबाजोट पर बैठकर 'आरोगो सा' की मीठी मनुहार के साथ जीमने का आनंद ही कुछ और थाअब तो दादोसा-बाबोसा का किसी बारात में जीमना किसी अभिनंदन के सर्जिकल-स्ट्राइक से कम नहीं है 'जान-जुहारी' और 'प्याला' के पीछे परिचय जैसी अच्छी परम्परा रही है, जिससे वर-वधु पक्ष वाले आपस में एक-दूसरे से जान-पहचान बढ़ा कर निकट आते थे , यदि आज एक-दो महीने बाद बस या ट्रेन में वर-वधु के काकोसा या बाबोसा अनायास ही मिल जाएं तो हो सकता है वे एक-दूसरे को पहचाने ही नहीं क्योंकि आजकल परिवार की परिभाषा एकदम सिकुड़ गई है अतः अब इस 'प्याला-जुहारी' को बंद कर दिया जाना चाहिए


लेखक - मानसिंह शेखावत 'मऊ'

शुक्रवार, फ़रवरी 08, 2019

रिश्ता


हृदय  की
अगाध गहराइयों में,
पल्लवित है
एक बेनाम-सा
रिश्ता,  
जो अक्सर बगावती
तेवर दिखा ,
चाहता है कोई
नाम अपने लिए,
अब तुम ही कहो,
कहाँ संभव है इस
संवेगहीन दुनियाँ
में किसी को
अपना कहना....
"विक्रम"

रविवार, फ़रवरी 03, 2019

पुनर्जन्म


मैं,
तैरकर ना आ सका
हमारे दरमियाँ बहते
रिवाजों ,ऊंच-नीच
की लहरों ,समाज के
बंधनो के भँवर के उस पार....
मगर ,
मैंने तुम्हारी यादों की
एक नाव बना रखी है,
तुम बस  उस  पार
इंतजार की पतवार
थाम के रखना ,
इस जन्म का लंगर
खोल,  फिर लेंगे  
पुनर्जन्म .....



नुकीले शब्द

कम्युनल-सेकुलर,  सहिष्णुता-असहिष्णुता  जैसे शब्द बार बार इस्तेमाल से  घिस-घिसकर  नुकीले ओर पैने हो गए हैं ,  उन्हे शब्दकोशों से खींचकर  किसी...

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